जैनेन्द्र कुमार लेखक परिचय- बाजार दर्शन
जैनेन्द्र कुमार लेखक परिचय
जन्म-- 1905
मृत्यु - 1990
जैनेन्द्र कुमार जीवन परिचय –
इनका जन्म सन् 1905 में अलीगढ़ (उत्तरप्रदेश) में हुआ था। इनकी मृत्यु 1990 में शिक्षा-प्रारंभिक शिक्षा हस्तिनापुर के जैन गुरुकुल में हुई। मैट्रिक पंजाब से उत्तीर्ण की उच्च शिक्षा काशी विश्वविद्यालय से हुई।
जैनेन्द्र कुमार व्यक्तित्व -
इनकी रचनाओं में कला, दर्शन, मनोविज्ञान, समाज, राष्ट्र मानवता की झलक है। रचनाएँ - इनकी प्रमुख रचनाओं में वातायन, एक रात, दो चिड़िया, फाँसी, नीलम देश की राजकन्या, पाजेब कहानी संग्रह हैं। परख, अनाम स्वामी, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, जयवर्द्धन, मुक्तिबोध - उपन्यास हैं. विचार प्रधान निबंध संग्रह में प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय, सोच-विचार, समय और हम.
जैनेन्द्र कुमार भाषागत विशेषताएँ –
जैनेन्द्र जी की भाषा के दो रूप दिखाई देते हैं-भाषा सरल, सुबोध रूप तथा संस्कृतनिष्ठ भाषा रूप। भाषा में मुहावरों और कहावतों का सजीव प्रयोग किया गया है। इनकी रचना में व्यंग्य, नाटकीयता और रोचकता की प्रधानता है। कथा साहित्य में व्याख्यात्मक और विचारात्मक शैली का प्रयोग हुआ। उपन्यास मनोवैज्ञानिक एवं कहानियाँ चिंतनपरक है। साहित्य में स्थान - साहित्य पुरस्कार, भारत-भारती सम्मान, भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।
बाजार दर्शन पाठ का सारांश
पहले मित्र पर पर्चेजिंग पावर का असर (प्रभाव ) -
लेखक का मित्र किसी साधारण
वस्तु को खरीदने जाता है किंतु जब लौटकर आता है तो ढेरों सामान के बंडल के साथ
लेखक द्वारा पूछे जाने पर कि ये सब क्या है? वे पत्नी को इस पूरी
खरीददारी का श्रेय देते हैं। फिजूलखर्ची के बाद पत्नी की ओर ली जाती है, किंतु मूल में एक और तत्व की महिमा विशेष होती है वह है मनीबँग अर्थात् पैसे
की गरमी या एनर्जी पैसा पावर है। अपने आस-पास मालटाल, मकान कोठी, माल असबाब सब पर्चेसिंग पावर के प्रयोग का ही रस है। लेकिन कुछ लोग संयमी होते
हैं, बुद्धि और संयमपूर्वक पैसा जोड़ते जाते हैं, मित्र ने बताया खरीददारी
के कारण उनका मनो खाली हो गया।
बाज़ार के आकर्षण से दूर दूसरा मित्र-
दूसरे मित्र के अनुसार बाजार शैतान का
जाल है सजा- सजाकर माल रखते हैं। बाज़ार आमंत्रित करता है। मुझे लूटो और लूटो सब
भूल कर मेरे रूप को देखो। बाजार का आमंत्रण मूक होता है। सुबह से गए गए बाजार से
शाम को लौटे मित्र खाली हाथ थे। उन्हें समझ ही नहीं आया क्या ? और क्या न ले ? मित्र को ठीक से पता नहीं है कि वो क्या लेना चाहते हैं। ऐसे में सब ओर की चाह
उन्हें घेर लेगी। परिणाम त्रास ही होगा, गति न होगी, न हो कर्म।
बाज़ार का जादू, खाली और बंद मन का भेद -
बाज़ार में जादू है। रूप का जादू। चुंबक का जादू लोहे
पर चलता है वैसे ही इसके जादू की भी मर्यादा है। जब मन खाली हो और जेब भरी हो तब
इसका जादू खूब चलता है। यह भी लूँ, वह भी लूँ यह जादू का असर
है। अतः बाज़ार जाए तो मन खाली न हो। मन खाली हो तो बाज़ार न जाए। बाजार की असली है
आवश्यकता के समय काम आना। मन खाली न रहे, इसका मतलब यह नहीं मन बंद
हो जाना चाहिए। जो मन बंद हो जाएगा वह शून्य हो जाएगा। यह सनातन भाव है यह अधिकार
सिर्फ परमात्मा को है। अर्थात् मनमानेपन की छूट मन को न हो।
भगत जी और बाजार -
भगत जी चूरन बेचने वाले हैं किसी भी दिन चूरन से उन्होंने
छः आने से ज्यादा पैसे नहीं कमाए । छः आने की कमाई पूरी हुई नहीं कि वे बाकी चूरन
बालकों को मुफ्त में बाँट देते हैं ऐसा भी नहीं कि कोई उन्हें पच्चीसवाँ पैसा भी
दे न ही कभी चूरन बनाने में लापरवाही हुई न ही कभी किसी को रोग हुआ। बाज़ार का
जादू भगत जी पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाया। उनके अडिग मन के आगे पैसा भीख माँगता कि
मुझे लो, पर भगत जी को पैसे पर दया नहीं आई, वे उसे रोता बिलखता छोड़
गए।
पैसे की व्यंग्य शक्ति —
पैसे की व्यंग्य शक्ति दुःखदायी होती है। पैदल चलते हुए पास से कोई धूल उड़ाती मोटर निकल जाए तो पैसे की व्यंग्यशक्ति यह सोचने को मजबूर कर देती हैं कि हाय किसी अमीर माँ- बाप के घर क्यों पैदा नहीं हुए। यह व्यंग्य शक्ति ऐसी होती है कि वह अपने के प्रति ही कृतघ्न कर सकती है। किंतु यही व्यंग्य शक्ति चूरन वाले के सामने स्वयं चूर-चूर हो जाती है। बाज़ार के प्रति भगत जी का दृष्टिकोण - लेखक के अनुसार भगत जी बाजार चौक में दिख जाए तो वे जय जयराम का अभिवादन स्वीकार करते हैं। हँसकर सबको पहचानते हैं। बाजार भाँति-भाँति के माल से भरा पड़ा था। लेखक देखते हैं कि तुष्ट मन से खुली आँख वह बाजार में चलते चले जाते हैं राह में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर आदि पड़ते हैं किंतु वह रुकते हैं वही पंसारी की दुकान पर जहाँ से उन्हें जीरा और काला नमक चाहिए। चाँदनी चौक का आमंत्रण व्यर्थ बिखरा रह जाता है। भगत जी से बेचारी चाँदनी चौक कल्याण चाहती रह जाती है।
बाजार की सार्थकता -
बाज़ार की सार्थकता उसी मनुष्य से है जो जानता है कि उसे क्या चाहिए। जो पर्चेजिंग पावर की शक्ति, शैतानी शक्ति या व्यंग्य की शक्ति रखने से है। वे न तो बाजार का लाभ उठा पाते हैं नहीं बाजार को सच्चा लाभ दे पाते हैं। वे लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। इससे सद्भाव घटता है और कपट बढ़ता है। आवश्यकताओं का आदान-प्रदान न होकर शोषण बढ़ता है। कपट सफल होता पर निष्कपट शिकार होता है। ऐसा बाजार मायावी शास्त्र है ऐसा अर्थशास्त्र अनीतिशास्त्र कहलाता है।