आधे-अधूरेः मूल्यांकन
आधे-अधूरेः मूल्यांकन
1 आधुनिक जीवन के प्रश्न
- आधुनिकता ने सामंतवाद से आगे जाकर एक नवीन दृष्टि का प्रतिपादन किया है - जिसे मोटे रूप में आधुनिक जीवन मूल्य कहा गया है। आधुनिक जीवन मूल्य से तात्पर्य ऐसी विचारप्रणाली व जीवन पद्धति से है जो समता, समानता एवं विश्व बंधुत्व की बात करता हो । इस दृष्टि से जहाँ कहीं भी जीवत-पद्धति में असमानताएँ मिलने लगती है। वहाँ आधुनिक जीवन की विसंगति तीव्र गति से हमारे सामने दिखने लगती है। विसंगति, बिडम्बना, अंतर्विरोध, संत्रास जैसे पद आधुनिक जीवन की विसंगति ही है। 'आधे-अधूरे' नाटक आधुनिक जीवन विसंगति को केन्द्र में रख कर लिया गया नाटक है।
- 'आधे-अधूरे' की कथावस्तु के केन्द्र में नगरी - मध्यमवर्गीय परिवार व उनकी अतृप्त इच्छाएँ हैं। नाटक के केन्द्र में एक परिवार है। परिवार का प्रसार क्रमशः मध्यमवर्ग तक सिमट जाता है। मध्यमवर्गीय-पारिवारिक विद्यटन की सारी समस्याएँ जो 'नई कहानी' के केन्द्र में थीं, वह सब आधे-अधूरे में विस्तार - गहराई व तीव्रता से उठाई गई है। पारिवारिक विघटन नई कहानी केन्द्र में था, आधे-अधूरे में वह विघटन और जटिल रूप धारण कर चुका है। यहाँ परिवार भी टूट राह है लेकिन साथ भी है । लगाव, प्रतिबद्धताएँ भी नहीं है, लेकिन मजबूरी भी है। यानी सामाजिक जीवन की जटिलता अपने अधूरेपन में व्यंग्यात्मक रूप से व्यक्त हुई है। सभी पात्र आधे-अधूरे हैं। अधूरेपन का एहसास व उसकी नियति आधुनिक जीवन समस्या है। अधूरेपन को व्यक्त करने के लिए नाटककार ने वर्व्य विषय व वात्र चयन सब में प्रयोग किया है। सावित्री धुप का केन्द्रीय प्रतीक है। नाटक में अधूरेपन को व्यक्त करता संवाद देखिये- “पुरूष चारः असल बात इतनी ही है कि महेन्द्र की जगह इनमें से कोई भी आदमी होता तुम्हारी जिन्दगी में, तो साल-दो साल बाद, तुम यही महसूस करती कि तुमने गलत आदमी से शादी कर ली है।.. . क्योंकि तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है- कितना कुछ एक साथ होकर कितना- कुछ एक साथ पाकर और कितना कुछ एक साथ ओढ़कर जीना। वह उतना कुछ कभी तुम्हें किसी एक जगह न मिल पाता, इसलिए जिस किसी के साथ भी जिंदगी शुरू करती, इतनी ही खाली, इतनी ही वेचैन बनी ." कह सकते हैं कि सावित्री का अधूरापन 'प्रक्षेपण' के माध्यम से व्यक्त किया गया है। सभी पात्र आधे अधूरे हैं। इसलिए वे अपनी पूर्णता को दूसरों में खोजने का प्रयास कर रहा है।
2 चरित्र और समाज-
- किसी भी समाज की गति परिवर्तन का संकेत उसके चरित्रों के माध्यम से मिलता है। चरित्र निर्माण की रात इसीलिए किसी भी समान में काम्य होती हैं, क्योंकि उसके बिना न तो समाज ऊपर उठ सकता है और न संस्कृति का संरक्षण ही हो सकता है। दूसरे शब्दों में चरित्र के अनुसार और समाज का संबंध अनिवार्य और परस्पर अन्योन्याश्रित है। इसी समझ साहित्य में चरित्रों की सृष्टि होती रही हैं। आदर्शवादी युग तक तो 'महनीय चरित्र' ही काम्य रहे लेकिन आधुनिकता के आगमन के पश्चात यथार्थवादी चरित्रों की सृष्टि पर बल दिया जाने लगा। यर्थाथवादी चरित्र अपने मूल रूप में 'आम आदमी' के करीब के चरित्र होते थे, जो प्रायः मनुष्य की मूल वृत्तियों से संचालित होते थे। क्रमशः इस प्रकार के चित्रण में भी क्रमशः दो वर्ग हो गये। एक प्रकार का चित्रण मनुष्य की संभावना और गतिशीलता को स्वीकार करता था तो दूसरे प्रकार का वर्ग मनुष्य के अवचेतन, मन, अतृप्ति यानी कुल मिलाकर सामाजिक दबाव तले जी रहे मनुष्य और उसकी क्रिया-प्रतिक्रियाओं का ही चित्रण करता था। प्रथम प्रकार के वर्ग को प्रगतिशील या मार्क्सवादी पद्धति कहा गया तो दूसरे प्रकार के वर्ग को अस्तित्ववादी, व्यक्तिवादी या मनोविश्लेषणवादी । समझ की दृष्टि से किया गया विश्लेषण ही इस संदर्भ में हमारी मदद कर सकता है क्योंकि ये वर्गीकरण स्थूल रूप से किए गये हैं। इसके अतिरिक्त भी कई वर्गीकरण रहे हैं और कुछ ऐसे भी रहे हैं जिनमें परस्पर एक-दूसरे का मिश्रण भी हो गया है। नाटकीय चरित्र चित्रण विचारधारात्मक दबाव के बावजूद अपनी नाटकीय शर्तों की पूर्ति क्रम में अलग ही स्वरूप प्राप्त कर लेता है। नाटकीय चरित्र-चित्रण में इसीलिए एक ओर जहाँ पात्र अपने व्यक्तित्व के प्रकटीकरण के लिए विचार का आश्रय लेता है कहीं दूसरी ओर नाटकीय भंगिमाओं का भी.....। आधे-अधूरे नाटक की पात्र संख्या सीमित है। पात्रों में काले सूट वाला व्यक्ति, पुरूष एक, पुरूष दो, पुरूष तीन, पुरूष चार, स्त्री (सावित्री), बड़ी लड़की, छोटी लड़की, लड़का इत्यादि पात्र ही है। इस नाटक का मुख्य पात्र कौन है? नाटक की प्रस्तावना में नाटककार ने लिखा है- “नाटक अंत तक फिर भी इतना ही अनिश्चित बना रहता और यह निर्णय करना इतना ही कठिन होता है कि इसमें मुख्य भूमिका किसकी थी मेरी, उस स्त्री की, परिस्थितियों की , या तीनों के बीच से उठते हुए कुछ सवालों की? “स्पष्ट है यह नाटक परिस्थिति केंन्द्रित है, पात्र केन्द्रित नहीं। पात्र इस नाटक में केंन्द्रित नहीं है, यह नाटककार के पात्र संयोजन से भी स्पष्ट हो जाता है। पुरूष एक (महेन्द्रनाथ), पुरूष दो (सिंघानिया) पुरूष तीन (जुनेजा), पुरूष चार ( जगमोहन) के नाम से ही संबोधन है, हय व्यक्तित्वहीनता का चरम है। चरित्रों की प्रधानता की दृष्टि से बात करें तो सावित्री नाटक की प्रधान पात्र गहरती है क्योंकि अन्या सारे पात्र उसी की क्रिया-प्रतिक्रिया में विकसित होते हैं।
आधे-अधूरेःसंवाद और देशकाल-
1 संवाद
- नाटकीय संवादों की सर्वप्रमुख विशेषता यह होती है वह परिस्थितियों के दावपेंच को अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम हो। दूसरी विशेषता नाटकीय संवाद की यह होती है कि वह चरित्रों के व्यक्तित्व- प्रकाशन में हमारी मदद कर पा रहा है या नहीं? जैसे महेन्द्रनाथ का संवाद उसके व्यक्तित्व को उजागर करता है। उकसे व्यक्तित्व की दिशाहीनता, ऊलजूलुलपन, निष्क्रिमता और बेबसी को उसके संवादों के माध्यम से व्यक्त किया गया है। जैसे- पुरूष एकः (कुढ़कर लौटता) तेरी मां ने तुझसे पूछा है, तू उसी से बात कर मैं इस मारे कभी पढ़ता ही नहीं इन चीजों में।
- सोफे पर जाकर अखबार खोल लेता है। पर पल-भर ध्यान हो आने से कि वह उसने उलटा पकड़ रखा है, उसे सीधा कर लेता है। "
- इसी प्रकार सावित्री या चरित्र उसके संवादों में बखूबी व्यक्त हुआ है। एक उदाहरण देखें- “स्त्री (थकान निकालने के स्वर में ) ओह होह होह होह होह्! (कुछ हताश भाव से) फिर घ में कोई नहीं। (अन्दर के दरवाजे की तरफ देखकर) किन्नी!. . होगी ही नहीं, जवाब कहाँ से ? (तपाई पर पड़े बैग को देखकर) यह हाल है इसका ! (बैग की एक किताब उठाकर ) फिर फाड़ लाई एक और किताब ! जरा शरम नहीं कि रोज रोज कहाँ से पौसे आ सकते है नई किताबों के लिए! (सोफे के पास आकर) और अशोक बाबू यह कमाई करते रहे हैं दिन- भर!.
- संवादों की एक प्रमुख विशेषता उसकी संक्षिप्तता होती है। इस ढंग से नाटक के अधिकांश संवाद छोटे हैं.. छोटे संवादों के कारण नाटक ज्यादा व्यक्तित्व व देशकाल के गठन में सहायक हो सका है।
2 देशकाल-
- नाटक के प्रारम्भ में ही देशकाल, परिवेश का संकेत कर दिया गया है। “मध्यवर्गीय स्तर से ठहकर निम्न-मध्यवर्गीय स्तर पर आया एक घर।" इस एक वाक्य से ही कथ्य - परिवार की आर्थिक स्थिति का संकेत कर दिया गया है। नाटक के निम्न मध्यमवर्गीय स्थिति की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए नाटककार ने लिखा है- “सब रूपों में इस्तेमाल होने वाला वह कमरा जिसमें उस घर के व्यतीत स्तर के कई टूटते अवशेष- सोफा सेट, डाइनिंग टेबल, कबर्ड और डे"सिंग टेबल आदि-किसी-न-किसी तरह अपने लिए जगह बनाए हैं। जो कुछ भी है, वह अपनी अपेक्षाओं के अनुसार न होकर कमरे की सीमाओं के अनुसार एक और ही अनुपात से है। एक चीज का दूसरी चीज से रिश्ता तात्कालिक सुबिधा की माँग के कारण लगभग टूट चुका है। फिर भगत हे कि वह सुविधा कई तरह की असुविधाओं से समझौता करके की गई है - बल्कि कुछ असुविधाओं में ही सुविधा खेजने की कोशिश की गई है। सामान में कहीं एक तिपाई, कहीं दो-एक मोढे, कहीं फटी-पुरानी किताबों का एक शेल्फ और कहीं पढ़ने की एक मेज- कुरसी भी है। गद्दे, परदे, मेजपोश और पलंगपोश अगर है, तो इस तरह घिसे, फटे या सिले हुए कि समझ में नहीं आता कि उनका न होना क्या होने से बेहतर नहीं था। ” लम्बे उद्धरण को प्रस्तुत करने का कारण यही था की इस बहाने पूरे नाटक की संरचना, व्यंग्य और परिवेश पर प्रकाश पड़ता है और नाटककार ने उसका संकेत पूर्ण में ही कर दिया है। नाटक के बीच-बीच में निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की विसंगति और बिडम्बना पर प्रकाश पड़ता रहाता है। कामकाजी स्त्री का परिवार और नौकरी से संबंध, बेरोजगार पुरूष की समस्या, परिवार का विघटन, लड़के की दिशाहीनता और बच्चियों का भटकाव, स्त्री-पुरूष संबंध में तनाव व विखराव, आधे-अधूरे व्यक्तित्व व समाज की समस्या पर प्रकाश डाला गया है। नाटक में विखराव तो दिखाया गया है।
- अधूरेपन टूटन - विखराव को इस युग की नियति के रूप में नाटककार ने अपनी स्वीकारोक्ति दे दी है, लेकिन उसके मूल कारणों की ओर संकेत करके उसने अपने लेखकीय दायित्व का निर्वहन भी कर दिया है।
4 नाटकीय रंगमंचीय संदर्भ
- ‘आधे-अधूरे” नाटक अपने कथ्य की नवीनता एवं रंगमंचीय प्रयोग दोनों दृष्टियों से चर्चित व लोकप्रिय हुआ था। हिन्दी नाटकीय परम्परा में एक ही व्यक्ति चार रोल करेगा ( फिल्मी पात्रों की तरह), यह परिकल्पना पहली बार मोहन राकेश ने प्रस्तुत की थी। आधे-अधूरे के बाद कुछ प्रयोगशील नाटकारों (सुरेन्द्र वर्मा जैसे ) ने इस प्रयोग को बखूबी निभाया। एक ही व्यक्ति कई रोल करेगा, यह तो फिल्मों में भी होता है, लेकिन एक ही व्यक्ति दूसरे के रोल क्यों करेगा? आधे- अधूरे में इस प्रश्न को उठाया गया है। काले सूट वाला आदमी, पुरूष एक पुरूष दो, पुरूष तीन एंव पुरूष चार जैसे निर्देश इसीलिए रखे गये हैं क्योंकि उनके नाम होने से भी फर्क पड़नेवाला नहीं था। क्योंकि व्यक्तित्व की दृष्टि से उनमें कोई अन्तर नहीं हैं ...सभी आधे अधूरे हैं।
- नाटकार ने प्रारम्भ में ही रंग-निर्देश व नाट्य निर्देश दे दिये हैं। पूरा नाटक एक कमरे को आधार बना करके मंचित हुआ है। इस संदर्भ में आवश्यक निर्देश नाटककार ने नाटक के प्रारम्भ में ही दे दिये हैं। इसी प्रकार बीच-बीच में नाटककार रंगमंचीय निर्देश देते चलता है जैसे रंग निर्देश का एक उदाहरण देखें- “ हलके अभिवादन के रूप में सिर हिलाता है जिसके साथ ही उकसी आकृति धीरे-धीरे धुंधलाकर कमरे में गुम हो जाती है। उकसे बाद कमरे के अलग-अलग कोने एक-एक करके आलोकित होते हैं और एक आलोक-व्यवस्था में मिल जाते हैं........ इसी प्रकार नाटक के अंत में नाटककार द्वारा दिये गय रंग-निर्देश देखें- 'प्रकाश खंडित होकर स्त्री और बड़ी लड़की तक सीमित रह जाता है। स्त्री स्थिर आँखों से बाहर लड़की की तरफ देखती आहिस्ता से कुरसी पर बैइ जाती है। बड़ी लड़की एक बार उकसी तरफ देखती है, फिर बाहर की तरफ। हल्का मातमी संगीत उभरता है, जिसको साथ उन दोनों पर भी प्रकाश मद्धिम पड़ने लगता है। तभी, लगभग अंधेरे में लड़के की बांह थामे पुरूष एक की धुंधली आकृती अंदर आती दिखाई देती है।