कहानी के भेद (प्रकार )
कहानी के भेद (प्रकार )
कहानी के बारे में ऊपर दिये गए परिचय से यह तो आप जान गए होंगे कि कहानी में कुछ ऐसे तत्व होते हैं, जो प्रायः सभी कहानियों में मिलेंगे। किन्तु यह भी सच है कि सभी समान रूप से नहीं होते। किसी में विषय वस्तु की प्रधानता होती है तो किसी में पात्र यानी चरित्रों को प्रधानता दी जाती है। कहीं वातावरण प्रमुख होता है तो कहीं भाव महत्वपूर्ण हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कहानी में विभिन्न तत्वों की प्रधानता के कई रूप मिलते हैं। तत्वों के इन्ही रूपों के आधार पर कहानियों के कई भेद किये जा सकते हैं। अपनी विकास-यात्रा में हिन्दी कहानी अनेक स्वरूपों और शैलियों में व्यक्त हुई है। आगे हम कहानी के इन भेदों का अध्ययन करेंगे।
1 घटनाप्रधान कहानी :-
जिन कहानियों में क्रमशः अनेक घटनाओं को एक सूत्र में पिरोते हुए कथानक का विकास किया जाता है अथवा किसी दैवीय घटना और संयोग का विशेष सहारा लिया जाता है, उन्हें घटना प्रधान कहानी कहा जाता है। स्थूल आर्दशवादी कहानियाँ, जासूसी, रहस्यपूर्ण, तिलस्मी एवं अद्भुत् कहानियाँ प्रायः इसी प्रकार की होती हैं। इसमें सूक्ष्म भावों की अभिव्यंजना पर बल नहीं होता बल्कि मनोरंजन पर बल रहता है। ऐसी कहानियाँ कला की दृष्टि प्रायः साधारण कोटि की मानी जाती हैं।
2 चरित्र - प्रधान कहानी :-
जिन कहानियों में चरित्र-चित्रण की प्रधानता होती है वे चरित्र प्रधान कहानियों के वर्ग में आती हैं। चरित्र प्रधान कहानियों में लेखक का ध्यान पाठकों को घटनाओं के विस्तार में न उलझाकर कहानी के पात्रों के चरित्र-निरूपण की ओर रहता । इन कहानियों का मुख्य धरातल मनोविज्ञान होता है। चरित्र - प्रधान कहानियाँ घटनाओं को छोड़कर पात्र के चरित्र और मनोवृत्ति अर्थात् मनुष्य के भीतर की भावनाओं, संवेदनाओं, विचारों एवं क्रिया-प्रतिक्रियाओं को बहुत ही सूक्ष्म ढंग से व्यक्त करती है। इनमें व्यक्ति के अन्तर्मन का चित्रण हुआ है। इस आधार पर हम कह सकते है कि चरित्र प्रधान कहानियों में पात्रों के माध्यम से व्यक्ति के भीतर पनप रही आत्म- पीड़ा, दया, खुशी, प्रेम, ईर्ष्या, संकोच, संघर्ष, सहानुभूति एवं महत्त्वाकांक्षा इत्यादि अत्यन्त सूक्ष्म भावों को व्यक्त किया जाता है। मूलतः इन कहानियों में पात्रों के मनोगत भावों और मानसिक संघर्षो को महत्व मिला हैं।
3 वातावरण प्रधान कहानी :-
इन कहानियों में वातावरण अर्थात् परिवेश को महत्त्व दिया जाता है। क्योंकि कहानी केवल कल्पना न होकर जीवन परक है और जीवन हमेशा वातावरण से युक्त होता है। हमारे प्रतिदिन के कार्यो और व्यवहारों में किसी न किसी रूप से आस-पास का माहौल या परिवेश का प्रभाव होता है। विशेषतः ऐतिहासिक कहानियों में वातावरण अधिक महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि वहाँ किसी युग विशेष का, उस युग की संस्कृति, सभ्यता आदि का वर्णन करना होता है। प्राकृतिक परिवेश, संवाद, संगीत, भाषा आदि की सहायता से वातावरण को जीवंत बनाया जाता है। प्रेमचन्द की 'पूस की रात', 'गुल्ली-डण्डा' प्रसाद की 'बिसाती', 'बनजारा, 'आकाशदीप' में यह तत्व पूर्ण रूप से चरितार्थ हुआ है।
4 भाव प्रधान कहानी :-
इससे पहले आपने चरित्र और वातावरण प्रधान कहानियों की विशेषताओं को पढ़ा है। भाव प्रधान कहानी प्रायः चरित्र और वातावरण को प्रमुखता देने वाली कहानियों की तरह ही होती है। यह कह सकते हैं कि इन दोनों प्रकार की कहानियों के बीच में भाव - प्रधान कहानियाँ आती है क्योंकि इनमें केवल किसी एक भाव या विचार को आधार बनाकर समूचा कथानक निर्मित होता है और उसी के आधार से समूची कहानी अपनी एक लय के साथ निर्मित होती है। ऐसी कहानियों में एक भावना को मुख्य रखकर पात्र और वातावरण को गौण रखा जाता है। जैसे जैनेन्द्र की ‘नीलम देश का राजकन्या' 'अज्ञेय' की 'कोठरी की बात' और टैगोर की 'भूखा पत्थर' उल्लेखनीय है । भाव प्रधान कहानियाँ प्रायः प्रतीकवादी कहानियों का रूप धारण कर लेती है, क्योंकि ये कहानियाँ अपने भाव चित्रों में प्रतीकों का सहारा लेकर मानसिक चित्रों और आन्तरिक सौन्र्दय के सत्य को 'साकार' रूप देने में सफल होती है।
5 मनोविश्लेषणात्मक कहानी :-
हिन्दी में मनोविश्लेषणात्मक कहानियों का सफल आरम्भ जैनेन्द्र कुमार से हुआ । मनोवैज्ञानिक कहानियों के विकासक्रम में ही मनोविश्लेषणात्मक कहानियाँ आती हैं। इन कहानियों में घटनाओं और कार्यों की अपेक्षा मानसिक ऊहापोह और मनोविश्लेषण को प्रमुखता दी जाती है। इन कहानियों में विद्रोह, पाप और अपराध के विश्लेषण हुए तथा पापी, विरोधी और अपराधी के प्रति करुणा, सहानुभूति और दया की भावना लायी गई तथा स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों पर मौलिक ढ़ंग से विचार हुए। इन कहानियों में अपूर्व ढंग से और एक नये दृष्टिकोण से सामाजिक मूल्यों और प्रश्नों को देखा एंव परिभाषित किया गया। जैनेन्द की कहानी 'क्या हो', 'एक रात', 'ग्रामोफोन का रिकार्ड', इलाचन्द्र जोशी की 'मैं', 'अज्ञेय' की 'अमरवल्लरी', 'विपथगा', 'साँप', 'कोठरी की बात' इसी प्रकार की कहानियाँ हैं।
6 कहानी के शैलीगत भेद :-
शैली तत्व कहानी कला की वह रीति है जो इसके अन्य तत्वों का अपने विधान में उपयोग करती है। कहने का तात्पर्य यह है कि शैली के अन्तर्गत कहानी- कला निर्माण की विभिन्न प्रणालियाँ एवं अभिव्यक्ति के तत्व आते हैं जिसके प्रयोग से कहानीकार अपने भावों को मूर्त करता है। कहानियों के शैलीगत वर्गीकरण में वर्तमान युग में कहानी लेखन की अनेक शैलियाँ दिखाई दे रही है। यों तो अधिकतर कहानी वर्णनात्मक शैली में लिखी जाती है, किन्तु ऐतिहासिक, आत्मकथात्मक, संवादात्मक और पत्रात्मक शैली भी विकसित हैं। कुछ लेखकों ने अब डायरी शैली में भी कहानियाँ लिखी है। इसके अतिरिक्त रेखाचित्रों और संस्मरणों के रूप में भी कहानियों की रचना की जाती है।
ऐतिहासिक शैली -
इसके अन्तर्गत कहानीकार तटस्थ होकर कथावाचक के रूप में कहानी रचना करता है जो पूर्णताः वर्णन पर आधारित होती है। वर्णनात्मक शैली इसी के अन्तर्गत आती है। कहानी का सूत्रधार कहानीकार होता है और नायक 'वह' यानी अन्य पुरुष ही होता है। स्थान-स्थान पर बौद्धिक विवेचन, भावात्मक वर्णन और विश्लेषण आदि को भी स्थान मिलता है।
आत्मकथात्मक शैली -
इस शैली में कहानीकार या कहानी का कोई पात्र ‘मै' अर्थात् ‘स्वयं’ के आधार पर आत्मकथा के रूप में पूरी कहानी कहता है। इलाचन्द जोशी की 'दीवाली और होली', सुदर्शन की 'कवि की स्त्री' और 'अज्ञेय' की 'मंसो' इसी प्रकार की कहानी है। पत्रात्मक शैली - कहानीकार जब पत्रों के माध्यम कहानी की रचना करता है तो वह पत्रात्मक शैली कहलाती है। प्रभाव की दृष्टि से यह शैली अधिक प्रचलित और विकसित नहीं है।
डायरी शैली -
यह शैली पत्र शैली के अधिक निकट है। इसमें डायरी के विभिन्न पृष्ठों द्वारा सम्पूर्ण कहानी कही जाती है। इस शैली में भूतकाल का चित्रण सजीवता से किया जाता है।
इनके अतिरिक्त कतिपय विद्वानों ने विषय की दृष्टि से कहानियों के अन्य भेद माने हैं जिनमें साहसिक, रोमांसिक, जासूसी, ऐतिहासिक और सामाजिक सम्मिलित हैं। अधिकाशंतः इन्हें घटनाप्रधान कहानियों की श्रेणी में रखते हैं।