अन्धेरनगरी - आलोचना मूल्यांकन
भारतेन्दु हरिचन्द्र का जीवन परिचय
भारतेन्दु हरिचन्द्र का जन्म काशी के एक समृद्ध परिवार में हुआ था। आपके जीवन काल 1850- 1800 को देखते हुए आपकी साहित्यिक उपलब्धियाँ बहुत बड़ी थीं। साहित्यिक पत्रकारिता (कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगजीन, हरिचन्द्र चन्द्रिका) के प्रारम्भ की बात हो या गद्य की अन्य विधाओं के प्रारम्भ (आत्मकथा, जीवनी, निबंध, नाटक, यात्रावर्तांत जैसी विधाओं) की बात भारतेन्दु हिन्दी साहित्य के प्रवर्तक बनते हैं। पद्य को खड़ी बोलने की ओर मोड़ने का प्रयास हो या साहित्य संबंधी ‘रीतिविरोधी मानसिक' चेतना पैदा करने का प्रश्न हो, भारतेन्दु हरिचन्द्र हिन्दी साहित्य में अग्रणी माने जाते हैं। हिन्दी साहित्य को राष्ट्रीयता, समाजसुधार की ओर मोड़ने का प्रश्न हो या ‘निज भाषा’ की उन्नति का सूत्र प्रदान करने का प्रश्न, भारतेन्दु अपने युग के निर्माता बनते हैं। भाषागत रवानी एवं व्यंग्य के प्रयोग के कारण भारतेन्दु की भाषा जिंदादिल हो गई है। भारतेन्दु का लेखकीय व्यक्तित्व इतना बड़ा था कि अपने युग में ही 'भारतेन्दु-मण्डल' के नाम से विख्यात हो गया है
अन्धेरनगरी नाटक परिचय
‘अंधेर नगरी' भारतेन्दु का सर्वाधिक चर्चित नाटक (प्रहसन) है। इसका रचनाकाल सन् 1881 है। इस तरह से यह भारतेन्दु का अंतिम नाटक है। अंधेर नगरी की रचना बंगाल के एक जमींदार को शिक्षित करने लिए भारतेन्दु ने की थी। यह नाटक एक रात में लिखा गया था। अपने कलेवर में यह नाटक संक्षिप्त ही कहा जा सकता है। लेकिन अपने अर्थ- गांभीर्य में यह नाटक इतनी व्यंजना लिये हुए है। कि पूरा नाटक ही प्रतीकात्मक हो गया है। यह नाटक छः दृश्यों में विभक्त है। नाटक का विकासा नाटकीय कार्य व्यापारों पर आधारित है। आरम्भ, प्रयन्त, फलागम जैसी शास्त्रीयता भी है और समसामयिकता भी। एक ओर नाटक लोकवृत्त का घेरा तैयार करता है। तो दूसरी और व्यवस्था पर चोट करता है। हास्य-व्यंग्य के साथ व्यवस्था की विसंगति को दिखान ही इस नाटक का मूल उद्देश्य है ।
1 कथावस्तु
अंधेर नगरी' नाटक (प्रहसन) की कथावस्तु का आधार सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था पर निर्मित था। छ दृश्यों में विभक्त इस नाटक की कथावस्तु का आधार वर्तमान सामाजिक- राजनीतिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक विसंगति है। प्रथम दृश्य नाटक की प्रस्तावना रूप में आया है । "लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान / लोभ कभी नहीं कीजिए, यामैं नरक निदान ।। "
सूत्र रूप में आया है। लोभ और मूर्खता चूँकि पूरे नाटक के कथा तत्वों को आबद्ध किए हुए है, इस दृष्टि से भी महन्त द्वारा कहे गये ये वाक्य नाटक की प्रस्तावना व कथा के मूल बिन्दु का संकेत करते हैं। भारतेन्दु के नाटकों की एक प्रधान विशेषता उसका प्रतीकाव्यक स्वरूप है। चाहे व ‘भारत-दुर्दशा' नाटक हो या ' अंधेर नगरी' अपनी व्यंजना में प्रतीकात्मकता ही है। इस नाटक में गुरु विवके के प्रतिनिधि रूप में आया हें गोबर्धनदास मूर्खता के प्रतीक रूप में आया है। दूसरा शिष्य नारायणदास बुद्धि के प्रतीक रूप आया है, जो विवेक का अनुसरण करती है। चौपट राज- दिशाहीन व्यवस्था का प्रतीक है। नाटक का दूसरा दृश्य बाजार पर आधारित है। बाजार में कबाव, चनेवाला, नारंगीवाली, हलवाई, कुंजड़िन, मसाले वाला, पाचक वाला, मछली वाली, बनिया सभी अपनी दुकान लगाये दिखते हैं। सबका दाम प्रति टका सेर है। पूरे नाटक का बीज वक्तव्य भी इसी पंक्ति में निहित है। नाटक का तीसरा दृश्य गुरू (महन्त ) व उकसे दोनों शिष्यों नारायणदास व गोबर्धनदास के वार्तालाप पर आधारित है। महन्त अपने शिष्यों को समझाता है कि जहाँ अच्छे और बुरे, मूर्ख व पंडित का भेद न हो, वह जगह रहने लायक नहीं है। इस प्रकार यह दृश्य नाटक में आने वाले घटना क्रम का संकेत करता है। नाटक का चतुर्थ दृश्य राजसभा का है। इस दृश्य मै चौपट्ट राजा की मूर्खता का हमें दर्शन होता है। कथा सूत्र का विकास भी इसमें है- जब राजा की अदूरदर्शिता व अन्यायपूर्ण समझ का हमें पता चलता है। पाँचवें दृश्य में नाटकीय ढंग से गोवर्धनदास को फाँसी के लिए पकड़ लिया जाता है। इस तर्क के कारण कि 'जो भी मोटा होगा और जिसकी गर्दन फाँसी के फंदे में आयेगी, उसे फाँसी दिया जायेगा', गाबर्धनदास फांसी के लिए पकड़ लिया जाता है। यह दृश्य नाटकीय भाषा में कथा का चरम विकास हें नाटक का छठा व अंतिम दृश्य श्मसान पर केन्द्रित है। गोबर्धनदास के बुलाने पर महन्त आकर उसे बचा लेता है और अपनी बृद्धि से राजा को फांसी पर चढ़ा देता है। इस प्रकार सुखद अन्त के साथ नाटक सामप्त जाता है। कथावस्तु का विश्लेषण करें तो ऊपर से साधारण सी दिखनेवाली कथावस्तु अपने भीतर गहरे व्यंग्य को धारण किए हुए है। कथावस्तु का फैलाव इतना घनीभूत है कि चौपट्ट राजा व अंधेर नगरी संपूर्ण राष्ट्र के पर्याय रूप में प्रसारित हो जाते हैं।
2 पात्र / चरित्र चित्रण-
संपूर्ण नाटक का विश्लेषण करने पर 'अंधेर नगरी' की व्यंजना अपने आप में अप्रतिम है। चाहे वह कथावस्तु का संदर्भ हो या चरित्र-चित्रण का प्रश्न, सर्वत्र भारतेन्दु के व्यक्तित्व व लेखन- शैली के हमें दर्शन होते है। चरित्र व पात्र विश्लेषण के प्रसंग में हम देखते है। कि अन्य नाटाकें की तुलना इस नाटक में पात्रों की संख्या कम है। महन्त, उसके दोनों शिष्यों नारायणदास व गोबर्धनदास व चौपट्ट राजा यही नाटक के प्रधान चरित्र है। अन्य पात्रों में मंत्री, चूने वाला, भिश्ती, कस्साई, गड़ेरिया, कोतवाल, सिपाही हैं। इसके अतिरिक्त भारतेन्दु जी ने कुछ वर्गीय पात्रों का भी रचा है। नाटक के दूसरे दृश्य में कबाव वाला, घासीराम, नारंगी वाली, हलवाई, कुजड़िन, मुगल, पाचकवाला, मछलीवाली, जातवाला (ब्राह्मण), बनिया इत्यादि है। भारतेन्दु के चरित्र चित्रण में उनकी व्यंग्यात्मक दृष्टि देखते ही बनती है। चाहे व नगर का नामकरण (अंधेर नगरी) हो या राजा का नामकरण ( चौपट्ट राजा)।
3 संवाद-
'अंधेर नगरी' अपने कलेवर में संक्षिप्त छोटा नाटक है। संक्षिप्त आकार के बावजूद अपने संवादों की चुस्ती, प्रसंगानुइलता व व्यंग्यता के कारण नाटक की भाषा अपने उद्देश्य में सफल है। सामान्य बोलचाल की भाषा में इतना अर्थ- गौरव कम ही देखने को मिलता है। जयशंकर प्रसाद की संवाद योजना की तरह भारतेन्दु में दार्शनिक ऊँचाई भले न मिले, किन्तु व्यंग्य में भारतेन्दु के संवाद ज्यादा मारक है। गीतात्मक ढंग से प्रहसन का प्रारम्भ होता है, जो भारतीय नाट्य परम्परा के क्रम में ही है। दूसरे दृश्य में, बाजार का संपूर्ण चित्र गीतों के माध्यम से ही खींचा है। गीत भी सीधे-सादे नहीं व्यंग्यात्मक। घासीराम का कथन देखें- 'चना हाकिम सब जो खातै। सब पर दूना टिकस लगाते ।।' इसी प्रकार पाचकवाला का संवाद देखिये- “ चूरन जब से हिन्द में आया। इसका धन बल सभी घटाया...... चूरन सभी महाजन खाते। जिससे जमा हजम कर जाते ।।. चूरन खावै एडिटर जात, जिनके पेट पचै नहिं बात।।.. . चूरन साहब लोग जो खाता । सारा हिन्द हजम कर जाता ।। चूरन पुलिस वाले खाते। सब कानून हजम कर जाते ।” इसी प्रकार जातवाला (बाह्मण) का कथन देखिये- "जात ले जात, टके सेर जात । एक टका दो, हम अभी अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्त ब्राह्मण से धोबी हो जाएं और धोबी को ब्राह्मण कर दें.. उत्तर- आधुनिक संदर्भों में उपरोक्त पंक्तियाँ कितनी प्रासांगिक हैं। इसी प्रकार गोबर्धनदास का कथन देखें- ' अन्धेर नगरी चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी टका सेर खाजा'। 'अंधेर नगरी' नाटक की भाषा की एक प्रमुख विशेषता इसकी हास्य शैली है। नाअक् के चौथे दृश्य इस प्रकार के काफी संवाद हैं।
4 देशकाल एवं वातावरण-
‘अन्धेर नगी' नापटक का रचनाकाल 1881 ई. है। वह समय एक और भारतीय समाज राजनीतिक रूप से औपनिवेशिक परतंत्रता से जूझ रहा था, दूसरी ओर सामाजिक धरातल पर जातिगत, धार्मिक, वर्गगत संकीर्णताओं से भी जझ रहा था। कहते हैं- 'अंधेर नगरी' नाटक की तत्कालीन प्रेरणा यह कही जाती है कि इसे भारतेन्दु जी ने बंगाल के एक भ्रष्ट जमींदार को उसके कर्तव्य का भान कराने के लिए लिखा था। क्रमशः नाटक की व्यंजना संपूर्ण राष्ट्र में प्रसारित हो जाती है। अंधेर नगरी, अंग्रेजी कुशासन के प्रतीक के रूप में रूपान्तरित हो जाता है। और चौपट्ट राजा तत्कालीन अंग्रेजी शासकों में रूपान्ततिर हो जाता है। भारतेन्दु युग की अराजकता, दिशाहीनता एवं शोषण को यह नाटक बखूबी चित्रित करता है। पाचकवाले के बहाने से भारतेन्दु ने भारतवासियों की दुर्बलता, रिश्वतखोरी, महाजनों का शोषण, अंग्रेजों का शोषण, पुलिस की अराजकता इत्यादि पर प्रकाश डाला हैं इसी प्रकार जातवाले के बहाने से भारतेन्दु जी ने पूँजी की वर्चस्ववादी प्रकृति व भारतीय समाज के अनैतिक आचरण व ह्यसशील स्थिति का चित्र खींचा है। तत्कालीन समाज की विसंगति को व्यक्त करने के लिए भारतेन्दु जी ने गीतों का सार्थक प्रयोग किया है। अंधेर नगरी का प्रसिद्ध कथन देखिये-
" अन्धाधुन्ध मच्या सब देसा ।
मानहु राजा रहत विदेशा। ”
अंधेर नगरी: मूल्यांकन
जब राष्ट्र सांस्कृतिक व राजनीतिक पराधीनता के चक्र के तले दबता -पिसता, कराहता है तब-तब समर्थ रचनाकार अपने ढंग से उसका प्रतिकार करते रहते हैं। प्रतिकार में अक्सर 'लोक' उनका आधार व माध्यम बनते हैं। अंग्रेजी दासता का प्रतिकार लोक जीवन व लोक शैली से बेहतर और क्या हो सकता था? अंधेर नगरी में भारतेन्दु जी ने लोक को आधार बनाकर के औपनिवेशिक सत्ता से प्रतिरोध की नई रणनीति खोजी है। 'अंधेर नगरी सम्पूर्ण लूट-खसोट व दिशाही राष्ट्र का प्रतीक बन गया। अंधेर नगरी आज मुहावरा बन गया है, यह किसी रचनाकार की सामर्थ्य का ही संकेत समझना चाहिए। ऊपरले स्तर पर देखने पर इसकी कथावस्तु की कमियों की ओर लोगों ने ईशारा भी किया है। डॉ0 प्रहसन की कथावस्तु साधारण हें कहीं- कहीं उसमें ऐसे अंश आ गए हैं, जो देश की तत्कालीन अवस्था पर प्रकाश डालते है साथ ही उसमें अति नाटकीयता है और हास्य भी उच्च कोटि का नहीं है।" दरअसल अंधेर नगी की व्यंजकता को न समझ पाने के कारण ही आलोचकों ने इसे साधारण नाटक समझ लिया। जबकि अपनी साधारणता में हय महान व्यंजकता को अपने में समेटे हुए है। हमने पहले भी संकेत किया था कि भारतेन्दु के नाटक अपनी बनावट में प्रीतकात्मक स्वरूप ग्रहण किए हुए हैं, अतः उनकी मूल संरचना को समझने में इस तथ्य को भी हमें ध्यान रखना होगा। 'अंधेर नगरी' का बाजार दृश्य क्या सामान्य अर्थ रखता है? प्रेमचन्द्र ने भी बाजार को चित्रित किया है (देखें, ‘ईदगाह ' कहानी), भवानी प्रसाद मिश्र ने 'गीतफ़रोश' में बाजार को चित्रित किया है तथा हबीब तनवीर ने ‘आगरा बाजार” नामक नाटक में बाजार को केंन्द्र में खड़ा किया है। प्रेमचन्द्र, भवानीप्रसाद मिश्र तथा हबीब तनवीर का बाजार चित्रण भारतेन्दु से प्रभावित है।