उसने कहा था : पाठ एवं विवेचन
उसने कहा था : पाठ एवं विवेचन
हिन्दी के निराले आराधक श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी की बेजोड़ कहानी 'उसने कहा था ' सन् 1915 ई. में सरस्वती में प्रकाशित हुई थी । यों तो हिन्दी की पहली कहानी के रूप में इंशा अल्ला खां की कहानी 'रानी केतकी की कहानी' किशोरी लाल गोस्वामी की 'इंदुमती' और बंग महिला की ‘दुलाई वाली' का नाम लिया जाता है। मगर कहानी की कसौटी पर खरा उतरने के कारण ' उसने कहा था' कहानी को ही हिंदी की पहली कहानी होने का गौरव प्राप्त है। हमारे यहाँ प्रेम पद्धति में पुरुष प्रेम का प्रस्ताव करता है और स्त्री स्वीकृति देकर उसे कृतकृत्य बनाती है। इस क्रिया व्यापार में नारी अपनी सलज्जता और गरिमा बनाए रखती है और पुरुष उसे संरक्षण देने में पौरुष की अनुभूति करता है। पुरुष के इसी पौरुषपूर्ण साहसिक प्रयत्न की ओर ही हुधा नारी आकर्षित होती है। श्री चंद्रशेखर शर्मा गुलेरी जी ने भारतीय प्रेम पद्धति के परंपरागत रूप को ‘उसने कहा था’ कहानी में अक्षुण्ण बनाए रखा है। इस कहानी में प्रेम का स्वरूप किशोरावस्था के प्रथम दर्शन से आरंभ होकर क्रमशः विकसित होकर संयोगावस्था में पूर्णता प्राप्त कर वियोगावस्था (त्रासदी) में पूर्ण होता है। अमृतसर के बाजार में एक लड़का और लड़की मिलते हैं। लड़का लड़की से पहला सवाल करता है, 'तेरी कुड़माई हो गई?” और लड़की के नकारात्मक उत्तर पर प्रसन्न हो दूसरे-तीसरे दिन भी यह प्रश्न दोहरा देता है, पर यकायक एक उम्मीद के विपरीत जब लड़के को पता चलता है कि उसकी कुड़माई हो गई है तो वह इस अप्रत्याशित जवाब से क्षुब्ध हो कई ऊल-जुलूल काम कर बैठता है। तीव्र मन से लहना सिंह आघात महसूसते हुए क्या-क्या सोचने करने लगता है, निज चेतन एवं उपचेतन तथा अचेतन मन की विभिन्न परतों को खोल देने वाला वर्णन गुलेरी जी ने 20वीं सदी के शुरुआती काल में किया है, वह सचमुच इंसानी मन के चेतन उप चेतन तथा अचेतन मन की विभिन्न परतों को खोल देने वाला ही है। गुलेरी जी के चरित्र चित्रण की ऐसी अनूठी मनोवैज्ञानिकता से पाठक आश्चर्यचकित रह जाता है। लहना सिंह अपने बचपन के प्रेम को पच्चीस साल बाद भी भुला नहीं पाता, तब लगता है सूरदास के 'लरिकाई को प्रेम कहौ अलि कैसे छूटत' वाली उक्त अक्षरशः सत्यापित होती है। संभवतः ऐसे अनूठे भावों के सुंदर सुदृढ़ गुंफन के कारण 'उसने कहा था' कहानी ख्याति स्तंभ कहानी बन गई और हिन्दी के समूचे कहानी साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है। इस कहानी में शाश्वत मानव मनोभाव कथ्य का आधार बने हैं।
उसने कहा था : कहानी की विशेषता
कहानी की विशेषता यह है कि आम पाठक जिज्ञासु बनकर घटनाओं के प्रति उत्सुक बना रहता है। “किसने कहा था", "क्या कहा था" और "क्यों कहा था ”। यही तो कहानी के मूल तथ्य से जुड़ा दुर्लभ संवेदन है जो घटनाचक्र के साथ पाठक को दृढ़ता से जोड़े रखता है और उसकी जिज्ञासु प्रवृत्ति को विकसित करता है। बेशक, इस कहानी में दूसरे और पात्र भी हैं, मगर कथ्य की मूल आत्मा केवल लहना सिंह और सूबेदारनी में ही अधिक संवेदित दिखायी देती है। दोनों के मध्य एक ऐसी प्रेम कहानी अपना ताना-बाना बुनती है, जो लहना सिंह के जीवन को आदर्शवादी मूल्यों का नशेमन ( नीड़) बना देता है। एक ऐसा अनुपम पात्र जो देखने-सुनने एवं पढ़ने वालों के लिए अनुकरणीय और आदरणीय तो है ही आह्लादक भी लगता है और कहानी मानवीय शाश्वत भावों को प्रकाशित करने वाली कर्तव्य एवं त्याग (बलिदान) की कहानी सिद्ध होती है। इसमें नायक-नायिका (सूबेदारनी) के मधुर रागात्मक मिलन की क्षणिक चमक दोनों के संपूर्ण जीवन तथा व्यक्तित्व को आलोकित करती है - उसने कहा था ? इस कथन को युद्ध क्षेत्र में पड़ा लहना सिंह 25 वर्ष बीत जाने पर भी भूलता नहीं है। वरन् यह उसके लिए प्रेरक शक्ि सिद्ध होती है। उसके आत्मोत्सर्ग त्याग, बलिदान का कारण बनता है। एक मायने में लहना सिंह प्रेम के लिए ही बलिदान करता है।
देश और प्रेम के प्रति कर्तव्य की भावना 'उसने कहा था' कहानी की मूल थीम है । जीवन के अंतिम क्षण में ‘कुड़माई’ से लेकर 'उसने कहा था' तक तमाम स्मृतियाँ अपना आकार लेती हुई लहना सिंह की आँखों में सपना बनकर तैरती हैं। वजीरा सिंह उसे पानी पिलाता को यो प्रतीत होता है मानों पानी के उस घूँट के साथ जुड़कर अतीत का प्रेम अपार सुख संतोष लहना सिंह उसमें अपने आप भर गया हो। कर्तव्य बोध के शिकंजे में कसती जा रही घायल लहना सिंह की जिंदगी का एक-एक क्षण उत्सर्ग की भावना से ओत-प्रोत होकर सच्चे प्रेम का साक्ष्य बन जाता है। या यूं कहें कि घायल शरीर से रिस रहे उसके लहू की एक-एक बूंद सूबेदारनी की माँग के सिंदूर को धूमिल होने और आँचल के दूध को सूखने से बचाती है। अंतिम श्वास तक लहना सिंह की कर्तव्य परायणता जीवित रहती है और मरने के बाद उत्सर्ग से अनुप्राणित लहना सिंह का पावन प्रेम मंदिर की पूजा की भांति अत्यंत पावन बनकर लोकोत्तर आनंद एवं अप्रतिम सौंदर्य से दीप्तिमान हो उठता है। प्रेम की इस पवित्र परिणति में वासना की व्यग्रता तथा मादक चपलता से मुक्त लहना सिंह अमरत्व प्राप्त करता और इस तरह गुलेरी जी अविस्मरणीय बन जाते हैं।
“स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है, 'मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में ज़मीन दी है, आज नमक हलाली का मौका आया है।” पर सरकार ने हम तीमियों की एक घंघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदार जी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी। “अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दूकान के
पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे, और मुझे उठा कर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्ष है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।"
दो शब्द कहानी की भाषा-शैली पर भी कहना आवश्यक है। ध्यातव्य है कि 1915 ई. में कहानीकार इतने परिनिष्ठित गद्य का स्वरूप उपस्थित कर सकता है जो बहुत बाद तक की कहानी में भी दुर्लभ है। यदि भाषा में कथा की बयानी के लिए सहज चापल्य तथा जीवन-धर्मी गंध है तो चांदनी रात के वर्णन में एक गांभीर्य जहां चंद्रमा को क्षयी तथा हवा को की कादम्बरी में आये दन्तवीणोपदेशाचार्य की संज्ञा से परिचित कराया गया है। रोजमर्रा की के शब्दों, वाक्यांशों और वाक्यों तथा लोकगीत का प्रयोग भी कहानी को एक नयी धारा देता है। इस प्रकार अनेक दृष्टियों से "उसने कहा था ” हिंदी ही नहीं, भारतीय भाषाओं की ही नहीं अपितु विश्व कहानी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। क्या लहना सिंह और बालिका के प्रेम को प्रेम रसराज श्रृंगार की सीमा का स्त्री-पुरुष के बीच जन्मा प्रेम कहा भी जा सकता है? मृत्यु के कुछ समय पहले लहना सिंह के मानस पटल पर स्मृतियों की जो रील चल रही है उससे ज्ञात होता है कि अमृतसर की भीड़-भरी सड़कों पर जब बालक लहना सिंह और बालिका (सूबेदारनी) मिलते हैं तो लहना सिंह की उम्र बारह वर्ष है और बालिका की आठ वर्ष। ध्यातव्य है कि 1914-15 ई. का हमारा सामाजिक परिवेश ऐसा नहीं था जैसा आज का। आज के बालक-बालिका रेडियो, टी.वी. तथा अन्य प्रचार माध्यमों और उनके द्वारा परिवार नियोजन के लिए चलायी जा रही मुहिम से यौन-संबंधों की जो जानकारी रखते हैं, उस समय उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। यह वह समय था जब अधिकतर युवाओं को स्त्री-पुरुष संबंधों का सही ज्ञान नहीं होता था। ऐसे समय में अपने मामा के यहां आया लड़का एक ही महीने में केवल दूसरे-तीसरे दिन कभी सब्जी वाले या दूध वाले के यहां उस बालिका से अकस्मात मिल जाता है तो यह साहचर्यजन्य सहज प्रीति उस प्रेम की संज्ञा तो नहीं पा सकती जिसका स्थायी भाव रति है। इसे बालपन की सहज प्रीति ही कहा जा सकता है जिसका पच्चीस वर्षो के समय तक पडने वाला वह तार यह संवाद है तेरी कुडमाई हो गई? और उत्तर का भोला धृष्ट धत् है। किंतु एक दिन धत् न सुन कर जब बालक लहना सिंह संभावना, आशा के विपरीत यह सुनता है हां, हो गई, कब?, कल, देखते नहीं यह रेशम से कढा हुआ सालू! तो उसकी दुनिया में उथल- पुथल मच जाती है, मानो उसके भाव जगत में एक तूफान आ जाता है, आग सी लग जाती है।
गुलेरी की कहानी - कला अपने समय इस कहानी कला से आगे की है। गुलेरी पर भी अपने समय का प्रभाव है-उसकी प्रचलित रूढ़ियों का साफ प्रभाव उनकी पहली कहानी "सुखमय जीवन" पर है। यह कहानी वैसी ही है जैसी उस दौर की अन्य कहानियां हैं। यह कहानी नहीं, वृत्तांत भर है-इसमें शिल्प और तकनीक का कोई मौलिक नवोन्मेष नहीं है। लेकिन उन्होंने अपनी अगली कहानी "उसने कहा था ” में अपने समय को बहुत पीछे छोड़ दिया है। शिल्प और तकनीक का जो उत्कर्ष प्रेमचंद ने अपने जीवन के अंतिम चरण आसपास ‘“कफन” और “पूस की रात” में अर्जित की, गुलेरी ने इस कहानी में उसे 1915 ई. 1936 ई. के में ही साध लिया। यह यों ही संभव नहीं हुआ। इसे संभव किया गुलेरी के असाधारण व्यक्तित्व ने। गुलेरी 1915 ई में महज 32 वर्ष के थे। युवा होने के कारण उनमें नवाचार का साहस था। उम्र- दराज आदमी जिस तरह की दुविधाओं और संकोचों से घिर जाता है, गुलेरी उनसे सर्व मुक्त थे। अंग्रेजी कहानी इस समय अपने विकास के शिखर पर थी और उसमें प्रयोगों की भी धूम थी, जिनसे गुलेरी बखूबी वाकिफ थे। कम लोगों को जानकारी है कि गुलेरी उपनिवेशकाल में अंग्रेजों द्वारा सामंतों की शिक्षा के लिए अजमेर में स्थापित विख्यात आधुनिक शिक्षण संस्थान मेयो कॉलेज में अध्यापक थे और आधुनिक अंग्रेजी साहित्य के अच्छे जानकार थे। दरअसल नवाचार के साहस और आधुनिक अंग्रेजी साहित्य की विशेषज्ञता के कारण ही गुलेरी अपने समय से आगे की कहानी लिख पाए । गुलेरी के कौतुहलपूर्ण कथोपकथन से कहानी की प्राण प्रतिष्ठा और भी शास्त्रोक्त हो जाती है-
"तेरे घर कहाँ है?"
'मगरे में; और तेरे ?"
'माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?"
'अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं । "
'मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरुबाज़ार में हैं। ' इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुसकराकार पूछा, “तेरी कुड़माई हो गई?” इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर 'धत्' कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।