आधे अधूरे : पाठ एवं मूल्यांकन
आधे अधूरे : पाठ एवं मूल्यांकन प्रस्तावना
- भारतीय नाटकों की समृद्ध परम्परा भारत में भी रही है और परिश्चम में भी संस्कृत नाटककारों में कालिदास, भवभूति, अश्वघोष, शूद्रक, माद्य जैसे नाटककार रहे हैं। इसी प्रकार पश्चिमी नाटककारों की प्ररम्परा में जॉर्ज बर्नाड शॉ, इलियट, शेक्सपियर, सैम्युअल बैकेट, इब्सन जैसे महत्वपूर्ण नाटकार रहे है। इस प्रकार संस्कृत एवं पश्चिमी नाटककारों की लम्बी परम्परा का धाय हिन्दी नाटककार ने स्वीकार किया। इस प्रकार हिन्दी नाटक में अपनी आत्मा संस्कृत नाटकों की परम्परा को बनाया तथा अपने शरीर को आकार पश्चिम की नाटक परम्परा से ग्रहण किया।
- हिन्दी नाटकों की गिरिधरदास, गोपालचन्द्र दास, लक्ष्मण सिंह से होते हुए भारतेन्दु जी के व्यक्तित्व के साथ प्रकट हुई। भारतेन्दु जी के नाटकों पर एक ओर जहाँ लोक परम्परा का प्रभाव है, वहीं दूसरी आरे पश्चिमी नाटकों की परम्परा का भी । भारतेन्दु जी की परम्परा में ही जयशंकर प्रसाद का आगमन हुआ। जयशंकर प्रसाद के नाटकों पर संस्कृत के क्लासिकल नाट्यों एवं शेक्सपियर के नटकों पर प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। इसी प्रकार भुवनेश्वर, रामकुमार वर्मा की एकांकीयों पर इब्सन और बैंकेट के प्रभाव को स्वीकार किया गया है। नाटकों की इसी समृद्ध परम्परा में मोहन राकेश का आगमन होता है।
- मोहन राकेश के नाटकों में आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस व आधे-अधूरे हैं। प्रारंभिक दोनों नाटकों की तुलना में 'आधे-अधूरे' को मोहन राकेश जी ने आधुनिक प्रमुख जीवन समस्या पर केंद्रित किया है। प्रश्न यह है कि ' आधुनिक जीवन समस्या' क्या है? आधुनिक जीवन समस्या का अभिप्राय ऐसी समस्या से है, जो आधुनिकता की प्रक्रिया के दुष्परिणाम थे।
मोहन राकेश एवं आधे-अधूरे: परिचय
- मोहन राकेशः साहित्यिक परिचय- मोहन राकेश हिंदी साहित्य के अत्यंत प्रतिष्ठित रचनाकार हैं। 'नई कहानी' के प्रवर्तकों में उनका नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। यद्यपि उन्हें सर्वाधिक प्रसिद्धि उनके नाटकों से मिली, पर नाटकों के अलावा साहित्य की अन्य विधाओं ( कहानी, उपन्यास, निबंध, संस्मरण, जीवनी, रिपोर्ताज, डायरी आदि) में भी उन्होंने सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई। कहानी की वृहत्रयी का निर्माण उनके बिना अधूरा है। मोहन राकेश, कमलेश्वर व राजेन्द्र यादव इसके महत्त्वपूर्ण स्तंभ है। 'आषाढ़ का एक दिन', 'लहरों के राजहंस', व आधे-अधूरे' जैसे नाटक इनकी शोहरत को बुलंदी तक पहुँचाने का कार्य करते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मोहन राकेश एक बहुमुखी रचनाकार हैं जिन्होंने किसी एक विधा तक अपने को नहीं रखा।
- मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी, 1925 को अमृतसर में एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। इनका मूल नाम मदनमोहन गुगलानी था। पिता श्री करमचंद गुगलानी पेशे से वकील थे जिनमें साहित्य व संगीत के प्रति गहरा आकर्षण था, जिसका प्रभाव बचपन में ही मोहन राकेश पर भी पड़ा। इनका बचपन अमृतसर में जंडीवाली गली में संयुक्त परिवार में बीता, जहाँ का माहौल शोर-शराबे में भरा हुआ था। साथ ही घर में होने वाले कलह के चलते वचपन से ही ये अंतर्मुखी प्रकृति के थे। अल्पायु में ही पिता की मृत्यु से इन पर पारिवारिक भरण-पोषण का उत्तरदायित्व भी आ पड़ा। माँ का प्यार इनके जीवन को हर मोड़ पर सहारा देता रहा जो कि अत्यंत सहनशील, निश्छल, सौम्य व स्नेह से युक्त थी । माँ का प्रभाव इन पर इतना गहरा था कि ये आजीवन हर औरत में अपनी माँ के चेहरे की तलाश करते रहे। माँ का विश्वास इनके लिए सबसे बड़ा सम्बल था। माँ ही उनके जीवन में एक ऐसी व्यक्ति थी जिससे वह पूर्णतः संतुष्ट रहे । माँ की मृत्यु (16 अगस्त 1972) के तीन महीने पश्चात् ही मोहन राकेश (3 दिसम्बर 1973) ने दुनिया को अलविदा कह दिया। मानों माँ के बिना उनकी जिंदगी का कोई मतलब ही न हो। मोहन राकेश के व्यक्तित्व पर माँ की गहरी छाप थी।
- राकेश की आरंभिक शिक्षा अमृतसर के हिन्दू कॉलेज में हुई। आगे चलकर लाहौर के ओरियंटल कॉलेज से उन्होंने 1941 में 16 साल की उम्र में शास्त्री की उपाधि ग्रहण की। इसके बाद अंग्रेजी में बी.ए. व सत्रह साल की उम्र में संस्कृत में एम. ए. की उपाधि प्राप्त की, जिसमें इन्हें स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। भारत विभाजन के बाद जालंधर से इन्होंने हिंदी में एम.ए. किया जिसमें इन्होंने प्रथम स्थान प्राप्त किया। पारिवारिक दुश्चिंताओं के बावजूद इन्होंने शिक्षा से अपना नाता नहीं तोड़ा। जीवनयापन के दौरान इन्होंने 1947 ई. में डी.ए.वी. कॉलेज जालन्धर में प्राध्यापक का कार्य किया। यहाँ से त्यागपत्र देने के बाद शिमला में 'विशप काटन स्कूल' में नौकरी की, पर यहाँ भी कुछ वर्ष रहने के उपरांत पुनः डी.ए.वी. कॉलेज, हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर नियुक् हुए। फिर त्यागपत्र देने के बाद सन् 1962-93 में 'सारिका' पत्रिका के संपादक रहे। 1964 में यहाँ से भी इस्तीफा देने के बाद कुछ समय तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। अंत में इन्होंने स्वतंत्र लेखन को चुना। आपने उपरोक्त विवरण के दरम्यान देखा कि मोहन राकेश ताउम्र इधर से उधर भटकते रहे, कहीं भी टिककर नहीं रह पाये। समझौता भाव इनकी प्रकृति के विपरीत था, जो भी व्यवस्था पसंद नहीं आयी, वहाँ से इस्तीफा देकर चल देते थे। त्यागपत्र मानों हमेशा उनकी जेब में रहता हो। वे ताउम्र एक घर की तलाश करते रहे। जहाँ सुकून के पल बिता सकें, उनकी इसी खोज ने उन्हें खानाबदोश की हैसियत में ला खड़ा कर दिया। उनके सम्पूर्ण साहित्य में घर की इस तलाश को देखा जा सकता है।
- मित्रों का भरा-पूरा संसार अपने में समेटे मोहन राकेश का रचना संसार भी व्यापक फलक धारण किए हुए है। उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं को अपनी कलम से साधा और बाँधा। अनुवाद, संपादन, शोध कार्य और पत्रकारिता में महत्वपूर्ण योगदान दिया । नाटकों ने इनकी प्रसिद्धि में बेतहाशा वृद्धि की। साथ ही मोहन राकेश नई कहानी आन्दोलन के प्रवर्तकों में से एक थे। इस आन्दोलन ने हिन्दी कहानी को एक नई दिशा प्रदान की। 'आषाढ़ का एक दिन', ‘लहरों के राजहंस’, ‘आधे-अधूरे' व 'पैर तले की जमीन' इनके बहुचर्चित नाटक है। 'अंडे के छिलके', ‘सिपाही की माँ', 'प्यालियाँ टूटती हैं', 'बहुत बड़ा सवाल', 'शायद', 'रात बीतने तक', 'सुबह से पहले’, ‘उसकी रोटी', उनकी एकांकियों के नाम है। 'आखिरी चट्टान तक' इनका प्रसिद्ध यात्रा वृत्तांत है। इनके उपन्यास हैं अंधेरे बंद कमरे (1961), 'न आने वाला कल (1968), और अंतराल (1972)। परिवेश (1967), 'बकलम खुद' (1974)। 'मोहन राकेश की साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि' (1975) इनके निबंधों का संग्रह है। डायरी व पत्र लेखन जैसी विधाओं पर भी इन्होंने साधिकार लिखा।
- आपने उपरोक्त पंक्तियों में देखा कि मोहन राकेश की प्रसिद्धि का प्रमुख कारण उनके नाटक रहे। फिर भी तथ्य यह है कि वे कथा साहित्य और खासतौर पर नई कहानी के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। राकेश ने अपने लेखन की शुरुआत कहानी लेखन से की, जब सन् 1944 में 19 वर्ष आयु में इन्होंने अपनी पहली कहानी 'नन्हीं' लिखी, जो मरणोपरांत प्रकाशित हुई। इनकी पहली प्रकाशित कहानी ‘भिक्षु' (1946) को माना जता है। इनकी कहानियों का पहला संग्रह सन् 1956 में ‘इन्सान के खंडहर ' नाम से प्रकाशित हुआ । बहुचर्चित कहानियों में 'मिस पाल’, ‘आर्द्रा’, ‘दोराहा’, ‘छोटी सी चीज', 'धुँधला द्वीप', 'मरुस्थल', 'भूखे', 'फौलाद का आकाश’, ‘एक ठहरा हुआ चाकू', 'क्वार्टर', 'आदमी और दीवार', 'उर्मिल जीवन', 'सेफ्टी पिन’, ‘पाँचवे माले का फ्लैट', 'एक और जिंदगी', 'सोया हुआ शहर', 'परामात्मा का कुत्ता', 'फटा हुआ जूता', 'जानवर और जानवर', 'गुंझल', 'मवाली', 'बनिया बनाम इश्क', आदि ध्यातव्य हैं।
आधे अधूरेः परिचय-
'आधे-अधूरे' आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रमुख नाटक है। इसकी रचना मोहन राकेश जी ने 1969 में की थी। अपने पूर्ण के नाटकों के विपरीत राकेश जी ने इसे आधुनिक जीवन समस्या पर केन्द्रित करके नाटक को लिखा । 'आधे-अधूरे' के केंन्द्र मेंएक परिवार है। और परिवार मात्र एक बहाना है, क्योंकि उस परिवार के बहाने निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की जीवन समस्या पर प्रकाश डालना तथा उस पर हमें सोचने के लिए बाध्य करना ही नाटककार का उद्देश्य रहा है।