ध्रुवस्वामिनी नाटक प्रथम अंक
ध्रुवस्वामिनी नाटक परिचय
'ध्रुवस्वामिनी' जयशंकर प्रसाद का रंगमंचीय विद्यान की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ नाटक माना गया है। रंगमंचीय विधान की शर्तों का पालन करने के कारण ही इसका कई बार मंचन संभव हो सका है। इसमें नाटक में कुल मिलाकर तीन ही अंक हैं और दृश्य संख्या भी हर नाटक में सीमित है। दृश्य और अंक कम होने के कारण नाटकीय कसाव की दृष्टि से नाटक सफल रहा है। 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक अपने विद्यान में ऐतिहासिक है। इसमें कथानक का केन्द्र बिन्दु गुप्तकाल का साम्राज्य है। चन्द्रगुप्त, रामगुप्त व ध्रुवस्वामिनी जैसे ऐतिहासिक पत्रों के साथ ही जय शंकर प्रसाद ने कुछ काल्पनिक पत्रों की भी सृष्टि की है। देशकाल, परिवेश की शर्तों पर नाटक सफल रहा है क्योंकि इसने सम्पूर्ण इतिहास के एक प्रमुख अंश को अपने क्रूरता व वैभव के साथ हमारे सामने प्रस्तुत किया है।
ध्रुवस्वामिनी नाटक मूल पाठ
ध्रुवस्वामिनी नाटक प्रथम अंक
( शिविर का पिछला भाग, जिसके पीछे पर्वतमाला की प्राचीर है, शिविर का एक कोना दिखलाई दे रहा है। जिससे सटा हुआ चंद्रांतप टँगा है। मोटी-मोटी रेशमी डोरियों से सुनहले काम के परदे खम्भों में बँधे हैं। दो-तीन सुन्दर मन्च रक्खे हुए हैं। चन्द्रातप और पहाड़ी के बीच छोटा-सा कुञ्ज: पहाड़ी पर से एक पतली जलधारा उस हरियाली में बहती है। झरने के पास शिलाओं से चिपकी हुई लता की डालियाँ पवन में हिल रही हैं। दो-चार छोटे-बड़े वृक्ष, जिन पर फलों से लदी हुई सेवती की लता छोटा-सा झुरमुट बना रही है। शिविर के कोने से ध्रुवस्वामिनी का प्रवेश । पीछे- पीछे एक लम्बी और कुरूप स्त्री चुपचाप नंगी तलवार लिये आती)
ध्रुवस्वामिनी :( सामने पर्वत की ओर देख - कर) सीधा तना हुआ, अपने प्रभुत्वसाकार कठोरता, अभ्रभेदी उन्मुक्त शिखर ! और इन क्षुद्र कोमल निरीह लताओं और पौधों को इसके चरण में लोटना ही चाहिए न ! (साथवाली खड्गधारिणी की ओर देखकर) क्यों, मन्दाकिनी नहीं आई? (वह उत्तर नहीं देती है) बोलती क्यों नहीं? यह तो मैं जानती हूँ, कि इस राजकुल के अन्तःपुर में मेरे लिए न जाने कब से नीरव अपमान सञ्चित रहा जो मुझे आते ही मिला; किन्तु क्या तुम- जैसी दासियों से भी वही मिलेगा? इसी शैलमाला की तरह मौन रहने का अभिनय तुम न करो, बोलो! (वह दाँत निकालकर विनय प्रकट करती हुई कुछ और आगे बढ़ने का संकेत करती है) अरे, यह क्या मेरे भाग्य विधाता ! यह कैसा इन्द्रजाल उस दिन राजमहापुरोहित ने कुछ आहुतियों के बाद मुझे जो आशिर्वाद दिया था, क्या यह अभिशाप था? इस राजकीय अन्तःपुरमें सब जैसे एक रहस्य छिपाये हुये चलते बोलते हैं और मौन हो जाते है;
(खड्गधारिणी विवशता और भय का अभिनय करती हुई आगे बढ़ने का संकेत करती है) तो क्या तुम मूक तुम कुछ बोल न सको, मेरी बातों का उत्तर भी न दो, इसलिए तुम मेरी सेवा में नियुक्त की गयी हो ? वह असह्य है। इस राजकुल में एक भी सम्पूर्ण मनुष्यता का निदर्शन मिलेगा क्या? जिधर देखा कुबड़े, बौने, हिजड़े, गूँगे और बहरे ।
( चिढ़ती हुई ध्रुवस्वामिनी आगे बढ़कर झरने के किनारे बैठ जाती है, खड्गधारी भी इधर-उधर देखकर ध्रुवस्वामिनी के पैरों के समीप बैठती है)
खड्गधारिणी-: (सशंक चारों ओर देखती हुई) देवि, प्रत्येक स्थान और समय बोलने के योग्य नहीं होता, कभी-कभी मौन रह जाना बुरी बात नहीं है। मुझे अपनी दासी समझिए। अवरोध के भीतर मैं गूँगी हूँ। यहाँ संदिग्ध न रहने के लिये मुझे ऐसा ही करना पड़ता है।
ध्रुवस्वामिनी : अरे, तो क्या तुम बोलती भी हो? पर यह तो कहो, यह कपट- आचरण लिये?
खड्गधारिणी : एक पीड़ित की प्रार्थना सुनाने के लिए। कुमार चन्द्रगुप्त को आप भूल न गयी होंगी।
ध्रुवस्वामिनी - (उत्कण्ठा से) वही न, जो मुझे बन्दिनी बनाने के लिये गये थे।
खड्गधारिणी - (दाँतों से जीभ दबाकर) यह आप क्या कह रही है? उनको तो स्वयम् अपने भिषण भविष्य का पता नहीं। प्रत्येक क्षण उनके प्राणों पर सन्देह करता है। उन्होंने पूछा है कि मेरा क्या अपराध है।
ध्रुवस्वामिनी - (उदासी की मुस्कुराहट के साथ) अपराध ! मैं क्या बताऊ! तो क्या कुमार भी बन्दी है?
खड्गधारिणी- कुछ-कुछ वैसा ही है देवि! राजाधिराज से कहकर क्या आप उनका कुछ उपकार कर सकेंगी।
ध्रुवस्वामिनी - भला मैं क्या कर सकूँगी? मैं तो अपने ही प्राणों का मूल्य नहीं समझ पाती। मुझ पर राजा का कितना अनुग्रह है, यह भी मैं आज तक न जान सकीं, मैंने तो कभी उनका मधुर सम्भाषण सुना ही नहीं। विलासिनियों के साथ मदिरा में उन्मत्त, उन्हें अपने आनन्द से कहाँ! अवकाश
खड्गधारिणी - तब तो अदृष्ट ही कुमार के जीवन का सहायक होगा। उन्होंने पिता का दिया हुआ स्वत्व और राज्य का अधिकार तो छोड़ ही दिया; इसके साथ अपनी एक अमूल्य निधि भी। (कहते-कहते सहसा रूक जाती है) ध्रुवस्वामिनी-अपनी अमूल्य निधि ! वह क्या ?
खड्गधारिणी - वह अत्यन्त गुप्त है देवि, किन्तु मैं प्राणों की भीख माँगती हुई कह सकूँगी। ध्रुवस्वामिनी (कुछ सोचकर ) तो जाने दो, छिपी हुई बातों में घबरा उठी हूँ, हाँ, मैंने उन्हें देखा - था, वह निरभ्र प्राची का बाल अरूण आह! राज-चक्र सबको पीसता है, पिसने दो, हम निसहायों को और दुर्बलों को पिसने दो।
खड्गधारिणी - देवि, वह वल्लरी जो झरने के समीप पहाड़ी पर चढ़ गयी है, उसकी नन्हीं-नन्हीं पत्तियों को ध्यान से देखने पर आप समझ जायेंगी कि वह काई की जाति की है। प्राणों की क्षमता बढ़ा लेने पर वही काई जो बिछलन बन कर गिरा सकती थी, अब दूसरों के ऊपर चढ़ने का अवलम्ब बन गयी है।
ध्रुवस्वामिनी - ( आकाश की ओर देखकर) वह, बहुत दूर की बात है। आह, कितनी कठोरता है! मनुष्य के हृदय में देवता को हटाकर राक्षस कहाँ से घुस आता है? कुमार स्निग्ध, सरल, और सुन्दर मूर्ति को देखकर कोई भी प्रेम से पुलकित हो सकता है। किन्तु, उन्हीं का भाई? आश्चर्य? खड्गधारिणी - कुमार को इतने में ही सन्तोष होगा कि उन्हें कोई विश्वासपूर्वक स्मरण कर लेता है रही अभ्युदय की बात, सो तो उनको अपने और भाग्य पर विश्वास है।
ध्रुवस्वामिनी किन्तु उन्हें कोई ऐसा साहस का काम न करना चाहिये जिसमें उनकी परिस्थिति - और भी भयानक हो जाय ।
(खड्गधारिणी खड़ी हो जाती है)
- अच्छा, तो अब तू जा और अपने मौन संकेत से किसी दासी को यहाँ भेज दे। मैं अभी यहीं बैठना चाहती हूँ।
(खड्गधारिणी नमस्कार करके जाती है। और एक दासी का प्रवेश)
दासी - (हाथ जोड़कर) देवि, सांयकाल हो चला है। वनस्पतियाँ शिथिल होने लगी हैं। देखिये न व्योम-विहारी पक्षियों का झुण्ड भी अपनी नीड़ों में प्रसन्न कोलाहल से लौट रहा है। क्या भितर चलने की अभी इच्छा नहीं है?
ध्रुवस्वामिनी - चलूँगी क्यों नहीं? किन्तु मेरा नीड़ कहाँ? यह तो स्वर्ण-पिंजर है।
(करूण भाव से उठकर दासी के कन्धे पर हाथ रखकर चलने की उद्यत होती है। नेपथ्य में कोलाहल - 'महादेवी' कहाँ है, उन्हें कौन बुलाने गयी है?)
ध्रुवस्वामिनी - हैं हैं, यह उतावली कैसी?
प्रतिहारी- (प्रवेश करके घबराहट से) भट्टारक इधर आएं हैं क्या?
ध्रुवस्वामिनी - (व्यंग से मुस्कराती हुई) मेरे अंचल में तो छिपे नहीं है। देखो किसी कुंज में ढूँढो ।
प्रतिहारी- (सम्भ्रम से ) अरे महादेवि, क्षमा कीजिए । युद्ध-सम्बन्धी एक आवश्यक संवाद देने के लिए महाराज को खोजती हुई मैं इधर आ गयी हूँ ।
ध्रुवस्वामिनी - होंगे कहीं, यहां तो नहीं हैं।
( उदास भाव से दासी के साथ ध्रुवस्वामिनी का प्रस्थान | दूसरी ओर से खड्गधारिणी का पुनः प्रवेश और कुंज में से अपना उत्तरीय सँभालता हुआ रामगुप्त निकल कर एक बार प्रतिहारी की ओर फिर खड्गधारिणी की ओर देखता है)
प्रतिहारी - जय हो देव! एक चिन्ताजनक समाचार निवेदन करने के लिए अमात्य ने मुझे भेजा है। रामगुप्त - ( झुंझला कर) चिन्ता करते-करते देखता हूँ कि मुझे मर जाना पड़ेगा ! ठहरो (खड्गधारिणी से) हाँ जी, तुमने अपना काम तो अच्छा किया, किन्तु मैं समझ न सका कि चन्द्रगुप्त को वह अब भी प्यार करती है या नहीं?
(खड्गधारिणी प्रतिहारी की ओर देखकर चुप रह जाती है) रामगुप्त - (प्रतिहारी की ओर क्रोध देखता हुआ) तुमने मैंने कह न दिया कि अभी मुझे अवकाश नहीं, ठहर कर आना।
प्रतिहारी- राजाधिराज ! शकों ने किसी पहाड़ी राह से उतर कर नीचे का गिरि-पथ रोक लिया है।
हम लोगों के शिविर का सम्बन्ध राज-पथ से छूट गया है। शंकों ने दोनों ही ओर से घेर लिया है।
रामगुप्त - दोनों ओर से घिरा रहने में शिविर और भी सुरक्षित है। मूर्ख ! चुप रह (खड्गधारिणी से) ध्रुवदेवी, क्या मन-ही-मन चन्द्रगुप्त को है न मेरा सन्देह ठीक ?
प्रतिहारी (हाथ जोड़कर) अपराध क्षमा हो देव! अमात्य, युद्ध-परिषद् आपकी प्रतिक्षा कर रहे है।
रामगुप्त (हृदय पर हाथ रखकर) युद्ध तो यहाँ भी चल रहा है, देखता नहीं जगत् की सुन्दरी मुझसे सन्देह नहीं करती और मैं हूँ इस देश का राजाधिराज !
प्रतिहारी- महाराज, शकराज का सन्देश लेकर एक दूत भी आया है। रामगुप्त - आह ! किन्तु ध्रुवदेवी! उसके मन में टीस है (कुछ सोचकर ) जो दूसरों के शासन में रहकर और प्रेम किसी अन्य पुरूष से करती है; उसमें एक गम्भीर और व्यापक रस उद्वेलित रहता होगा। वही तो नहीं, जो चन्द्रगुप्त से प्रेम करेगी वह न जाने कब चोट कर बैठे ? भीतर-भीतर न जाने कितने कुचक्र घूमने लगेंगे। (खड्गधारिणी से) सुना न, ध्रुव देवी से कह देना चाहिये किवह मुझे और मुझसे ही प्यार करे। केवल महादेवी बन जाना ठीक नहीं। (खड्गधारिणी का प्रतिहारी के साथ प्रस्थान और शिखरस्वामी का प्रवेश)
शिखरस्वामी - कुछ आवश्यक बातें करनी हैं देव !
रामगुप्त ( चिन्ता से उँगली दिखाते। - हुए, , जैसे अपने आप बातें कर रहा हो ) ध्रुवदेवी को लेकर क्या साम्राज्य से भी हाथ धोना पड़ेगा! न्हीं तो फिर ? (कुछ सोचने लगता है) ठीक तो, सहसा मेरे राजदण्ड ग्रहण कर लेने से पुरोहित, अमात्य और सेनापति लोग छिपा हुआ विद्रोह भाव रखते (शिखर से है न? केवल एक तुम्हीं मेरे विश्वासपात्र हो । समझा न ? यही गिरि-पथ सब झगड़ों का अन्तिम निर्णय करेगा। क्यों अमात्य, जिसकी भुजाओं में बल न हो, उसके मस्तिष्क में तो कुछ होना चाहिये?
शिखरस्वामी - (एक पत्र देकर) पहले इसे पढ़ लीजिये। (रामगुप्त पत्र पढ़ते जैसे आश्चर्य से चौंक उठता है) चौंकिए मत, यह घटना इतनी आकस्मिक है कि कुछ सोचने का अवसर नहीं मिलता। रामगुप्त (ठहर कर ) है तो ऐसा ही; किन्तु एक बार ही मेरे प्रतिकूल भी नहीं मुझे उसकी सम्भावना पहले से ही थी ।
शिखरस्वामी - (आश्चर्य से) ऐं? तब तो महाराज ने अवश्य ही कुछ सोच लिया होगा। मेघसंकुल आकाश की तरह जिसका भविष्य घिरा हो, उसकी बुद्धि को तो बिजली के समान चमकना ही चाहिये।
रामगुप्त - (सशंक) कह दूँ! सोचा तो है मैंने; परन्तु क्या तुम उसका समर्थन करोगे?
शिखरस्वामी - यदि नीति-युक्त हुआ तो अवश्य समर्थन करूँगा। सबके विरूद्ध रहने पर भी स्वर्गीय आर्य समुन्द्रगुप्त की आज्ञा के प्रतिकूल मैंने ही आपका समर्थन किया था। नीति- सिद्धान्त के आधार पर ज्येष्ठ राजपुत्र को।
रामगुप्त - (बात काट कर वह तो वह तो मैं जानता हूँ, किन्तु इस समय जो प्रश्न सामने आ गया है, उस पर विचार करना चाहियें यह तुम जानते हो कि मेरी इस विजय यात्रा का कोई गुप्त उद्देश्य है। उसकी सफलता भी सामने दिखाई पड़ रही है। हाँ, थोड़ा-सा साहस चाहिये ।
शिखरस्वामी वह क्या? -
रामगुप्त शक दूत के लिए जो प्रमाण चाहता हो, उसे अस्वीकार न करना चाहिये। ऐसा करने में - इस संकट के बहाने जितना विरोधी प्रकृति है उस सब को हम लोग सहज में ही हटा सकेंगे।
शिखरस्वामी - भविष्य के लिये यह चाहे अच्छा हो; किन्तु इस समय तो हम लोगों को बहुत-से विधों का सामना करना पड़ेगा।
रामगुप्त (हँसकर ) तब तुम्हारी बुद्धि कब काम में आयेगी? और हाँ, चन्द्रगुप्त के मनोभाव का - कुछ पता लगा?
शिखरस्वामी - कोई नयी बात तो नहीं।
रामगुप्त - मैं देखता हूँ कि मुझे पहले अपने अन्तःपुर के ही विद्रोह का दमन करना होगा। (निःश्वास लेकर) ध्रुवदेवी के हृदय में चन्द्रगुप्त की आंकाक्षा धीरे-धीरे जाग रही है। शिखरस्वामी - यह असम्भव नहीं; किन्तु महाराज ! इस समय आपको दूत से साक्षात करके उपस्थित राजनीति पर ध्यान देना चाहिये। यह एक विचित्र बात है कि प्रबल पक्ष संधि के लिए प्रस्ताव भेजे।
रामगुप्त - विचित्र हो चाहे सचित्र, अमात्य, तुम्हारी राजनीतिज्ञता इसी में है कि भीतर और बाहर के सब शत्रु एक ही चाल में परास्त हों। तो चलो।
(दोनों का प्रस्थान ! मन्दाकिनी का सशंक भाव से प्रवेश)
मन्दाकिनी - (चारो ओर देखकर) भयानक समस्या है। मूर्खों ने स्वार्थ के लिये साम्राज्य के गौरव का सर्वनाश करने का निश्चय कर लिया है! सच है, वीरता जब भागती है, तब उसके पैरों से छल-छन्द की धूल उड़ती है। (कुछ सोचकर ) कुमार चन्द्रगुप्त को सब समाचार शीघ्र ही चाहिये। गूँगी के अभिनय में महादेवी के हृदय का आवरण तनिक-सा हटा है, किन्तु वह थोड़ा-सा स्निग्ध भाव भी कुमार के लिये कम महत्व नहीं रखता। कुमार चन्द्रगुप्त ! कितना समर्पण का भाव है उसमें? और उसका बड़ा भाई रामगुप्त ! कपटचारी रामगुप्त ! जी करता है इस कलुषित वातावरण से कहीं दूर, विस्मृत में अपने को छिपा लूँ। पर मन्दा ! तुझे विधाता ने क्यों बनाया? (सोचने लगती है) नहीं; मुझे हृदय कठोर करके अपना कर्त्तव्य करने के लिये यहाँ रूकना होगा । न्याय का दुर्बल पक्ष ग्रहण करना होगा।
(गाती है)
यह कसक अरे आँसू सह जा !
बनकर विनम्र अभिमान मुझे मेरा अस्तित्व बता, रह जा।
बन प्रेम छलक कोने-कोने
अपनी नीरव गाथा कह जा ।
करूणा बन दुखिया वसुधा पर
शीतलता फैलाता बह जाती है। ध्रुवस्वामिनी का उदास भाव से धीरे-धीरे प्रवेश) पीछे एक परिचारिका पान का डिब्बा और दूसरी चमर लिये जाती है। ध्रुवस्वामिनी एक मंच पर बैठकर अधरों पर उंगली रखकर कुछ सोचने लगती है और चमरधारिणी चमर चलाने लगती है) ध्रुवस्वामिनी (दूसरी परिचारिका से) हाँ, क्या कहा ! शिखरस्वामी कुछ कहना चाहते है ? कह - दो कल सुनूँगी, आज नहीं।
प्रिचारिका जैसी आज्ञा ! ते मैं कह आऊँ कि अमात्य से कल महादेवी बातें करेंगी?
ध्रुवस्वामिनी - (कुछ सोचकर ठहरो तो, वह गुप्त साम्राज्य का अमात्य हैं, उससे आज भी भेंट करना होगा। हाँ, यह तो बताओ, तुम्हारे राजकूल में नियम क्या है? पहले अमात्य की मन्त्रणा सुननी पड़ती है, तब राजा से भेंट होती है?
प्रिचारिका - (दाँतों से जीभ दबाकर) ऐसा नियम तो मैंने नहीं सुना। यह युद्ध - शिविर है न? परमभट्टारक को अवसर न मिला होगा! म्हादेवी! आपको सन्देह न करना चाहिये।
ध्रुवस्वामिनी- मैं महादेवी ही हूँ न ? यदि यह सत्य है तो क्या तुम मेरी आज्ञा से कुमार चन्द्रगुप्त को यहाँ बुल सकती हो? मैं चाहती हूँ कि अमात्य के साथ ही कुमार से भी कुछ बातें कर लूँ। प्रिचारिका - क्षमा कीजिये, इसके लिए तो पहले अमात्य से पूछना होगा ।
(ध्रुवस्वामिनी क्रोध से उसकी ओर देखने लगती है और वह पान का डिब्बा रख कर चली जाती है। एक बौने का कुबड़े और हिजड़े के साथ प्रवेश)
कुबड़ा युद्ध ! भयानक युद्ध !
बौना- हो रहा है कि कहीं होगा मित्र !
हिजड़ा - बहनों, यहीं युद्ध करके दिखाओ न, महादेवी भी देख लें।
बौना (कुबड़े से) सुनता - पर चढ़ाई करूँगा। है रे ! तू अपना हिमाचल इधर कर दे- मैं दिग्विजय करने के लिए कुबेर (उसके कूबड़ को दबाता है और कुबड़ा अपने घुटनों और हाथों के बल बैठ जाता है । हिजड़ा बड़े की पीठ पर बैठता है। बौना एक मोर्छल लेकर तलवार की तरह उसे घुमाने लगता है) हिजड़ा - अरे! यह तो मैं हूँ नल- कूबर की वधू! दिग्विजयी वीर, क्या तुम से युद्ध करोगे? लौट आओ, कल आना। मेरे श्वसुर और आर्यपुत्र दोनों ही उर्वशी और रम्भा के अभिसार से अभी नहीं आये। । कुछ ही तो युद्ध करने का शुभ मूहूर्त नहीं हैं।
बौना - (मोर्छल से पटा घुमाता हुआ) नहीं; आज ही युद्ध होगा। तुम नहीं हो, तुम्हारी उँगलियाँ तो मेरी तलवार से भी अधिक चल रही हैं। कूबड़ तुम्हारे नीचे है। तब मैं कैसे मान लूँ कि तुम न तो - कुम्बर हो और न कुबेर ! तुम्हारे वस्त्रों से मैं धोखा न खा जाऊँगा। तुम पुरूष हो युद्ध करो!
हिजड़ा - (उसी तरह मटकते हुये ) अरे मैं स्त्री हूँ। बहनों, कोई मुझसे व्याह भले ही कर सकता है, लड़ाई मैं क्या जानूँ ।
(दासी के साथ शिखर स्वामी का प्रवेश)
शिखरस्वामी - महादेवी की जय हो!
(दूसरी ओर से एक युवती दासी के कन्धे का सहारा लिये कुछ-कुछ मदिरा के नशे में रामगुपत का प्रवेश। मुस्कराता हुआ बौने का खेल देखने लगता है। ध्रुवस्वामिनी उठकर खड़ी हो जाती हैं और शिखरस्वामी रामगुप्त को संकेत करता है) रामगुप्त - (कुछ भर्राये हुये कण्ठ से) महादेवी की जय हो!
ध्रुवस्वामिनी - स्वागत महाराज ! (रामगुप्त एक मंच पर बैठ जाता है और शिखरस्वामी ध्रुवस्वामिनी के इस शिष्टाचार से चकित होकर सिर खुजलाने लगता है)
कुबड़ा- दोहाई राजाधिराज की ! मुझ हिमालय का कूबड़ दुखने लगा। न तो यह नल- कूबर की मेरे से उठती है और न तो यह बौना मुझे विजय ही कर लेता है। रामगुप्त - (हँसते हुए) वाह रे वामन वीर ! यहाँ दिग्विजय का नाटक खेला जा रहा है क्या?
बौना - (अकड़कर) वामन के बलि- विजय की गाथा और तीन पगों की महिमा सब लोग जानते है। मैं भी तीन लात में इसका कबूतर सीधा कर सकता हूँ। कुबड़ा लगा दे भाई बौना ! फिर यह अचल हेमकूट बनना तो छूट जाय ! - हिजड़ा - देखो जी, मैं नल- कूबर की वधू इस पर बैठी है।
बौना - झूठ ! युद्ध के डर से पुरूष होकर भी यह स्त्री बन गया है।
हिजड़ा - मैं तो पहले ही कह चूंकि कि मैं युद्ध करना नहीं जानती।
बौना - तुम नल- कूबर की स्त्रिी हो न, तो अपनी विजय का उपहार समझ कर मैं तुम्हारा हरण कर लूँगा। (और लोगों की ओर देखकर उसका हाथ पकड़ कर खींचता हुआ) ठीक होगा न? कदाचित् यह धर्म के विरूद्ध न होगा।
(रामगुप्त ठठाकर हँसने लगता है)
ध्रुवस्वामिनी - (क्रोध से भड़क कर) निकलो! अभी निकलो, यहाँ ऐसी निर्लज्जता का नाटक मैं नहीं देखना चाहती।
(शिखरस्वामी की ओर सक्रोध देखती है। शिखर के संकेत करने पर वे सब भाग जाते हैं) रामगुप्त - अरे, ओ दिग्विजयी ! सुन तो (उठ कर ताली पीटता हुआ हँसने लगता है। ध्रुवस्वामिनी से Marie फिरा लेती है। शिखरस्वामी के संकेत से दासी मदिरा का पात्र ले आती है, उसे देखकर प्रसन्नता से आँखे फाड़कर शिखर की ओर अपने हाथ बढ़ा देता है) अमात्य, आज ही महादेवी के पास मैं आया और आप भी पहुँच गये, यह एक विलक्षण घटना है। है न? (पात्र लेकर पीता है)
शिखरस्वामी - देव, मैं इस समय एक आवश्यक कार्य से आया हूँ।
रामगुप्त - ओह, मैं तो भूल ही गया था ! वह बर्बर शकराज क्या चाहता है? आक्रमण न करूँ, इतना ही तो? जाने दो, युद्ध कोई अच्छी बात तो नहीं !
शिखरस्वामी - वह और भी कुछ चाहता है।
रामगुप्त क्या कुछ सहायता भी माँग रहा है? शिखरस्वामी (सिर - झुका कर गम्भीरता से नहीं देव, वह बहुत ही असंगत और अशिष्ट याचना र रहा है।
रामगुप्त - क्या? कुछ कहो भी।
शिखरस्वामी - क्षमा हो महाराज ! दूत तो अवध्य होता है; इसलिये उसका सनदेश सुनना पड़ा। वह कहता था कि शकराज से महादेवी ध्रुवस्वामिनी का (रूक कर ध्रुवस्वामिनी की ओर देखने लगता है। ध्रुवस्वामिनी सिर हिला कर कहने की आज्ञा देती है) विवाह सम्बन्ध स्थिर ह चुका था, बीच में ही आर्य समुद्रगुप्त की विजय यात्रा में महादेवी के पिता जी ने उपहार में गुप्तकुल में भेज दिया, इसलिए महादेवी को वह रामगुपत ऐं, क्या कहते हो अमात्य ? क्या वह महादेवी को मांगता है।
शिखरस्वामी - हाँ देव! साथ ही वह अपने सामन्तों8 के लिए मगध के सामन्तों की स्त्रियों को माँगता है।
रामगुप्त ( श्वास लेकर) ठीक ही है, जब उसके यहाँ सामन्त हैं, तब उन लोगों के लिए भी स्त्रियाँ - चाहिए। हां, क्या यह सच है कि महादेवी के पिता ने शकराज से इनका सम्बन्ध स्थिर कर लिया था?
शिखरस्वामी - यह तो मुझे नहीं मालूम?
(ध्रुवस्वामिनी रोष से फूलती हुई टहलने लगती है)
रामगुप्त - महादेवी, अमात्य क्या पूछ रहे हैं?
ध्रुवस्वामिनी इस प्रथम सम्भाषण के लिए मैं कृतज्ञ हुई महाराज ! किन्तु मैं यह भी जानना - चाहती हूँ कि गुप्त साम्राज्य का स्त्री-सम्प्रदान से ही बढ़ा है?
रामगुप्त - (झेंपकर हंसता हुआ) हैं-हें-हें, बताइये अमात्य जी!
शिखरस्वामी - मैं क्या कहूँ? शत्रु- पक्ष का यही सन्धि सन्देश है। यदि स्वीकार न हो तो युद्ध कीजिये। शिविर दोनों ओर से घिर गया है। उसकी बातें मानिये, या मर कर भी अपनी मर्यादा की रक्षा कीजिये। दूसरा कोई उपाय नहीं।
रामगुप्त - (चौंककर क्या प्राण देने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं? ऊँहूँ, अब तो महादेवी से पूछिये।
ध्रुवस्वामिनी - (तीव्र स्वर से) और आप लोग, कुबड़ों, बौनों और नपुंसकों का नृत्य देखेंगे। मै जानना चाहती हूँ किसने सुख-दुख में मेरा साथ न छोड़ने की प्रतिज्ञा अग्रि वेदी के सामने की है? रामगुप्त - (चारों ओर देखकर) किसने की है, कोई बोलता क्यों नहीं?
ध्रुवस्वामिनी - तो क्या मैं राजाधिरराज रामगुप्त की महादेवी नहीं हूँ ?
रामगुप्त - क्यों नहीं ? परन्तु रामगुप्त ने ऐया कोई प्रतिज्ञा न की होगी। मैं तो उस दिन द्राक्षासव में डुबकी लगा रहा था।
पुरोहितो ने न जाने क्या - क्या पढ़ा दिया होगा। उन सब बातो का बोझ मेरे सिर पर । (सिर हिलाकर ) कदापि नहीं।
ध्रुवस्वामिनी - (निस्सहाय होकर हीनता से शिखरस्वामी के प्रति ) यह तो हुई राजा की व्यवस्था, सुनूँ मंत्री महोदय क्या कहते है।
शिखरस्वामी- मैं कहूँगा देवी, अवसर देख कर राज्य की रक्षा करने वाली उचित सम्मति दे देना ही तो मेरा कर्तव्य है। राजनीति के सिद्धान्त से राष्ट्र की रक्षा सब उपायो से करने का आदेश हैं। उसके लिए राजा, रानी, कुमार और अमात्य सब का विसर्जन किया जा सकता है। किन्तु राज- विसर्जन अन्तिम उपाय है।
रामगुप्त (प्रसत्रता से) वाह ! क्या कहा तुमने ! तभी तो लोग तुम्हें नीति-शास्त्र का बृहस्पति समझते हैं!
ध्रुवस्वामिनी - अमात्य, तुम बृहस्पति हो चाहे शुक्र किन्तु धूर्त होने से ही क्या मनुष्य भूल नहीं बिठा दिया! रामगुप्त (आश्चर्य से ) क्या? क्या ?? क्या ??? -
ध्रुवस्वामिनी कुछ नहीं मैं केवल यही कहना चाहती हूँ कि पुरूषो ने स्त्रियो को अपनी पशु- - सम्पत्ति समझकर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया हैवह मेरे साथ नहीं चल सकता। सदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरव, नही बचा सकते, तो मुझे बेच भी सकते हो । हाँ तुम लोगो को आपत्ति से बचाने के लिए मैं स्वये यहाँ से चली जाऊँगी।
शिखरस्वामी - (मुँह बना कर ) ऊँह, राजनीति में ऐसी बातो को स्थान नहीं। जब तक नियमो के अनुकूल सन्धि का पूर्ण रूप से पालन न किया जाय, तब तक सन्धि का कोई अर्थ ही नही ध्रुवस्वामिनी- देखती हूँ कि इस राष्ट्र-रक्षा-यज्ञ में रानी की बलि होगी ही ।
शिखरस्वामी - दसरा कोई उपाय नहीं।
ध्रुवस्वामिनी - (क्रोध से पैर पटक कर ) उपाय नहीं, तो न हो निर्लज्ज अमात्य फिर ऐसा प्रस्ताव मैं सुनना नहीं चाहती।
रामगुप्त - (चौक कर) इस छोटी सी बात के लिए इतना उपद्रव! (दासी की ओर देख कर ) मेरा तो (वह मदिरा देती हैं)
ध्रुवस्वामिनी - (दृढता से) अच्छा, तो अब मैं चाहती हूँ कि आमत्य अपने मन्त्रणा - गृह में जाये मैं केवल रानी ही नहीं, किन्तु स्त्री भी हूँ; मुझे अपने को पति कहने वाले पुरूष कुछ कहना है, राजा से नहीं।
(शिखरस्वामी का दासियो के साथ प्रस्थान )
रामगुप्त - ठहरो जी, मैं भी चलता हूँ (उठना चाहता है। ध्रुवस्वामिनी उसका हाथ पकड़ कर रोक लेती है) तुम मुझसे क्या कहना चाहती हो?
ध्रुवस्वामिनी - (ठहर कर ) अकेले यहाँ भय लगता है क्या? बैठिये, सुनिये। मेरे पिता ने उपहार- स्वरूप कन्या-दान किया था। किन्तु गुप्त सम्राट क्या अपनी पत्नी शत्रु को उपहार में देगे ? (घुटने के बल बैठकर) देखिये, मेरी ओर देखिये।
मेरा स्त्रीत्व क्या इतने का भी अधिकारी नहीं कि अपने को स्वामी समझने वाला पुरुष उसके लिए प्राणों का पण लगा सके।
रामगुप्त (उसे देखता हुआ) तुम सुन्दर; किन्तु सोने की कटार पर मुग्ध होकर उसे कोई अपने हृदय मे डुबा नहीं सकता। तुम्हारी सुन्दरता- तुम्हारा नारीत्व - अमूल्य हो सकता है। फिर भी अपने लिये मै स्वंय कितना आवश्यक हूँ कदाचित तुम यह नही जानती हो।
ध्रुवस्वामिनी - (उसके पैरों को पकड़कर) मै गुप्त- कुल की वधू होकर इस राज परिवार में आयी हूँ । इसी विश्वास पर
रामगुप्त (उसे रोक कर वह सब मै नहीं सुनना चाहता ।
ध्रुवस्वामिनी मेरी रक्षा करो। मेरे और अपने गौरव की रक्षा करो। राजा, आज मै शरण की प्रार्थिनी हूं। मै स्वीकार करती हूं, कि आज तक मै तुम्हारे विलास की सहचारीी नहीं हुई; किन्तु वह मेरा अहंकार 10 चूर्ण हो गया है। मै तुम्हारी होकर रहेंगी। राज्य और सम्पत्ति रहने पर राजा को - पुरूष को बहुत-सी रानियाँ और स्त्रियाँ मिलती है; किन्तु व्यक्ति का मान 11 नष्ट होने पर फिर नहीं मिलता।
रामगुप्त - (घबराकर उसका हाथ हटाता हुआ) ओह, तुम्हारा यह घातक 12 स्पर्श बहुत उत्तेजनापूर्ण है। मै,- नहीं तुम ही मेरी रानी? नहीं नही । तुमको जाना पडेगा। तुम उपहार की वस्तु हो। तुम्हे किसी दूसरे को देना चाहता हूं। इसमे तुम्हे क्यो आपत्ति हो ?
ध्रुवस्वामिनी - (खडी होकर रोष से) निर्लज्ज, मद्यप, क्लीव ओह, तो मेरा कोई रक्षक नहीं? (ठहर कर) नही, मै अपनी रक्षा स्वंय करूँगी। मै उपहार मे देने की वस्तु, शीतल-मणि नहीं हूँ मुझ में रक्त की तरल लालिमा है। मेरा हृदय उष्ण है और उसमें आत्म सम्मान की ज्योति । उसकी रक्षा मै ही करूँगी । (रशना से कृपाणी निकाल लेती है)।
रामगुप्त - (भयभीत होकर पीछे हटता हुआ) तो क्या तुम मेरी हत्या करोगी? ध्रुवस्वामिनी- तुम्हारी हत्या? नही, तुम जिओ । भेड़ की तरह तुम्हारा क्षुद्र जीवन ! इसे न लूँगी! मै अपना ही जीवन समाप्त करूँगी।
रामगुप्त किन्तु तुम्हारे मर जाने पर उस बर्बर शकराज के पास किसको भेजा जायगा ? नहीं, - नहीं, ऐसा न करो। हत्या! हत्या ! दौड़ा! दौड़ो!! (भागता हुआ निकल जाता है: दूसरी ओर से वेग सहित चन्द्रगुप्त का प्रवेश)
चन्द्रगुप्त - हत्या ! कैसी हत्या ! (ध्रुवस्वामिनी को देखकर) यह क्या? महादेवी ठहरिये !
ध्रुवस्वामिनी कुमार, इसी समय तुम्हे भी आना था। (सकरूण देखती हुई) मैं प्रार्थना करती हूं. - कि तुम यहाँ से चले जाओ! मुझे अपने अपमान में निर्वसन न देचाने का किसी पुरुष अधिकार नही! मुझे मृत्यु की चादर से अपने को ढँक लेने दो। चन्द्रगुप्त - किन्तु क्या कारण सुनने का मै अधिकारी नहीं हूँ? को
ध्रुवस्वामिनी सुनाने ? (ठहर कर सोचती हूई ) नहीं, अभी आत्महत्या नहीं करूँगी। यह तीखी - छुरी इस अतृप्त हृदय मे विकासोन्मुख कुसुम मे बिषैले कीट के डंक की तरह चुभा दूँया नहीं, इस पर विचार करूँगी। यदि नही तो मेरी दुर्दशा का पुरस्कार क्या कुछ और है? हाँ जीवन के लिए कृतज्ञ, उपकृत और आभारी होकर किसी के अभिमानपूर्ण आत्म- विज्ञापन का भार ढोती रहूँ- सही क्या विधाता का निष्ठुर विधान है? छुटकारा नहीं? जीवन नियति के कठोर आदेश पर चलेगी ही? तो क्या यह मेरा जीवन भी अपना नहीं है?
चन्द्रगुप्त -
देवि, जीवन विश्व की सम्पत्ति है। प्रसाद से, क्षणिक आवेश से, या दुःख की कठिनाइयो से उसे नष्ट करना ठीक तो नही । गुप्त-कुल- लक्ष्मी आज यह छिन्नमस्ता का अवतार किसलिये धारण करना चाहती है? सुनूँ भी?
ध्रुवस्वामिनी - नहीं, मै न मरूंगी। क्योकि तुम आ गये होकर मेरी शिविका के साथ चातर- सज्जित अश्व पर चढ़कर तुम्हीं उस दिन आये थे? तुम्हारा विश्वासपूर्ण मुखमण्डल मेरे साथ आ में क्यो इतना प्रसन्न था ?
चन्द्रगुप्त - मै गुप्त- कुल-वधू को आदरसहित ले आने के लिए गया था फिर प्रसन्न क्सो न होता ? -- तो फिर आज मुझे शक - शिविर में पहुँचाने के लिए उसी प्रकार तुमको मेरे साथ चलना होगा। (आँखों से आँसू पोंछती है)
चन्द्रगुप्त (आश्चर्य से यह कैसा परिहास!
ध्रुवस्वामिनी कुमार ! यह परिहास नहीं, राजा की आज्ञा है। शकराज को मेरी अत्यन्त - आवश्यकता है। यह अवरोध बिना मेरे उपहार दिये नहीं हट सकता।
चन्द्रगुप्त (आवेश से ) यह नहीं सता । महादेवी! जिस मर्यादा के लि- जिस महत्व को स्थिर - रखने के लिए, मैने राजदण्ड ग्रहण न करके अपना मिला हुआ अधिकार छोड दिया; उसका यह अपमान! मेरे जीवित रहते आर्य समुद्रगुप्त के स्वर्गीय गर्व को इस तरह पद दलित न होना पड़ेगा। (ठहर कर) औक्र भी एक बात है! मेरे हृदय के अन्धकार में प्रथम किरण- सी आकर जिसने अज्ञात भाव से अपना मधुर आलोक ढाल दिया थ, उसको भी मैने केवल इसीलिए भूलने का प्रयत्र किया कि - (सहसा चुप हो जाता है।)
ध्रुवस्वामिनी (आँख बन्द किए हुए कुतूहल- भरी प्रसन्नता से) हाँ हाँ कहो कहो - (शिखरस्वामी के साथ रामगुप्त का प्रवेश)
रामगुप्त - देखो तो कुमार ! यह भी कोई बात है? आत्महत्या केतना बड़ा अपराध है। चन्द्रगुप्त - और आप से तो वह भी नही करते बनता !
रामगुप्त - (शिखरस्वामी से) देखो, कुमार के मन में छिपा हुआ कलुष कितना- कितना भयानक है?
शिखरस्वामी - कुमार, , विनय गुप्त- कुल का सर्वोत्तम गृह - विधान है, उसे न भूलना चाहिये!
चन्द्रगुप्त - (व्यंग्य से हँसकर) अमात्य, तभी तो तुमने व्यवस्था दी है कि महादेवी को देकर सन्धि की जाय ! क्यो, यही तो विनय की पराकाष्ठा है? ऐसा विनय प्रवंचको का आवरण है, जिसमें शील न हो। और शील परस्पर सम्मान की घोषणा करता है। सम्मान। कानुरूष ! आर्य समुद्रगुप्त का
शिखरस्वामी - (बीच में बात काट कर उसके लिए मुझे प्राणदण्ड दिया जाय ! मै उसे अविचल भाव से ग्रहण करूँगा; परन्तु राजा और राष्ट्र की रक्षा करने में असमर्थ है, तब भी उस राज की रक्षा होनी चाहिये। अमात्य यह कैसी विवशता है! तुम मृत्यु दण्ड के लिये उत्सुक ! महादेवी आत्महत्या करने के लिये प्रस्तुत ! फिर यह हिचक क्यों? एक बार अन्तिम बल से परीक्षा कर देखो। बचोगे तो राष्ट्र और सम्मान भी बचेगा, नहीं तो सर्वनाश !
चन्द्रगुप्त- आहा; मन्दा! भला तू कहाँसे यह उत्साह भरी बात कहने के लिये आ गयी? ठीक तो है अमात्य ! सुनी, यह स्त्री क्या कह रही है?
रामगुप्त - (अपने हाथो को मसलते हुये ) दुरभिान्धि, छल, मेरे प्राण लेने का कौशल !
चन्द्रगुप्त - तब आओ, हम स्त्री बन जायें और बैठ कर रोये ।
हिजड़ा - (प्रवेश करके) कुमार, स्त्री बनना सहज नहीं है। कुछ दिनों तक मुससे सीखना होगा। (सबका मुँह देखता है और शिखरस्वामी के मुँह पर हाथ फेरता है) ऊहूँ, तुम नहीं बन सकते। तुम्हारे ऊपर बड़ा कठोर आवरण है। (कुमार के समीप जा कर ) कुमार! मै शपथ खाकर कह सकती हूँ कि यदि मैं अपने हाथो से सजा दूँ तो आपको देख कर महादेवी का भ्रम हो जाय। (चन्द्रगुप्त उसका कान पकड़ कर बाहर कर देता है।)
ध्रुवस्वामिनी - उसे छोड़ दो कुमार। यहाँ पर एक वही नपुंसक तो नही है। बहुत से किसको- किसको निकालोगे?
(चन्द्रगुप्त उसे छोड़ कर चितिन्त सा अहलने लगता है और शिखरस्वामी रामगुप्त के कानो में कुछ कहता है)
चन्द्रगुप्त - (सहसा खड़े होकर) अमात्य, तो तुम्हारी ही बात रही। हाँ, उसमें तुम्हारे सहयोगी हिजड़े की भी सम्मति मुझे अच्छी लगी। मै ध्रुवस्वामिनी बन कर अन्य सामन्त कुमारो के साथ शकराज के पास जाँऊगा। यदि मै सफल हुआ तब तो कोई बात ही नहीं, अन्यथा, मेरी मृत्यु के बाद तुम लोग जैसा उचित समझना, वैसा करना ।
ध्रुवस्वामिनी - (चन्द्रगुप्त को अपनी भुजाओं में पकड़ कर नहीं, मैं तुमको न जाने दूँगी। मेरे श्रद्र, - जीवन का सम्मान बचाने के लिए इतने बड़े बलिदान की आवश्यकता नहीं ।
रामगुप्त (आश्चर्य और क्रोध से) छोड़ों यह कैसा अनर्थ ! सबके सामने यह कैसी निर्जज्ज़ता ! -
ध्रुवस्वामिनी - (चन्द्रगुप्त को छोड़ती हुई जैसे चैतन्य हो कर) यह पाप है? जो मेरे लिए अपनी बलि दे सकता हो, जो मेरे स्नेह (ठहर कर) अथवा इससे क्या? शकराज क्या मुझे देवी बना कर भाव से मेरी पूजा करेगा! वह रे लज्जाशील पुरूष!
(शिखररूवामी फिर रामगुप्त के कान में कुछ कहता है। रामगुप्त स्वीकारसूचक सिर हिलाता है) शिखरस्वामी - राजाधिराज, आज्ञा दीजिये, यही एक उपाय है, जिसे कुमार बता रहे है। किन्तु राजनीति की दृष्टि से महादेवी का भी वहाँ जाना आवश्यक है।
चन्द्रगुप्त (क्रोध से ) क्यो आवश्यक है ! यदि उन्हें जाना ही पड़ा तो फिर मेरे जाने से क्या लाभ ! - तब मै न जाऊँगा।
रामगुप्त - नहीं यह मेरी आज्ञा है। सामन्त कुमारो के साथ जाने के लिये प्रस्तुत हो जाओ। ध्रुवस्वामिनी तो कुमार ! हम लोगा का पलना निश्चित ही है अब इसमें विलम्ब की आवश्यकता - नहीं।
(चन्द्रगुप्त का प्रस्थान ध्रुवस्वामिनी मंच पर बैठ कर रोने लगती है) रामगुप्त - अब यह कैसा अभिनय ! मुझे तो पहले से ही शंका थी, और आज तो तुमने मेरी आँखे भी खोल दीं।
अनार्य! निष्ठुर मुझे कलंक- कालिमा के कारागार में बन्द कर, मर्म वाक्य के धुँयें से दम घोटकर मार डालने की आशा न करो। आज मेरी असहायता मुझे अमृत पिलाकर मेरा निर्लज्ज जीवन बढ़ाने के लिए तत्पर है। (उठाकर, हाथ से निकल जाने का संकेत करती हुई) जाओ मै चाहती हूँ।
( शिखरस्वामी के साथ रामगुप्त का प्रस्थान )
ध्रुवस्वामिनी -
कितना अनुभूतिपूर्ण था वह एक क्षण का आलिंग! कितने सन्तोष से भरा था ! नियति ने अज्ञात भाव से मानो लू से तपी हूई वसुधा को क्षितिज के निर्जन से सांयकालीन शीतल आकाश से मिला दिया हो। (ठहर कर) जिय वायुविहीन प्रदेश में उखड़ी हुई साँसो पर बन्धन हो- अर्गला हो वहाँ रहते रहत यह जीवन असह्य हो गया था। तो भी मरूंगी नहीं। संसार के कुछ दिन विधाता के विधान में अपने लिये सुरक्षित करा लूँगी। कुमार! तुमने वही किया, जिसे मै बचाती रही। तुम्हारे उपकार और स्नेह की वर्षा से मै भीगी जा रही हूँ। ओह, (हृदय पर उँगली रख कर) इस वक्षस्थल में दो हृदय है क्या? जब अन्तरंग 'हां' करना चाहता है, तब ऊपरी मन 'ना' क्यों कहला देता है ?
चन्द्रगुप्त - (प्रवेश कर के) महादेवि, हम लोग प्रस्तुत है किन्तु ध्रुवस्वामिनी के साथ शक- शिविर में जाने के लिये हम लोग सहमत नहीं।
ध्रुवस्वामिनी - (हँस कर ) राजा की आज्ञा मान लेना ही पर्याप्त नहीं। रानी की भी एक बात मानोगे? मैने तो पहले ही कुमार से प्रार्थना की थी कि मुझे जैसे ले आये हो; उसी तरह पहुँचा भी दो।
चन्द्रगुप्त- नहीं- मैं अकेला ही आऊँगा ।
ध्रुवस्वामिनी- कुमार! यह मृत्यु और निर्वासन का सुख, तुम अकेले ही लोगे, ऐसा नहीं हो - सकता। राजा की इच्छा क्या है, यह जानते हो? मुझसे और तुमसे एक साथ ही छुटकारा | । तो फिर वहीं क्यो न हो? हम दोनो ही चलेगे। मृत्यु के गहर में प्रवकश करने के समय मै भी तुम्हारी ज्योति बन कर बुझ जाने की कामना रखती हूँ। और भी एक विनोद, प्रलय का परिहास, देख सकूँगी। मेरी सहचासरी, तुम्हारी वह ध्रुवस्वामिनी का वेश, ध्रुवस्वामिनी ही न देखे तो किय कात का?
(दोनो हाथो से चन्द्रगुप्त का चिबुक पकड़ कर सकरूण देखती है)
चन्द्रगुप्त - (अधखुली आँखो से देखती हुआ) तो फिर चलो।
(सामन्त कुमारो के आगे-आगे मन्दाकिनी का गम्भीर स्वर से गाते हुये प्रवेश)
पैरो के नीचे जलधर हों, बिजली से उनका खेल चले
संकीर्ण कगारो के नीचे, शत-शत झरने बेमेल चले
सन्नाटे में हो विकल पवन, पादप निज पद हों चूम रहे
तब भी गिरि- पथ का अथक पथिक, ऊपर ऊँचे सब झेल चले
पृथ्वी की आँखो मे बन कर छाया का पुतला बढ़ता हो
सूने तुम में हो ज्योति बना, अपनी प्रतिभा को गढ़ता हो
पीड़ा की ल उड़ाता-सा, बाधाओ को ठुकराता-सा
कष्टों पर कुछ मुसक्याता-सा, ऊपर ऊँचे सब झेल चले
खिलते हों क्षत के फूल वहाँ बन व्यथा तमिस्त्रा के तारे
पद- पद पर ताण्डव नर्त्तन हो, स्वर सप्तक होंवे लय सारे
भैरव रव से ही व्याप्त दिशा हो काँप रही भय-चकित निशा
खिलते हो क्षत के फूल वहाँबन व्यथा तमिस्त्रा के तारे,
पद-पद पर ताण्डव नर्त्तन हो, स्वर सप्तक होंवे लय सारे
भैरव व से ही व्याप्त दिशा हो काँप रही भय चकित निशा
हो स्वेद धार बहती कपिशा, ऊपर ऊँचे सब झेल चले
विचलित हो अचल न मौन रहे निष्ठुर श्रृंगार उतरता हो
क्रन्दन कम्पन न पुकार बने, निज साहस पर निर्भता हो
अपनी ज्वाला को आप पिये नव-नीलकण्ठ की छाप लिये
विश्राम शान्ति को शाप दिये, ऊपर ऊंचे सब झेल चले।
(चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी सबका धीरे-धीरे प्रस्थान अकेली मन्दाकिनी खड़ी रह जाती है)
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