ध्रुवस्वामिनी आलोचना
ध्रुवस्वामिनी आलोचना
1 कथावस्तु
- ध्रुवस्वामिनी नाटक का कथासूत्र ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि में निर्मित हुआ है। समुद्रगुप्त के बड़े पुत्र रामगुप्त, उसकी पत्नी ध्रुवस्वामिनी व छोटे पुत्र चन्द्रगुप्त को आधार बनाकर 'धुरवास्वामिनी' नाटक की कथावस्तु का विकास किया गया है। इतिहास में यह घटना विवादित रही है कि ध्रुवस्वामिनी ने अपने पति रामगुप्त को छोड़कर चन्द्रगुप्त से विवाह किया था या नहीं? इस संदर्भ में संस्कृत नाटककार विशाखदY ा ने नाटक 'देशी चन्द्रगुप्त' का आधार भी जयशंकर प्रसाद ने ग्रहण किया इस संदर्भ में कथास्त्रोत के सूत्र राजेशखर और बाणभट्ट की टिप्पणियाँ, नारद स्मृति, पराशर स्मृति, कौटिल्य का अर्थशास्त्र इत्यादि, 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक के आधार बने हैं।
- जयशंकर प्रसाद के सभी नाटकों में 'ध्रुवस्वामिनी' रंगमंचीय विधान की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण नाटक है। नाटक तीन अंकों में विभक्त है। प्रत्येक अंक एक-एक अंकों में विभक्त है। पहले अंक में नाटक की पृष्ठभूमि निर्मित करने का प्रसाय किया गया है। द्वितीय अंक कथा का विस्तार है। तथा तृतीय अंक में संपूर्ण कथानक को समेट कर उसे पूर्णता तक पहुँच गया है। | दृश्य और सूच्य घटनाओं के उचित तालमेल से कथानक को गति प्रदान की गई है। जयशंकर प्रसाद जी के नाटकों में सूच्य घटनाएँ जहाँ एक ओर कथानक को गति प्रदान करने के लिए लाई जाती है। वहीं दूसरी ओर इससे कौतूहल व नाटकीयता का उचित संतुलन भी स्थापित हो जाता है। 'ध्रुवस्वामिनी नाअक् में इसी प्रकार विविध नाटकीय युक्तियों का प्रयोग किया गया है। शकराज का प्रस्ताव, चन्द्रगुप्त का शक- दुर्ग में जाने का निर्णय, चन्द्रगुप्त का लौह-श्रृंखला तोड़ कर ध्रुवस्वामिनी की रक्षा करना, पुरोहित का क्रान्तिकारी निर्णय, चन्द्रगुप्त का बदलकर शकराज के शिविर में जाना इत्यादि घटनाओं के माध्यम से नाटकीय की सृष्टि की गई।
2 चरित्र चित्रण
- नाटक में कथानक को प्राण कहा गया है किन्तु इस प्राण में रक्त-संचार का कार्य उसके चरित्र करते हैं। नाटक में चरित्र चित्रण की उपयोगिता इस बात से भल-भाँति समझी जाती है कि चरित्र के बिना परिस्थितियाँ और घटनाओं का कोई औचित्य नहीं होता। कहने का अर्थ है कि चरित्र कथानक को गति प्रदान करने वाले अव्यव माँग करता है, क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष प्रस्तुति में ही दर्शकों के साथ अपने चरित्र को किसित करना होता है। इस प्रकार पात्र कथावस्तु को अभिव्यक्त करने वाले पात्र होते हैं। कथावस्तु और चरित्र-चित्रण की संगति इसलिए नाटक में किसी अन्य दूसरी विधाओं की अपेक्षा ज्यादा अनिवार्य होती है। दूसरी विधाओं जैसे उपन्यास में ढेरों पात्र होते हैं, जो अपने -अपने ढंग से महत्पूर्ण होते है, लेकिन कई पात्र ऐसे भी होते हैं जो उपन्यास की गति में उतनी महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाते। इस दृष्टि से नाटक में आये सभी पात्रों को अपनी सार्थकता सिद्ध करनी पड़ती है।
- किसी भी नाटक में मुख्य पात्र के अतिरिक्त भी अनेकों पात्रों की सृष्टि नाटकार को करनी पड़ती हैं, जिनका नाटक की गति में अपना अलग महत्व होता है। यहाँ धुरवस्वामिनी नाटक में आये प्रमुख पात्रों की चर्चा करना अपेक्षित होगा- 'ध्रुवस्वामिनी नाटक जयशंकर का उनके अन्य नाटकों की अपेक्षा छोटा नाटक है, इसलिए इसमें पात्रों की संख्य भी अपेक्षाकृत कम है। रामगुप्त, चन्द्रगुप्त, शकराज,, शिखरस्वामी, निहिरिदेव, खिंगिल व पुरोहित प्रमुख पुरूष पात्र हैं। इसके अतिरिक्त हिजड़ा, बौना, कुबड़ा, प्रतिहारी, खड़गधारिणी सामंत कुमार, शक - सामंत जैसे अन्य पात्र भी चित्रित किए गये हैं। स्त्री पात्रों में ध्रुवस्वामिनी मंदाकिनी और कोमा प्रमुख पात्र है।
ध्रुवस्वामिनी के प्रमुख पात्रों के चरित्र का संक्षेप में अध्ययन करेंगें..
ध्रुवस्वामिनी
ध्रुवस्वामिनी न केवल आलोच्य नाटक की नायिका है अपितु संपूर्ण नाटक का केन्द्र-बिन्दु भी है। आरम्भ से लेकर नाटक की सामाप्ति तक प्रमुख घटनाक्रमों के केन्द्र में वही है। उसका चरित्र- चित्रण करते हुए प्रसाद जी ने उसे द्वन्द्वशील पात्र के रूप में चित्रित किया है। उसे नाटककार ने एक ओर सहृदय प्रेमी के रूप में चित्रित किया है, दूसरी ओर अन्याय की प्रतिरोध करने वाली स्त्री के रूप में भी..
""मैं केवल यही कहना हूँ कि पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु समान समझ कर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साथ नहीं चल सकता X
X
""मेरा स्त्रीत्व क्या इतने का भी अधिकारी नहीं कि अपने को स्वामी समझने वाला पुरूष उसके लिए प्राणों का पण लगा सके।"
X
“निर्लज्ज! मद्यप!! क्लीव !!! ओह, तो मेरा कोई रक्षक वहीं ? (ठहर कर), मैं अपनी रक्षा स्वय करूँगी! मैं उपहार में देने की वस्तु, शीतलमणि नहीं हूँ। मुझ में रक्त की तरल लालिमा है। मेरा हृदय उष्ण है उसमें आत्म-सम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा में ही करूंगी।"
इस प्रकार सम्पूर्ण नाटक में ध्रुवस्वामिनी को नाटककार ने परिस्थितियों से संघर्ष, प्ररिरोध करने वाले पात्र के रूप में चित्रित किया है। कुल मिलाकर ध्रुवस्वामिनी का चरित्र अन्याय के खिलाफ आवाज उठा रही आधुनिक स्त्री का है जो अपनी नियति मानकर सब कुछ को स्वीकार करने से इंकार करती है। ध्रुवस्वामिनी स्त्री-मन व आधुनिक चेतना के द्वन्द्व का प्रतिफल है।
चन्द्रगुप्त-
चन्द्रगुप्त नाटक का नायक तथा प्रधान पुरूष पात्र है। नाटक के महत्वपूर्ण घटना क्रमों का वह आधार हैं। भारतीय नायकत्व परम्परा में उसका विशिष्ट स्थान है। पद के प्रति निस्प्रह होना व अपने कर्त्तव्य के प्रति जागरूक होना उसके व्यक्तित्व की प्रधान विशेषता है। चन्द्रगुप्त पराक्रमी, त्यागी व प्रेमी व्यक्तित्व के रूप में नाटक में आया है। पराक्रम के साथ कर्त्तव्य व संयम उसके व्यक्तित्व को गंभीरता प्रदान करते हैं। ध्रुवस्वामिनी की तरह की अपने प्रेम व कर्त्तव्य-मर्यादा के बीच उसके मन में भी लगातार द्वन्द्व चलता रहता है। नाटक में प्रारम्भ में यद्यपि प्रसाद ने उसे संयमी रूप में चित्रित किया है, जिसके कारण वह अपने प्रेम व राज्य पर अधिकार छोड़ देता है, लेकिन क्रमशः वह दोनों को प्राप्त करने में सफल होता है।
रामगुप्त-
- रामगुप्त, 'ध्रुवस्वामिनी नाटक का नायक तो नहीं है, किन्तु प्रधान पात्र अवश्य है। नाटक की समस्त घटनाएँ उसी के व्यक्तित्व के क्रिया- प्रतिक्रिया में जन्म लेती है। चन्द्रगुप्त के विपरीत उसके चरित्र में कई दुर्बलताएँ हमें देखने को मिलती हैं। अमानवीय, विलासी, कर्त्तव्यहीन, शंकालु, डरपोक, लिजलिजा, कायर, स्वार्थी रूप में उसका चरित्र गढ़ा गया है। उसके स्वार्थ की चरम परिणति होती है ज बवह शकराज प्रस्ताव के अनुसार अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज के पास भेजने का निर्णय कर लेता है। ऐसा निर्णय वह अपने कायर व स्वार्थी चरित्र के कारण ही ले पाता है। वह ध्रुवस्वामिनी से कहता है- “तुम्हारा नारीत्व - अमूल्य हो सकता है। फिर भी अपने लिए में स्वंय कितना आवश्यक हूँ, कदाचित तुम वह नहीं जानती हो।” (यह वक्तव्य उसके स्वार्थी चरित्र का संकेत है) इसी प्रकार एक जगह वह निर्लज्जतापूर्वक कहता है: “ तुम, मेरी रानी? नहीं, नहीं जाओ, तुमको जाना पड़ेगा। तुम उपहार की वस्तु हो । आज में तुम्हें किसी दूसरे को देना चाहता हूँ। इसमें तुम्हें आपत्ति हो ?” (क्लीवता व हकधर्मिक का संकेत)
3 देश-काल एवं परिवेश
- देश-काल एवं परिवेश से तात्पर्य नाटक की कथावस्तु में चित्रित समय व स्थान से है। हर रचना किसी-न-किसी समय और स्थान पर लिखी जाती है। समय और स्थान कोई भी हो, उस क परिवेश अवश्य होता है। देश-काल एवं वातावरण का तात्पर्य ऐसे ही चित्रण से है। देश-काल भिन्न-भिन्न होते हैं, इसलिए उसका परिवेश भी भिन्न-भिन्न हो जाता है। अपनी सुविधानुसार इसीलिए लेखक कभी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का चुनाव करता है तो कभी आधुनिक परिवेश को चुनता है। परिवेश का चुनाव कथ्य के अनुरूप भी होता है और रचनाकार की रूचि व व्यक्तित्व के अनुसार भी।
- 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक इतिहास पर आधारित है। इतिहास के उज्जवल अंश को अपनी कल्पना एवं संस्कृति के रंग से रंगकर जयशंकर प्रसाद उसे एक नवीन रूप दे देते है। यह नवीन रूप ‘इतिहास की पूर्ति' के रूप में हमारे सामने आता है। 'विशाख' की भूमिका में प्रसाद जी ने लिखा है-“ इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाति को अपना आदर्श संगठित करने के लिए अत्यंत लाभदायक होता है...... मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकांड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है जिन्होंने कि हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है। “ प्रसाद जी की यह दृष्टि संपूर्ण 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक में व्याप्त है। गुप्त युगीन परिस्थिति को प्रस्तुत करने के लिए प्रसाद जी ने उस युग के आचार-विचार, प्रयुक्त सामग्री, भाषा, युद्ध, राजमहल की आन्तरीक व्यवस्था व राजीति की घटना को ऐतिहासिक रूप से जोड़ा है ।