अंधेर नगरी : पाठ एवं मूल्यांकन
अंधेर नगरी : पाठ एवं मूल्यांकन प्रस्तावना
'अंधेर नगरी' भारतेन्दु
हरिचन्द्र का न केवल प्रसिद्ध नाटक (प्रहसन) है। बल्कि भारतीय नाट्य परम्परा में
भी वह अपना विशिष्ट स्थान रखता है। 'लोक'
का सृजनात्मक
प्रयोग कैसे किया जा सकता है? इसकी व्यंजना अंधेर नगरी के माध्यम से हमें प्राप्त होती
है। सामान्य कथानक से लगने वाले अंधेर नगरी की व्यंजना पूरे राष्ट्र तक कैसे
प्रसरित हो जाती है । यह इस नाटक के माध्यम से हमें देखने को मिलती है। चूरन, पाचक, सब्जीवाला
इत्यादि के माध्यम से वर्गीय चरित्रों को निर्तित कर भारतेन्दु ने अपने कथ्य को
सामाजिक विस्तार दे दिया है। बाजार का दृश्य सायास रखा गया है, जो नाटक को
सामाजिक आधार प्रदान करता तीसरी विशेषता यह है कि इसके पात्र प्रतीकात्मक अर्थ
पैदा करने में सक्षम हो गये हैं। चौपट्ट इस नाटक की राजा, अंधेर नगरी, बाजार, नारायणदास, गोवर्धनदास, महन्त व अन्य
पात्र अपना प्रतीकात्क अर्थ भी रखते हैं। नाटक के पात्र विस्तार को संकेतरूप में
ही रखा गया है, लेकिन उसके
बावजूद पात्र अपनी व्यंजना करने में सफल हुए हैं। नाटक की एक अन्य विशेषता इसका
संकेतात्मक स्वरूप है। ज्यादा कहने की अपेक्षा संकेतो में अपनी बात नाटककार ने
कहीं है।
अंधेर नगरी: मूल पाठ
अंधेर नगरी
चौपट्ट राजा
टके सेर भाजी टके सेर खाजा
(वाह्य प्रान्त)
प्रथम दृश्य
(महन्त जी दो चेलों के साथ गाते हुए आते हैं)
सब- राम भजो राम भजो राम भजो भाई
राम के भजे से गतििाक तर गई,
राम के भजे से गति गात पाई।
राम के भजे से काम बनै सब,
राम के भजन बिनु सबहि नसाई ।।
राम के नाम से दोनो नयन बिनु
सूरदास भये कविकुल राई
राम के नाम से घास जंगल की,
तुलसीदास भये भाज रघुराई।।
महन्त- बच्चा नारायणदा! यह नगर तो दूर से बड़ा सुन्दर दिखालाई पड़ता है! देख, कुछ भिच्छा-उच्छा मिले तो ठाकुर जी का भोग लगे। ना)दा0-और क्या! गुररूजो महाराज। नगर तो नारायण के आसरे से बहुत ही सुन्दर है जो है सो, पर भिक्षा सुन्दर मिलै तो बड़ा आनन्द हो ।
महन्त- बच्चा
गोबरधनदास! तू पश्चिम की ओर से जा और नारायणदास पूरब की ओर से जाएगा। देख, जो कुछ सोधा
सामग्री मिले तो श्री शालग्राम जी का बाल भोग सिद्ध हो। गोदा- गुरूजी! मैं बहुत सी
भिक्षा लाता हूँ। यहाँ लोग तो बड़े मालदार दिखलाई पड़ते हैं। आप
महन्त -
बच्चा बहुत लोभ मत करणा। देखना, हाँ-
लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान ।
लोभ कभी नहीं कीजिए, यामैं नरक निदान ।।
(गाते हुए सब जाते
हैं)
दूसरा दृश्य
(बजार)
कवाब वाल-
बवाब गरमागरम मसालेदार चौरासी मसाला बहत्तर आंच का कावाब गरमागरम मसालेदार खाय सो होंट चाऔ, न खाय सो जीभ काटै। कवाब लो, कवाब का ढेर- बेचा टके सेर |
घासीराम-
चने जोर गरम-
चने बनावै घासीराम। निज की झोली में दुकान
चना चुरमुर-चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुँह खोलै।।
चना खावै तौकी मैना। बोले अच्छा बना चबैना।।
चना खायें गफूरन मुत्रा। बोलै और नहीं कुछ सत्रा।।
चना चबाते सब बंगाली। जिनकी धोती ढीली ढाली।।
चना खाते मियां जुलाहे । डाढी हलती गाह बगाहै।।
चना हाकिम सब जो खाते । सब पर दूना टिकस लगाते ।।
चने णोर
गरम टके सेर
नारंगीवाली-
नरंगी ले नरंगी- सिलहट की नरंगी, बुटवल की नरंगी, रामबाग की नरंगी, आनन्दबाग की नरंगी । भई नीबू से नरंगी । मैं तो पिया के रंग
न रंगी। मैं तो झूली लेकर संगी। नरंगी ले नरंगी। कंवला नीबू, मीठा नीबू, रंगतरा, संगतरा। दोनों
हाथों लो नहीं पीछे हाथ ही मल रहोगे। नरंगी ले नरंगी। टके सेर नरंगी
हलवाई -
जलेबियाँ
गरमागरम । ले सेव इमरती लड्डू गुलाबजामुन, खुरमा, बुदिया, बर्फी, समोसा, पेडा, कचौड़ी, दालमोठ, पकौडी, घेवर, गुपचुप । हलुवा गरम चमाका। घी में गरम चीनी में तरातर चासनी
में चमाचम ले मूरे का लड्डू। जो खाय सो भी पछताय जो न खाय सो भी पछताय । रेवड़ी
कड़ाका । पापड़ कड़ाका । ऐसी जात हलवाई जिसके छत्तिस कौम है भाई जैसे कलकत्ते के
विल्सन, मन्दिर के भिररिए, वैसे अंधेर नगरी
के हम सब सामान ताजा । खाजा ले खाजा । टके सेर
कुजड़िन-
ले
धनिया, मेथी, सोआ, पालक, चौराई, बथुआ, करेमू, नोनियाँ, कुलफा, कसारी, चना, सरसों का साग।
मरसा ले मरसा । ले बैगन लौकी, कोहड़ा, आलू,
अरूई, आँसूरन राम तरोई
मुरई ले आदी मिरचा लहसुन पियाज टिकोरा ले फालसा खिरनी आम अमरूद निबुआ मटर होरहा ।
जेसे काजी वैसे पाजी। रैयत राजी टके सेर भाजी | ले हिन्दुस्तान का मेवा फूट और वैर ।
मुगल-
बादाम पिस्ते अखरोट अनार बिहीदाना मुनक्का किशमिश अंजीर आबजोश आलूबुखारा चिलगोजा सेब नाशपती बिही सरदा अंगूर का पिटारी आमारा ऐसा मुल्क जिसमें अंगरेज का भी दाँत कट्टा हो गया। नाहक को रूपया खराब किया। हिन्दोस्तान का आदमी लक- लक हमारे यहाँ आदमी बुबंक- बुबंक लो सब भैवा टके सेर ।
पाचकवाला-
चूरन अमल बेद का भारी। जिसकी खाते कृष्ण मुरारी ।।
मेरा पाचक है पचनोला। जिसकी खाता श्याम सलोना ।।
चूरन बना मसालेदार | जिसमें खट्टे की बहार ||
मेरा चूरन जो कोई खाये। मुझ को छोड़ कहीं नहीं जाए।
हिन्दू चूरन इसका नाम विलायत पूरन इसका काम |
चूरन जब से हिन्द में आया। इसका धन बल सभी घटाया।।
चूरन ऐसा हट्टा कट्टा | कीना दाँत सभी का खट्टा चूरन चला दाल की मण्डी ।
इसकी खायेंगी सब रंडी ।। चूरन अमले सब जो खावै। दूनी ख्शवत तुरंत पचावै।।
चूरन नाटक वाले खाते। इनकी नकल पचा कर लाते।।
चूरन सभी महाजन खाते। जिससे जमा हजम कर जाते ।।
चूरन खाते लाला लोग। जिनकी अकिल अकिल अजीरन रोग ।।
चूरन खावै एडिटर जात। जिनके पेट पचै नहिं बात।।
चूरन पुलिस वाले खाते। सब कानून हजम कर जाते।।
ले चूरन का ढेर, बेचा टके सेर ।।
मछलीवाली-
मछरी ले मछरी ।
मछरिया एक के कै बिकाय ।
लाख टका के वाला जोबन, गाहक सब ललचाय ।
नैन मछरिया रूप जाल में, देखतहि फैसि जाय।
बिनु पानी मछरी सो बिरहिया, मिले बिना अकुलाय।
जातवाला (ब्राह्मण)
जात ले जात, टके सेर जात। एक टका दो, हम अभी अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्ते ब्राह्मण से धोबी
हो जाएं और धोबी को ब्राह्मण कर दें। टके के वास्ते जैसी कहो वैसी व्यवस्था दें। टके
के वास्ते झूठ को सच करें। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते
हिन्दू से क्रिस्तान । टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचें, टके के वास्ते
झूठी गवाही दें। टके के वास्ते पाप को पुण्य मानैं, टके के वास्ते नीच को भी पितामह बनावैं। वेद
धर्म कुल मरजादा सचाई बड़ाई सब टके सेर लुटाय दिया अनमोल माल ले टके सेर ।
बनिया- आटा दाल
लकड़ी नमक घी चीनी मसाला चावल ले टके सेर |
(बाबा जी का चेला गोबरधन आता है। और सब बेचने वालों की आवाज सुन-सुनकरखाने के आनन्द में बड़ा प्रसन्न होता है।) गोदा- क्यों भाई बण्ये, आटा कितणें सेर?
बनियां टके सेर ।
गोदा)- औ चावल?
बनियां- टके सेर |
गो० दा०-
और चीनी ?
बनियां- टके सेर |
गो०दा) और घी?
बनियां- टके सेर ।
गोदा)-सब टके सेर सचमुच ।
बनियां- हाँ महाराज, क्या झूठ बोलूँगा।
गोदा)-कुँजड़िन के पास जाकर) क्यों भाई भाजी क्या भाव ? कुँजड़िन’- बाबा जी, टके सेर | निबुआ मुरई धनिया मिरचा साग सब टके सेर ।
गोदा)-सब भाजी टके सेर वाह! वाह । बड़ा आनन्द है। यहाँ सभी चीज टके सेर । (हलवाई के पास जाकर क्यों भाई हलवाई ? मिठाई कितने सेर?
हलवाई- बाबा जी! लडुआ हलुआ जलेबी गुलाब जामुन खाजा टके सेर
गो0दा0-वाह!वाह! बड़ा आनन्द है? क्यों बच्चा, मुझसे मसखरी तो नहीं करता? सचमुच सब टके सेर ?
हलवाई-हाँ बाबा जी, सचमुच सब टके सेर । इस नगरी की चाल ही यही है। यहाँ सब चीज टके सेर बिकती है।
गोदा)-क्यों बच्चा। इस नगरी का नाम क्या है?
हलवाई - अन्धेर नगरी।
गोदा)- राजा का क्या नाम है?
हलवाई चौपट्ट राजा?
गोदा)-वाह! वाह! अन्धेर नगरी चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी टका सेर खाजा (यही गाता है और आनन्द से बगल बजाता है)
हलवाई- तो बाबा जी, कुछ लेना देना हो तो लो दो।
गो)दा)-बच्चा, भिक्षा माँग कर सात पैसे लाया हूँ, साढे तीन सेर मिठाई दे दे, गुरू चेले सब आनन्दपूर्वक इतने में छक जायेंगे।
(हलवाई मिठाई तोलता है बाबा जी मिठाई लेकर खाते जाते हैं।) (पटाक्षेप)
तीसरा दृश्य (स्थान जगल)
(महन्त जी और
नारायणदास एक ओर से राम भजो इत्यादि गाीत गाते हुये आते हैं और एक ओर से गोवरधनदास
अन्धेर नगरी गाते हुए आते हैं)
महन्त- बच्चा गोबरधनदास ! कह क्या भिक्षा लाया। गठरी तो भारा मालूम पड़ती है।
गो)दा)-बाबा जी महाराज! बड़े माल लाया हूँ, साढे तीन सेर मिठाई है। महन्त- देखूं बच्चा! बड़े (मिठाई की झोली अपने सामने रखकर खोल कर देखता है) वाह !
वाह! बच्चा! इतनी मिठाई कहाँ से लया ? किन धर्मात्मा से भेंट हुई?
गोदा - गुरूजी जो महाराज ! सात पैसे भाव में मिल थे, उससे इतनी मिठाई मोल ली है।
महन्त- बच्चा नारायण दास ने मुझसे कहा था कि यहाँ सब चीज टके सेर मिलती है, तो मैंने इसकी बात का विश्वास नहीं किया। बच्चा यह कौन सी नगरी है? और इसका कौन सा राजा है जहाँ टके सेर भाजी और टके सेर खाजा है।
गोदा)- अन्धेर नगरी चौपट्ट राजा, टके सेर खाजा टके सेर खाजा ।
महन्त - तो बच्चा ! ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है, जहाँ टके सेर भाजी और टके से ही सेर खाजा हो।
सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपा ।
ऐसे देश कुदेश में, कबहुँ न कीजै बान।।
कोकिल वायस एक सम, पण्डित मूरख एक
इन्द्रामन दाड़िम विषम, जहाँ न नकु विवेकु ।
बसिये ऐसे देश नहिं, कनक बृष्टि जो हो ।
रहिए तो दुख
पाइये, प्रान दीजिये
रोय।।
सो बच्चा चलो यहाँ से। ऐसी अन्धेर नगरी में हजार मन मिठाई मुफ्त की मिलै तो किस काम की। यहाँ एक छन नहीं रहना ।
गोदा)- गुरु जी तो संसार भर में कोई देश ही नहीं है। दो पैसा पास रहने ही में मजे मै पेट भरता है। मैं तो इस नगर को छोड़ कर नहीं जाऊँगा। और जगह दिन भर मांगो तो भी पेट नहीं भरता ।वरन बाजे बाजे दिन उपास करना पड़ता है। सौ मे तो यहाँ रहूँगा।
महन्त देख बच्चा, पीछे पछतायेगा ।
गो0दा0-आपकी कृपा से कोई
दुख न होगा, मे तो यही कहता
हूँ कि आप भी यहीं रहिये ।
महन्त - मैं तो इस नगर में अब एक क्षण भी नहीं रहूँगा। देख मेरी बात मान नहीं पीछे पछताएगा। मैं तो जाता हूँ, पर इतना कहे जाता हूँ कि कभी संकट पड़े तो हमारा स्मरण करना।
गो0दा0-प्रणाम गुरू जी, मैं आप का नित्य ही स्मरण करूँगा। मैं तो फिर भी कहता हूँ कि आप (महन्त जी नारायण दास के साथ जाते हैं, गोबर्धनदास बैठकर मिठाई खाता है)
(पटाक्षेप) चौथा
दृश्य
(राज सभा)
(राजा - मन्त्री और नौकर लोग यथास्थान स्थित है)
एक सेवक (चिल्ला कर ) पान खाइए महाराज ।
राजा - (पीनक से चौंक के घबड़ाकर उठता है) क्या कहा। सुपनखा आईए महाराज। (भागता है)
मन्त्री- (राजा का हाथ पकड़कर) नहीं नहीं, यह कहता है कि पान खाइए महाराज ।
राजा दृष्ट लुच्चा पाजी! नाहक हमको डरा दिया। मन्त्री इसको सौ कोड़े लगें।
मन्त्री- महाराज ! इसका क्या दोष है। न तमोली पान लगाकर देता, न यह पुकारता ।
राजा- अच्छा, तमोली को दो सौ कोड़े लगें।
मन्त्री- पर महाराज, आप पान खाइए सुनकर थोड़े ही डरे हैं। आप तो सूपनखा के नाम से डरे हैं. सुपनखा की सजा हो ।
राजा - ( घबड़ाकर) फिर वही नाम। मन्त्री बड़े खराब आदमी हो। हम रानी से कह देगे कि मन्त्री बेर-बेर तुको सौत बुलाने चाहता है। नौकर ! नौकर ! शराब।
नौकर- (एक सुराह में से एक गिलास में शराब उझल कर देता है) लीजिए महाराज | पीजिए महाराज।
राजा (मुँह बनाकर पीता है) और दे।
(नेपथ्य में - दुहाई है दुहाई का शब्द होता है।)
कौन चिल्लाता है- पकड़ लाओ।
फरयादी -
(दो नौकर एक फर्यादी को पकड़ लाते हैं।)
दोहाई हो महाराज दोहाई है। हमारा न्याय होय ।
राजा - चुप रहो। तुम्हारा न्याय यहाँ ऐसा होगा कि जैसा जम के यहाँ भी न होगा। बोलो क्या हुआ।
फ0- महाराज कल्लू बनिया को दीवार गिर पड़ी सो मेरी बकरी उकसे नीचे दब गई। दोहाई है महाराज न्याय हो।
राजा - (नौकर से) कल्लू बनिया को, दीवार को अभी पकड़ लाओ। मन्त्री महाराज, दीवार नहीं लाई जा सकती।
राजा-
अच्छा, उसका भाई, लड़का, दोस्त, आशना जो हो उसको पकड़ लाओ।
मन्त्री- महाराज
! दीवार ईंट चूने का होता है, उसको भाई बेटा नहीं होता। अच्छा कल्लू बनिये को पकड़ लाओ।
राजा-
(नौकर लोग दौड़कर बाहर से बनिये को पकड़ लाते हैं) क्यों बे बनिये! इसकी लरकी, नहीं बरकी क्यों दबकर गर गई।
मन्त्री- बरकी नहीं महाराज बकरी ।
राजा- हां, हां, बाकरी क्यों मर गई बोल, नहीं अभी फाँसी देता हूँ।
कल्लू- महाराज! मेरा कुछ दोष नहीं। कारीगर ने ऐसी दीवार बनाया कि गिर पड़ी।
राजा- अच्छा कल्लू को छोड़ दो, कारीगर की पकड़ लाओ। (कल्लू जाता है। लोग कारीगर को पकड़ लाते हैं) क्यों बे कारीगर ! इसकी बकरी किस तरह मर गई। कारीगर महाराज मेरा कुछ कसूर नहीं चूने वाले ने ऐसा वोदा बनाया कि दीवार गिर पड़ी।
राजा-
अच्छा इस कारीगर को बुलाओ, नहीं नहीं निकालो, उकस चूने वाले को बुलाओ।
(कारीगर निकल जाता है, चूने वाला पकड़कर लाया जाता है) क्यों बे खैर सुपाड़ी चूने वाले ।
इसकी बकरी कैसे मर गई ।
चूने वाला- महाराज! मेरा कुछ दोष नहीं, भिश्ती ने चूने ने पानी ढेर दे दिया, इसी से चूना कमजोर हो गया होगा।
राजा- अच्दा चुन्नीलाल को निकालो, भिश्तो को पकड़ो। (चूने वाला निकल जाता है, भिश्ती लाया जाता है) क्यों बे भिश्ती ! गंगा-जमुना की किश्ती! इतना पानी क्यों दिया कि इसकी बकरी गिर पड़ी और दीवार दब गई।
भिश्ती- महाराज गुलाम का कोई कसूर सनहीं, कस्साई ने मसक इतनी बड़ी बना दिया कि उसमें पानी जादे आ गया।
राजा- अच्दा कस्साई को लाओ, भिश्ती निकालो। (लोग भिश्ती को निकालते हैं और कसाई को लाते हैं) क्यों बे कस्साई, मशक ऐसी क्यों बनाई कि दिवार लगाई बकरी दबाई | कस्साई - महाराज ! गड़रिया ने टके पर ऐसी बड़ी भेंड़ मेरे हाथ बेची कि उसकी मशक बड़ी बन गई।
राजा- अच्छा कस्साई को निकालो, गड़ेरिये को लाओ। (कस्साई निकल जाता है। गड़ेरिया आता है) ऐसी बड़ी भेड़ क्यों बेचा कि बकरी मर गई ।
गड़ेरिया - महाराज उधर से कोतवाल साहब की सवारी आई, सो उकसे देखने में मैंने छोटी भेड़ का ख्याल नहीं किया, मेरा कुछ कसूर नहीं।
राजा- अच्छा इसको निकालो, कोतवाल को अभी सरबमुहर पकड़ लाओ।
(गड़ेरिया निकाला
जाता है, कोतवाल पकड़ा
जाता है) क्यों बे कोतवाल । तैनें सवारी ऐसी धूम से क्यों निकाली कि गड़ेरिया ने
घबड़ाकर बड़ी भेड़ बेचा, जिससे बकरी गिर
कर कल्लू बनियाँ दब गया।
कोतवाल- महाराज, महाराज! मैंने तो कोई कसूर नहीं किया मैं तो शहर के वास्ते जाता था।
मन्त्री- (आप ही आप यह तो बड़ा गजब हुआ, ऐसा न हो कि बेककूफ इस बात पर सारे नगर को फूँक दे या फांसी दे। (कोतवाल से) यह नहीं, तुम ने ऐसे धूम से सवारी क्यों निकाली।
राजा- हां हां नहीं; तुमने ऐसे धूम से सवारी क्यों निकाली कि उसकी बकरी दबी।
कोतवाल- महाराज महाराज-
राजा- कुछ नहीं, महाराजा ! महाराज ले जाओ, कोतवाल को अभी फाँसी दो । दरबार बरखास्त |
(लोक एक तरफ से
कोतवाल को पकड़ कर ले जाते हैं, दूसरी ओर से मन्त्री को पकड़ कर राजा जाते हैं।)
(पटाक्षेप)
पाँचवा दृश्य
(आराण्य)
(गोवर्धनदास गाते हुए जाते हैं)
अन्धेर नगरी अनबूझ राजा। टके सेर भाजी टका सेर खाजा ।।
नीचे-ऊँचे सब एकहि ऐसे। जैसे भडुएँ पंडित तैसे।।
कुल मरजाद न मान बड़ाई । सबै एक से लोग लुगाई ||
जात पात पूछै नहिं को हरि की भजे सो हरि को होई ।।
वेश्या जो एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना ।।
सांचे मारे मारे डोलै । छली दुष्ट सिर चढ़ि - चढ़ि ।।
प्रगट सभ्य अन्तर छलकारी। सोई राज सभा बलभारी॥
सांच कहे ते पनहीं खावै। झूठे बहुविधि पदवी पावै।
छलिमान एक के आगे| लाख कहो नहिं लागे ।।
भीतर कोई मलिन की कारो। चहिये बाहर रंग चटकारी ॥
धर्म अधर्म एक दरगाई। राजा करे सो न्याव सदाई ।।
भीतर स्वाहा बाहर सादे । राजा करहिं अमल अरूप्यादे
अन्धाधुन्ध मच्या सब देसा । मानहु राजा रहत विदेशा ||
गो द्विज श्रुति आद नहिं होई। मानहु नृपत्ति विधर्मी कोई।।
ऊँचे नीच सब एकहि सारा। मानहुं ब्रह्म ज्ञान विस्तारा।।
अंधेर नगरी
अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा । (बैठकर मिठाई खाता है)
गुरु ने हमको
नाहक यहाँ को मना किया था। माना कि देस बहुत बुरा है। पर अपना क्या। अपने किसी राज
काज में थोड़े हैं कि कुछ डर है, रोज मिठाई चाभना, मजे में आनन्द से राम भजन करना।
(मिठाई खाता है)
(चार प्यादे चार
ओर से आकर उसको पकड़ लेते हैं)
1 प्या)- चल बे चल, बहुत खा कर मुटाया है। आज पूरी हो गई ।
2 प्या0- बाबा जी चलिए, नमोनारायन कीजिये ।
गो)दा0- (घबड़ा कर) है! यह आफत कहाँ से आई। अरे भई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो मुझको पकड़ते हो।
1 प्या0- आप ने बिगाड़ा है या बनाया है, इस से क्या मतलब अब चलिये मुझे फाँसी चढ़िए। गो)दा0-फाँसी । अरे बाप रे बाप फांसी !! मैंने किसकी जमा लूटी है, कि मुझको फांसी ! मैंने किसके प्राण मारे कि मुझको फांसी !
2 प्या0- आप बड़े मोटे हैं, इस वास्ते फाँसी होती है।
गोदा-मोटे होने
से फांसी । यह कहाँ का न्याय है। अरे, हंसी फकीरों से नहीं करनी होती
1 प्या0- जब सूल चढ़ लीजिएगा तब मालूम होगा कि हंसी है कि रच। सीधी राह से चलते हो कि घसीट कर ले चलें।
गोदा)-अरे बाबा
क्यों बेकसूर का प्राण मारते हो। भगवान के यहाँ क्या जवाब दोगे?
1 प्या0- भगवान को जबाब राजा देगा। हम क्या मतलब। हम तो हुक्मी बन्दे हैं?
गोदा' - तब भी बाबा क्या
है कि हम फकीर आदमी को नाहक फाँसी देते हो?
1 प्या0- बात है कि कल कोतवाल को फांसी का हुकम हुआ था। जब फाँसी देने को उसे ले गेये; तो फाँसी का फन्दा बड़ा हुआ; क्योंकि कोतवाल साहब दुबले हैं। हम लोगों ने महाराज से अर्ज किया, इस पर हुक्म हुआ कि एम मोटा आदमी पकड़कर फाँसी दे दो, क्योंकि बकरी मारने के अपराध में किसी न किसी को सजा होनी जरूर है, नहीं तो न्याय न होगा। इसी वास्ते ले जाते हैं कि कोतवाल के बदले तुमको फाँसी दें।
गो)दा)-तो क्या और कोई मोटा आदमी इस नगर भर में नहीं मिलता जो मुझ अनाथ फकीर को फाँसी देते हैं।
1प्या0- इसमें दो बात है-
एक तो नगर भर में राजा के न्याय के डर से कोई मुटाता ही नहीं, दूसरे और किसी का
पकड़ा तो वह न जाने क्या बात बनावे कि हमी लोगों के सिर कीहं न घहराय और फिर इस
राज में साधू महात्मा इन्हीं लोगों के सिर कहीं न घहराय और फिर इस राज में साधू
महात्मा इन्हीं लोगों की दुर्दशा है, इससे तुम्ही को फांसी देंगे।
गोदा)-दुहाई परमेश्वर की, अरे मैं नाहक मारा जाता हूँ। अरे यहां बड़ा ही अन्धेर है, अरे गुरू जी महाराज कहा मैंने न माना उसका फल मुझ को भोगना पड़े। गुरू जी कहां हो! आओ, मेरे प्राण बचाओ, अरे मैं बेअपराध मारा जाता हूँ गुरू जी ! गुरू जी-
(गोवर्धनदास
चिल्लाता है, प्यादे लोग उसको
पकड़ कर ले जाते हैं) (पटाक्षेप)
छठा दृश्य
(स्थान- श्मशान)
(गोवर्धनदास को
पकड़े हुए चार सिपाहियों का प्रवेश)
गोदा)-हाय बाप
रे! मुझे बेकसूर ही फांसी देते हैं। अरे भाइयों, कुछ तो धरम विचारी ! अरे गरीब को फाँसी देकर
तुम लोगों को क्या लाभ होगा। अरे मुझे छोड़ दो। हाय! हाय! मुझ
(रोता है और
छुड़ाने का यतन करता है)
1 सिपाही - अबे
चुप रह- राजा का हुकुम कहीं टल सकता है। यह तेरा आखिरी दम है, राम का नाम -
काइदा क्यों शोर करता है। चुप रह-
गोदा - हाय!
मैंने गुरू जी का कहना न माना, उसी का यह फल है। गुरू जी ने कहा था कि ऐसे नगर में न रहना
चाहिये, हय मैंने न सुना!
अरे ! इस नगर का नाम ही अंधेरी नगरी और राजा का नाम चौपट्ट है, तब बचने की कौन
आशा है। अरे! इस नगर में ऐसा कोई धर्मात्मा नहीं है। जो इस फकीर को बचावै। जी!
कहाँ हैं। बचाओ - गुरू जी -
गुरू गुरु जी - ( रोता है, सिपाही लोग उसे घसीटते हुए ले चलते हैं )
(गुरू जी और नारायण दास आते हैं)
गुरू- अरे बच्चा गोवर्धनदास ! तेरी यह क्या दशा है।
गोदो)- (गुरू को हाथ जोड़कर) गुरू जी ! दीवार ने नीचे बकरी दब गई, सो इसके लिए मुझे फांसी देते हैं, गुरू जी बचाओ।
गुरू) - अरे बच्चा! मैंने तो पहिले ही कहा था कि ऐसे नगर में रहना ठीक नहीं, तैने मेरा कहना नहीं सुना।
गोदा)- मैंने
आपका कहा नहीं माना उसी का यह फल मिला। आपके सिवा अब ऐसा कोई नहीं है जो रक्षा
करे। मैं आप ही का हूँ आप के सिवा और कोई नहीं। (पैर पकड़कर रोता है)।
महन्त- कोई
चिन्ता नहीं, नारायण 'सब' समर्थ है। (भौंह
चढाकर सिपाहियों से) सुनो,
मुझको अपने शिष्य
को अन्तिम उपदेश देने दो,
तुम लोग तनिक
किनारे हो जाओ, देखा मेरा कहना न
मानोगे तो तुम्हार भला न होगा।
सिपाही- नहीं
महाराज हम लोग हट जाते हैं। आप बेशक उपदेश कीजिये। (सिपाही हट जाते हैं। गुरू जी
चेले के कान में समझाते हैं)
गोदा)- (प्रकट) तब तो गुरू जी हम अभी फाँसी चढ़ेंगे।
महन्त नहीं बच्चा मुझको चढ़ने दें। गोदा)- नहीं गुरू जी, हम फाँजी चढ़ेंगे।
महन्त- नहीं बच्चा हम इतना समझाया नहीं मानता, हम बूढ़े भए, हमको जाने दे।
गोदा-स्वर्ग जाने में बूढा जवान क्या । आप तो सिद्ध हो, आपको गति अगति से क्या मैं फांसी
(इसी प्रकार दोनो
हुज्जत करते हैं- सिपाही लोग परस्पर चकित होते हैं)
1 सिपाही-
भाई! यह क्या माजरा है, कुछ समझ नहीं पड़ता।
2 सिपाही-
हम भी नहीं समझ सकते कि यह केसा गबड़ा हैं।
(राजा, मन्त्री, कोतवाल आते हैं)
राजा- यह क्या गोलमाल है।
1 सिपाही- महाराज! चेला कहता है मैं फाँसी चढूँगा, गुरू कहता
ढूँगा, कुछ मालूम नहीं
पड़ता कि क्या बात है।
राजा - (गुरू से ) बाबा जी ! बोलो। काहे आप फाँसी चढ़ते हैं।
महन्त - राजा ! इस समय ऐसा साइत है कि जो मरेगा सो बैकुंठ जायगा ।
मंत्री- तब तो हमी फाँसी चढ़ेगें।
गो)दा)-हम हम। हमको तो हुकुम है।
हम लटकेंगे।
हमारे सबब तो दिवार गिरी।
कोलवाल-
राजा - चुप रहो, सब लोग। राजा के
होते और कौन बैकुण्ठ जा सकता है। हमको फाँसी चढाओ, जल्दी जल्दी |
महन्त - जहाँ न धर्म्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजान समाज ते ऐसहिं आपुहि नसे, जैसे चोपट राजा।। (राजा को लोग टिकटी पर खड़ा करते हैं) (पटाक्षेप)