पृथ्वीराज की आँखें : पाठ एवं मूल्यांकन
पृथ्वीराज की आँखें प्रस्तावना
- एकांकी नाटक जाति की विधा है। एक अंक के नाटक संस्कृत शास्त्रों में भी मिलते है, लेकिन एकांकी अपने मूल रूप में पश्चिमी साहित्य से होकर भारत में आया। समाचार पत्रों के बीच मची होड़ ने एकांकी विधा को जन्म दिया था। एक अंक वाले संक्षिप्त नाटक को ही बाद में एकांकी कहा जाने लगा। एक अंक के साथ ही सीमित पात्र, एक दृश्य इसकी अन्य विशेषता है। एक दृश्य होगा तो स्वाभाविक है कि मूल घटना भी एक ही होगी। अतः एकांकी की मूल शर्तों को ध्यान में रखकर एकांकी की सफलता-विफलता का मूल्यांकन किया जा सकता है।
- रामकुमार वर्मा को हिंदी एकांकी का जनक कहा जाता है। इसका कारण क्या है? सर्वप्रथम तो इसका कारण यह है कि आप ने हिंदी साहित्य में एकांकी लेखन की विधिवत परम्परा प्राप्त की और दूसरे प्रमुख कारण यह कि आप की एकांकी का वर्ण्य विषय क्षेत्र अन्य एकांकीकारों से व्यापक व बहुविध रहा है। वर्मा जी के एंकाकी पर टिप्पणी करते हुए चन्द्रिका प्रसाद शर्मा ने टिप्पणी है: “डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपने एकांकियों में देशकाल और कार्य का संयोजन बड़ी कुशलतापूर्वक किया है। उन्होंने संकलनत्तय की ओर बराबर ध्यान दिया है। उनके पात्र अपने युग विशेष के • अनुकूल रहते हैं। उनके एकांकी पात्र मनोरंजन के लिए नहीं हैं। वे सोद्देश्य हैं। वे भारत के नवयुवकों और नवयुवतियों के समक्ष अपने देश के अतीत की गौरव- गाथाएँ प्रस्तुत कर उनको राष्ट्र-निर्माण की ओर उन्मुख करते हैं। उन्होंने 'दीपदान' की भूमिका में इस संदर्भ में लिखा है- “यदि आप मेरे नाटकों पर दृष्टि डालें तो आपकों ज्ञात होगा कि मैंने सामाजिक नाटकों की अपेक्षा ऐतिहासिक नाटक अधिक लिखे हैं। इसका कारण एक राष्ट्र की संस्कृति में मेरा विश्वास है जिसका विकास करने में हमारे ऐतिहासिक महापुरूषों का विशेष हाथ रहा है। हमारे ऐतिहासिक तथ्यनिरूपण में हमारे वर्तमान जीवन को एक नैतिक धरातल मिलता है। "
डॉ. रामकुमार वर्मा लेखक परिचय
डॉ. रामकुमार वर्मा जी का जन्म सन् 1904 ई. में सागर में हुआ था। कुमार नाम उनके बचपन का था। वर्मा जी के पिता की नौकरी में हमेशा स्थानान्तरण होता रहा, जिसके कारण आप के ऊपर विभिन्न संस्कृतियों का प्रभाव पड़ता रहा। बालकाल से ही आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। विभिन्न कलाओं और खेल-कूद में आप प्रारम्भ से ही अव्वल रहे। रामकुमार वर्मा जी की प्रारंभिक शिक्षा महाराष्ट्र, नरसिंहपुर और जबलपुर में हुई। प्रारंभिक काल में ही आपके ऊपर राष्ट्र प्रेम एवं संस्कृति औदात्य की भावना ने जन्म ले लिया था। राष्ट्रीय आन्दोलन में भी आप सक्रिय रूप से हिस्सेदारी करते रहे। इसी बीच आपका कास्य संस्कार भी जाग्रत होने लगा था। 1921 में आपकी प्रथम कविता प्रकाशित हुई थी। सन् 1925 में इण्टर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् आपने प्रभाग विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। सन् 27 में आपने बी.ए. और 1929 में आपने एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1929 में ही आपका विवाह लक्ष्मी देवी जी के साथ संम्पन्न हुआ। 18 अगस्त, 1929 में डॉ. रामकुमार वर्मा प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए। । सन् 30-31 तक वर्मा जी की कई रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी थीं। इस समय तक हिंदी साहित्य में आप लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे।
सन् 1938 में वर्मा जी का प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ 'हिंदी साहित्य का
आलोचनात्मक इतिहास' प्रकाशित हुआ।
इसके पश्चात् आपकी रचनाएँ क्रमशः प्रकाशित होती रहीं। हिंदी के कई प्रतिष्ठित
पुरस्कार प्राप्त आपको प्राप्त हुए। सन् 1991 में आपकी मृत्यु हुई। तब तक आपने हिंदी साहित्य की
महत्वपूर्ण सेवा की।
रचना परिचय
डॉ. रामकुमार वर्मा का साहित्य संसार विस्तृत है। कविता, नाटक, एकांकी, इतिहास एवं आलोचना कई विधाओं में आपका लेखन रहा है। साहित्य की बहुविध प्रतिभा का परिचय हम उनके कृतित्व विस्तार से सहज ही देख सकते हैं।
पृथ्वीराज की आँखें: मूल्यांकन
1 कथ्य विश्लेषण
डॉ. रामकुमार वर्मा जी की एकांकियों का कथ्य विषय प्रग्यः ऐतिहासिक भूमि बनी है। इस संदर्भ में उनके समकालीन जयशंकर प्रसाद जी की तरह ही वर्मा जी ने इतिहास और कल्पना के अंतसंबंध का सृजनात्मक प्रयोग किया है। इतिहास पर लिखकर भी वर्मा जी ने इतिहास के ज्ञात प्रकाश में छेड़छाड़ नहीं की है, उन्होंने इतिहास के अज्ञात अंशों को अपनी कल्पना और सृजन तत्व से पूर्ण किया है। आपके इस प्रकार के एकांकी हैं- सम्राट उदयन पर अभियोग, रात का रहस्य, मर्यादा की वेदी पर, कौमुदी महोत्सव, सोने का वरदान, चारूमित्रा, वासवदत्ता, स्वर्णश्री, विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त पराक्रमांक, कृपाण की धार, कादम्ब या वित्र, समयचक्र, राज्यश्री, भाग्य- नक्षत्र, पृथ्वीराज की आँखें, तैमूर की हार, दीपदान, दुर्गावती, दीने इलाही, शिवाजी, अभिषेक, ध्रुवतारिका, औरंगजेब की आखिरी रात, सरजा शिवाजी, पानीपत की हार, नाना फड़नवीस, कलंक रेखा, वाजिद अली शाह इत्यादि । ‘पृथ्वीराज की आँखें' एकांकी, महाकवि, चंद के ग्रन्थ 'पृथ्वीराज रासो' के छियासठ समयों के आधार पर रचित है। सरसठ समयो में पृथ्वीराज कही धनुर्विद्या का वर्णन और अंत में पृथ्वीराज के शब्द बेधी बाण से शहाबुद्दीन गोरी का वध होना लिखा है । इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर इस नाटक की रचना की गई। पृथ्वीराज की मृत्यु, गोरी की मृत्यु के संदर्भ में ऐतिहासिक साक्ष्य का अभाव है। पृथ्वीराज के शब्द वेधी बाण से गोरी की मृत्यु हुई थी या नहीं ? स्पष्टतया इसे हम नहीं कह सकते। एकांकी की भूमिका में हीं एकांकी का समय निर्देश कर दिया गया है ( तराइन के युद्ध के उपरांत)। स्पष्ट है कि युद्ध में पृथ्वीराज की हार तो इतिहास प्रसिद्ध है, किन्तु उसकी मृत्यु के संदर्भ में इतिहास मौन हैं हाँ साहित्य इस संदर्भ में हमें अवश्य संकेत करता है, जिस आधार पर आलोच्य एकांकी की रचना हुई है। विस्तार को ध्यान में रखते हुए 'पृथ्वीराज की आँखें' को छोटी एकांकी ही कहा जा सकता हैं इसमें गोरी की कैद में पृथ्वीराज की विवशता का वर्णन प्रमुखता से चित्रित हुआ है। पूर्वदीप्ति शैली में पृथ्वीराज का चन्द को अपनी आँख निकाले जाने की घटना का वर्णन है। चंद का गोरी से अपने ईनाम के रूप में पृथ्वीराज की शर-कुशलता का प्रदर्शन कराने को कहना भावी घटना का संकेत मात्र है। इस प्रकार पूर्व और भविष्य की घटनाओं के आधार पर एकांकी का कथ्य निर्मित किया गया है।
5.2 पात्र संरचना और समाज
प्रेमचन्द ने नहीं लिखा था कि कल्पना से गढ़े हुए पात्र में शक्ति नहीं होती है। यानी जीवन की उष्मा और ऊर्जा को धारण करने की योग्यता सजीव पात्रों में ही होती है। सांस्कृतिक-ऐतिहासिक पात्रों में सम्प्रेषण की अतिरिक्त ऊर्जा होती है, इसीलिए वे दीर्घजीवी बन पाते हैं।
एकांकी का पात्र परिचय देते हुए लिखा गया है: पात्र परिचय
पृथ्वीराज चौहान: दिल्ली और अजमेर का राजा
चंद : महाकवि और पृथ्वीराज का मित्र शहाबुद्दीन गोरी गोर का सुलतान (सन् 1992)
अरन्तर: सिपाही
काल: तराइन के युद्ध के उपरान्त
पात्र संरचना की दृष्टि से दो ही पात्र मुख्य रूप से हमारे सामने आते हैं। पृथ्वीराज और चंद माध्यम से एकांकी को संरचना प्रदान की गई है। पृथ्वीराज को एक वीर, प्रेमी युवक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। विगत काल की स्मृति और आधुनिक जीवन की पीड़ा के द्वन्द्व से उसके व्यक्तित्व का गठन किया गया है।
पृथ्वीराज के इस चरित्र को निम्नलिखित संवाद के प्रस्तुत किया गया है:-
““पृथ्वीराज: मत पूछो। कुछ मत पूछो। जिस क्षण ने पृथ्वीराज को पृथ्वीराज न रहने दिया, उसकी उस निर्दय क्षण की बात मत पूछो। बड़ी कठिनाई से उस कष्ट को भूला सका हूँ।” इसी प्रकार पृथ्वीराज चौहान के वीरत्व का संकेत करती पंक्ति देखें-
““पृथ्वीराज: यदि शेर को शेर ही रखना चाहते हो, तो चंद, कहाँ है तुम्हारी तलवार ? फाड़ दो मेरा यह वक्षःस्थल। पृथ्वीराज के गौरव से घिरे हुए इस प्राणी को अब प्राण की आवश्यकता नहीं।”
इसी प्रकार चंद को एकांकी में कवि, सहृदय, वीर एवं चतुर के रूप में प्रस्तुत ‘प्रणाम' । मैं आप पर नहीं, अपने ही शरीर पर आघात करूंगा, क्योंकि मैं आपकी यह दशा देख किया गया है।
“इस प्रकार चंद के कवि रूप का संकेत भी लेखक ने एकाकी के प्रारम्भ में ही दिया है। एकांकी के एक अन्य पात्र गोरी को क्रूर, आतत्ययी के रूप में चित्रित किया गया है।
3 संवाद की कीमियागरी
नाटक संवाद चरित्र, देशकाल और व्यक्तित्व को प्रकट करने की क्षमता से युक्त होने चाहिए। इस दृष्टि ‘पृथ्वीराज की आँखें' अपनी संवाद-शैली के कारण नाटकीय गठन को अपने में लिए हुए है। जैसे एकांकी का प्रारंभिक संवाद देखिए-
“पृथ्वीराज: मूल पूछो। कुछ मत पूछो। जिस क्षण ने पृथ्वीराज को पृथ्वीराज न रहने दिया, उसकी-उस निर्दय क्षण की- बात मत पूछो। “इस पर चन्द्र का प्रतिउत्तर देखें-
चंद्र: (दयाई होकर) महाराज, यह आपका शरीर, जिससे शौर्य पसीना बहकर बहा करता था, आज इतना निस्तेज है ! क्या गोर के आदमी इतने निर्दय होते हैं ! एक शक्तिशाली राजा के साथ इतना पशुत्व ! "
उपरोक्त संवाद में एक और जहाँ पूर्व में पृथ्वीराज का शौर्य, उसकी परिस्थिति, गोरी की निर्दयता, पृथ्वीराज पर हो रहे अत्याचार इन सब का वर्णन लेखक ने कुछ-एक पंक्तियों में ही कर दिया है।
4 परिवेश और देशकाल का संदर्भ
डॉ. रामकुमार वर्मा जी ने काल का संदर्भ देते हुए लिखा है- 'तराइन के युद्ध के उपरांत ' स्पष्ट है कि तराइन का द्धितीय युद्ध ( जिसमें मुहम्मद गोरी की विजय और पृथ्वीराज चौहान की पराजय हुई थी) सन् 1992 में हुआ था । देशकाल - परिवेश का संकेत करते हुए एकांकीकार ने लिखा है: “सन्ध्या का समय । गोर के किले में पृथ्वीराज कैद हैं। वह पैंतालिस वर्ष के प्रौढ़ व्यक्ति हैं। उनके शरीर से शौर्य अब भी फूट रहा है। चढ़ी हुई मूंछें और रोबीला चेहरा। उनके हाथ साकलों से बँधे हैं अ बवह घुटनों पर दोनों हाथ रक्खे हुए सिर झुकाए बैठे हैं। सांकल का एक छोर उनके पैरों तक लटक रहा है, जो हाथों के संचालन मात्र से ही झूलकर शब्द करने लगता है। उनके बिखरे हुए हैं। डाढ़ी बढ़ आई है। वस्त्र बहुत मैले हो गए हैं। कहीं-कहीं जलने के निशान भी पड़ गए हैं। घुटनों के पास फटा हुआ चूड़ीदार पाजामा है, जिस पर रक्त के धब्बे दिखाई पड़ रहे हैं, पैर में पुराना जूता है, जिस पर गर्द छा रही है। पृथ्वीराज आँखें बंद किए हैं। सामने खिड़की से हवा आ रही है, जिससे उनके बाल हिल रहे हैं। कुछ समय पहले थोड़ा पानी बरस चुका है, इसलिए वायु में कुछ शीतलता आ गई है। दाहिनी ओर महाकवि चंद बैठा हुआ हैं उसकी आयु पृथ्वीराज की आयु के लगभग है। उसके कपड़े साफ-सुथरे हैं। वेश में सादगी है, पर मुख दुःख की रेखाएँ अंकित हैं। वह पृथ्वीराज को करूणापूर्ण आँखों से देख रहा है। कुछ क्षणों तक दोनों स्थिर बैठे रहते हैं। फिर वेदना से सिहरकर पृथ्वीराज नीचे मुख किए ही, व्यथित स्वर में बोलता है। बोलने को साथ-साथ हिलने से साँकल बज उठती है।.