हिन्दी नाट्य :स्वरूप एवं तत्व
हिन्दी नाट्य साहित्य प्रस्तावना
सूर और तुलसी का
भक्ति काल में जो स्थान है वही स्थान आधुनिक साहित्य में जयशंकर प्रसाद का है, प्रसाद जी ने
हिन्दी साहित्य को व्यापक दृष्टिकोण और नवीन विषय प्रदान किया। प्रसाद जी ने
द्विवेदी युगीन काव्यादर्श के विरूद्ध विद्रोह कर नवीन काव्य-धारा और गद्य विधाओं
का लेखन प्रारम्भ किया, समकालीन समस्याओं
के निराकरण के लिए प्रसाद ने प्राचीन भारतीय इतिहास का आश्रय लिया है। जयशंकर
प्रसाद कि गणना आधुनिक काल के सर्वश्रेष्ठ कवियों में की जाती है, प्रसाद मूलतः कवि
हैं परन्तु उन्होंने साहित्य की प्रत्येक विधा की रचना की है। कवि के पश्चात उनका
नाटककार स्वरूप सर्वाधिक चर्चित रहा है। भारतीय साहित्य के इतिहास में 'नाटक' को पूर्ण साहित्य
की गरिमा दी गयी है कहानी,
कविता, नाटक में स्वतः
ही समाहित हो जाते हैं। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में 'नाटक' की विस्तृत
व्याख्या की गयी है, इस इकाई में आपको
नाटक के स्वरूप, हिन्दी नाटक के
इतिहास की विस्तृत जानकारी दी जा रही है।
नाटक का स्वरूप
संस्कृत के
आचार्यों ने नाटक के स्वरूप पर विस्तार से विचार किया है। भरत मुनि के ‘नाट्यशास्त्र' में कहा गया है -
जिसमें स्वभाव से ही लोक का सुख-दुःख समन्वित होता है तथा अंगों आदि के द्वारा
अभिनय किया जाता है, उसी को नाटक कहते
हैं। अभिनव गुप्त ने लिखा है- नाटक वह दृश्य काव्य है जो प्रत्यक्ष कल्पना एवं
अध्यवसाय का विषय बन सत्य एवं असत्य से समन्वित विलक्षण रूप धारण करके सर्वसाधारण
को आनन्दोपलब्धि प्रदान करता है। महिम भट्ट के अनुसार- अनुभाव-विभावादि के वर्णन
से जब रसानुभूति होती है तो उसे काव्य कहते हैं और जब काव्य को गीतादि से रंजित
एवं अभिनेताओं द्वारा प्रदर्शित किया जाता है तो वह नाटक का स्वरूप धारण कर लेता
है। रामचन्द्र, गुणचन्द्र के
अनुसार जो प्रसिद्ध आद्य (पौराणिक एवं ऐतिहासिक) रामचरित पर आधारित हो, जो धर्म, काम एवं अर्थ का
फलदाता हो और जो अंक आय (पाँच अर्थ- प्रकृति) दशा (पंचावस्था) से समन्वित हो, उसे नाटक कहा
जाता है। भारतीय आचार्य रस- निष्पत्ति को उद्देश्य मानते हुए ही नाटक का स्वरूप
निर्धारित करते हैं, जबकि पाश्चात्य
आचार्यों ने 'कार्य' को महत्व देते
हुए, संघर्ष, संकलन त्रय, दुःखान्त, सुखान्त लक्षणों
को प्रमुखता दी है।
नाटक के तत्व
संस्कृत नाट्यशास्त्र में नाटक के तीन मूलभूत तत्व माने हैं- वस्तु, नेता और रस। और इन्हीं तीनों का विस्तृत निरूपण किया है। पाश्चात्य काव्य शास्त्र में नाटक के छः तत्व माने गए है। आज यही छः तत्व हिन्दी नाट्यकला के प्रमुख तत्वों के रूप में ग्रहण किए गए हैं- 1. कथावस्तु 2. पात्र या चरित्र-चित्रण 3. कथोपकथन या संवाद 4. देशकाल या वातावरण 5. भाषा शैली 6. उद्देश्य ।
वस्तु अथवा कथावस्तु-
नाटक की मूल कथा को ही वस्तु, कथानक या कथावस्तु आदि नामों से पुकारा जाता है। कथावस्तु
दो प्रकार की होती है- 1.
आधिकारिक अर्थात्
मुख्य 2. प्रासंगिक अथवा
प्रसंगवश आई हुई गौण कथाएं। यह मुख्य कथा के विकास और सौन्दर्यवर्द्धन में सहायक
होती है। आधार के भेद से कथावस्तु तीन प्रकार की होती है- 1. प्रख्यात, जिसका आधार
इतिहास, पुराण या
जनश्रुति होता है। 2. उत्पाद्य, जो नाटककार की
अपनी कल्पना होती है। 3. मिश्रित, जिसमें इतिहास और
कल्पना का मिश्रण होता है। नाटक को कथावस्तु में कार्य-व्यापार की दृष्टि से पाँच
अवस्थाएँ मानी गयी हैं- 1.
आरम्भ, 2. विकास, 3. चरमसीमा, 4. उतार, 5. अंत या समाप्ति।
भारतीय प्राचीन आचार्यों का वर्गीकरण भी इसी प्रकार का है, केवल नाम का भेद
है, जो इसी क्रम में
इसी प्रकार है, 1. आरम्भ, 2. प्रयत्न, 3 प्रत्याशा, 4. नियताप्ति, 5. फला कथानक की
पाँचों अवस्थाएं महत्त्वपूर्ण हैं। पाश्चात्य नाटक में संघर्ष को महत्व प्राप्त है, जबकि भारतीय नाटक
में नेता और उसके आदर्श को। भारतीय नाटको में भी संघर्ष देखा जा सकता है किन्तु
उसकी स्थिति सीधी और स्पष्ट होती है।
पात्र और चरित्र चित्रण -
सम्पूर्ण नाटक पात्र और उनकी गतिविधियों पर ही आधारित होता है। पात्र ही
कथानक को आगे बढ़ाता हुआ अन्त की ओर ले जाता है। वही कथा का संवाहक भी होता है।
पाश्चात्य नाट्य कला में भारतीय नाट्य कला की भांति नायक का कोई सुनिश्चित स्वरूप
नहीं है, वह साधारण और
असाधारण, किसी भी स्थिति
का हो सकता है। आधुनिक नाटको में पात्रों का चरित्र-चित्रण आर्दश से हटकर
यथार्थवादी पद्धति पर किया जा रहा है। पात्रों को व्यक्ति पात्र, प्रतिनिधि पात्र
इन दो भेदो में विभक्त किया जा सकता है। नाटक के नायकों के चार प्रकार मानें हैं-
धीरोदात्त, धीर - ललित, धीर-प्रशांत, और धीरोद्धत ।
नाटकों में भी चरित्र चित्रण उपन्यास की ही भांति होता है । परन्तु उपन्यासकार की
भांति नाटक का विश्लेषणात्मक या प्रत्यक्ष रूप से चरित्र चित्रण नहीं कर सकता, उसे परोक्ष या
अभिनयात्मक ढंग से काम लेना पड़ता है। कथावस्तु, होता है। घटनाओं और कथोपकथनों के द्वारा नाटकीय
पात्रों के चरित्र का उद्घाटन
कथोपकथन-
नाटक
संवादों के माध्यम से ही लिखा जाता है, पात्र का चरित्र चित्रण, कथा का विकास, रोचकता और वातावरण सृजन सभी संवादों से ही होता है। संवाद
अन्य विधाओं की अपेक्षा नाटक का अधिक प्राण तत्व होता है। संवाद की प्रसंग
परिस्थिति, पात्रानुरूपता
उसका मूल तत्व है। संवाद जिसके सार्थक, संक्षिप्त, वक्र और अन्तः शक्ति सम्पन्न होते हैं, नाटक उतना ही सफल
होता है। नाटक में संवादों की भाषा सरल, सरस और प्रभावपूर्ण होनी चाहिए।
देश काल वातावरण :
संकलनत्रय नाटक में देशकाल का निर्वाह आवश्यक है। युगीन सन्दर्भों को रूपायित करने के लिए नाटक में देशकाल के अनुरूप ही पात्र की वेषभूषा, परिस्थितियों, आचार-विचार आदि होने चाहिए। इसके सफल निर्वाह से पात्र सजीव प्रतीत होते हैं| कथा - युग के अनुरूप ही समाज राजनीति और परिस्थितियों का अंकन भी होना चाहिए। सफल नाटककार दृश्य विधान, मंच व्यवस्था, वेशभूषा और अभिनय आदि के द्वारा सजीव वातावरण की सृष्टि कर लेता है। प्राचीन ग्रीक आचार्यों ने देश तथा काल की समस्या पर विचार कर, ‘संकलन त्रय' का विधान किया है। इसके अनुसार स्थल, कार्य तथा काल की एकता पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। उनका मत है कि किसी नाटक में घटी घटना किसी एक ही कृत्य से, एक ही स्थान से सम्बन्धित हो और एक ही दिन में घटी हो। ऐसा करने से देश- काल और वातावरण का सुसंगत चित्रण करने में कोई बाधा नहीं आ पाती।
भाषा-शैली-
नाटक
एक दृश्य काव्य है। दर्शक संवादों के द्वारा ही कथ्य को ग्रहण करता है, अभिनय उसे हृदय
में उतार देता है, अतः भाषा सरल, स्पष्ट और सजीव
होने पर ही दर्शक और श्रोता को रसानुभूति कराने में समर्थ होती है। इसलिए नाटक में
शब्दों, वाक्यों और भाषा
का ऐसा प्रयोग होना चाहिए,
जो सहज ग्राहय
हो। नाटक के लिए भाषा-शैली की सरसता अनिवार्य है। भाषा-शैली विषयानुकूल, प्रसाद, ओज और माधुर्य
गुण युक्त होनी चाहिए, साथ ही
प्रभावपूर्ण भी होनी चाहिए।
उद्देश्य -
नाट्यशास्त्र में पुरूषार्थ-चतुष्ट्य धर्म, अर्थ, काम,
मोक्ष को नाटक का
उद्देश्य माना गया है। इसी के साथ रसानुभूति को भी नाटक का प्रयोजन माना गया है।
आज के नाटक जीवन का चित्रण करते हैं, अतः जीवन की समस्याओं की प्रस्तुति और उनकी व्याख्या तथा
समाधान नाटकों का उद्देश्य है। नाटककार इस उद्देश्य की सिद्धि पात्रों के संवाद, उनके कार्य-कलाप
और नाना घटनाओं द्वारा करता है। नाटक में नाटककार जीवन की व्याख्या परोक्ष रूप में
व्यंजित करता है। जितना ही उद्देश्य महान होगा, उतनी ही रचना श्रेष्ठ होगी। जो लेखक जितनी अधिक उदात्त
मानवीय संवेदना के रूप में अपना जीवनोद्देश्य प्रकट करता है, वह उतना ही महान
कलाकार बनता है।
अभिनेयता एवं रंगमंच-
भारतीय आचार्यों के अनुसार 'अभिनय' नाटक का प्रमुख अंग है। यह नाटक की अभिव्यक्ति का प्रधान
साधन है। भरत मुनि ने नाटक के चार प्रकार माने हैं- 1. आंगिक, 2. वाचिक, 3. आहार्य, 4. सात्विका नाटक की
सार्थकता उसके अभिनीत होने में ही है। यद्यपि कुछ नाटक केवल पढ़ने के लिए ही होते
हैं, जैसे अधिकांश
प्रसाद जी के नाटक प्राचीन काल में संस्कृत-नाटकों का अभिनय होता था, इसलिए रंगमंच की
सुचारू व्यवस्था थी। रंगमंच की लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई आदि की सीमाएँ निश्चित थी, परन्तु प्राचीन
हिन्दी नाटकों का अभाव होने से रंगमंच का कोई विकास नहीं हो पाया। आधुनिक काल में
आकर जब नाटकों की रचना आरम्भ हुई तो रंगमंच अत्यन्त निम्नकोटि का और अव्यवस्थित हो
गया था। भारतेन्दु उसमें कुछ सुधार किए, उसी समय से हिन्दी के रंगमंच का अस्तित्व आरम्भ होता है।
अतः अभिनय या रंगमंच नाटक का अनिवार्य तत्व है। नाटक की सफलता की महत्वपूर्ण कसौटी है। रंगमंच पर अभिनय के द्वारा प्रस्तुत होने पर ही नाटक की सार्थकता सिद्ध होती है, अतः नाटक अभिनय के योग्य होना चाहिए।