विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन का सिद्धान्त
विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन का सिद्धान्त- प्रस्तावना
- भारतीय दर्शन दो भागों में विभक्त है- आस्तिक तथा नास्तिक।
- आस्तिक दर्शन वेद के समर्थक हैं ये षड्विध हैं- न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग तथा मीमांसा और वेदान्त।
- नास्तिक दर्शन वेद के निन्दक हैं ये हैं- चार्वाक, जैन तथा बौद्ध।
- षड्विध आस्तिक दर्शनों में वेदान्त दर्शन का विशिष्ट स्थान है।
- वेदान्त दर्शन की भी कई शाखायें हैं। अद्वैत वेदान्त दर्शन के पश्चात् वेदान्त दर्शन के कौन- कौन प्रमुख सिद्धान्त हैं उन सिद्धांतों का परिचय इस इकाई में प्राप्त करेंगें।
विशिष्टाद्वैत का उद्भव
- श्रुतियों पर आधारित तथा प्रस्थानत्रयी की व्याख्या के रूप में पल्लवित हिन्दू दर्शन को ही वेदान्त दर्शन के नाम से जाना जाता है। आचार्य शंकर के अद्वैतवाद के बाद रामानुज का विशिष्टाद्वैत, मध्व का द्वैत तथा निम्बार्क का द्वैताद्वैत आदि वेदान्त दर्शन का विकास हुआ।
- विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन को विकसित करने का श्रेय आचार्य रामानुज को है। इनका जन्म दसवीं शताब्दी के आसपास माना जाता है। रामानुज के दर्शन के प्रचार ने भक्तिमार्ग को पुष्ट किया ।
विशिष्टाद्वैत का साहित्य
विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन का उद्भव बोधायन रचित "ब्रह्मसूत्रत्ति" से माना जाता है। स्वयं रामानुज कहते हैं-
यथार्थं सर्वं विज्ञानम्
इति वेदविदां मतम्। श्रुतिस्मृतिभ्यः सर्वस्य सर्वात्मव प्रतीतितः ।।
- रामानुज ने प्रस्थानत्रयी (श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद् तथा ब्रह्मसूत्र) भाष्य की श्रृंखला में "श्रीभाष्य” की रचना की। रामानुज के अन्य रचित ग्रन्थ हैं- वेदान्तसार, वेदान्तदीप, वेदार्थसंग्रह। वेदार्थसंग्रह उपनिषद वाक्यों की विशिष्टाद्वैतपरक व्याख्या तथा भक्ति सिद्धान्तों का दार्शनिक निरूपण करता है। गद्यत्रय एवं नित्यग्रन्थ श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के समर्थन में लिखे गये अन्य ग्रन्थ हैं। सुदर्शन भट्ट ने श्रीभाष्य पर श्रुतप्रकाशिका टीका लिखी।
ज्ञान मीमांसा
1 ज्ञान
- रामानुज ज्ञान को द्रव्य मानते हैं। द्रव्य के दो प्रकार हैं- जड़ और अजड़। रामानुज ने ज्ञान को 'अजड़' माना है क्योंकि वह चेतन जीव और जड़ जगत् दोनों से भिन्न है। ज्ञान जड़ पदार्थों से भिन्न है क्योंकि वह उनके समान स्वचेतन और स्वयंवेद्य नहीं है, तथा ज्ञान न स्वयं को और न पदार्थों को जान सकता है। ज्ञान कभी स्वयं के लिये नहीं होता, वह सदा परार्थ अर्थात् आत्मा या ज्ञाता के लिये होता है। वह स्वयं को और ज्ञेय पदार्थों को प्रकाशित करता है, जिससे आत्मा उन्हें जान सके। रामानुज के अनुसार आत्मा ज्ञाता है जो ज्ञानस्वरूप और ज्ञानाश्रय दोनों है, किन्तु ज्ञानमात्र नहीं है। ज्ञान सत् पदार्थ का ही होता है, और पदार्थ के अनुरूप होता है। इसे सत् ख्याति या यथार्थख्याति कहते हैं।
- सत्ख्यातिवाद- अर्थात् सभी विज्ञान यथार्थ हैं। विज्ञान की ज्ञान मीमांसा में यह एक सबसे महत्वपूर्ण बात है। वे सभी ज्ञान को यथार्थ मानते हैं। उनके अनुसार प्रमा के ज्ञान का कोई न कोई विषय होता है जिसकी सत्ता को वह प्रकाशित करता है। इसलिये उसे असत्य या मिथ्या नहीं कह सकते हैं। रामानुज के अनुसार भ्रम ज्ञान और असत्य ज्ञान भी सत्य होता है क्योंकि उसका विषय असत्य नहीं होता। इसलिये भ्रम भी सत्य होता है। रस्सी में सर्प की प्रतीति कपोल कल्पना नहीं है, क्योंकि रस्सी और सर्प दोनों की सत्ता अनुभवसिद्ध है।
- प्रमा - वस्तुओं के रूप का प्रकाशक ज्ञान बुद्धि के द्वारा इन्द्रियों के सहयोग से अपने प्रकाश्य के संबंध में करता है, प्रकाश्य वस्तु की वास्तविक अवस्था और व्यावहारिक उपयोगिता का ज्ञान प्रमा कहलाता है। रामानुजाचार्य के अनुसार प्रमा या सम्यक् ज्ञान सदा सविकल्पक होता है, अतः किसी निर्विकल्पक वस्तु का ज्ञान असम्भव है।
2 ज्ञान के साधन (प्रमाण)
- प्रमा ज्ञान का पर्याय है। प्रमा की उत्पत्ति के कारण को प्रमाण कहते हैं। रामानुज ज्ञानोत्पत्ति के लिये प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द, इन तीनों प्रमाणों को मान्यता देते हैं, एवं अन्य प्रमाणों को इन्हीं में अन्तर्भूत मानते हैं ।
- प्रत्यक्ष- साक्षात्कारिणी प्रमा का कारण प्रत्यक्ष है। साक्षात्कारिणी प्रमा वस्तु और इन्द्रियों के सन्निकर्ष से उत्पन्न होती है। रामानुज निर्विकल्प और सविकल्प प्रत्यक्ष का भेद स्वीकार करते हैं, किन्तु न्याय के विपरीत, वे यह मानते हैं कि निर्विकल्प प्रत्यक्ष निष्प्रकारक या निर्धर्मक ज्ञान नहीं हैं, किन्तु उसमें भी जाति-धर्म का ग्रहण होता है, यद्यपि यह ज्ञात नहीं होता है कि यह इसका जातिधर्म है जो इस जाति के समस्त व्यक्तियों में समान रूप से पाया जाता है। वस्तु का दूसरी, तीसरी बार प्रत्यक्ष सविकल्पक होता है जिसमें जातिधर्म का जातिधर्म के रूप में ज्ञान होता है।
- अनुमान- रामानुज द्वारा अनुमान का निरूपण न्याय के समान ही है। अनुपलब्ध को उपलब्ध कराना ही अनुमान का फल है। अनुमान प्रत्यक्ष के समान सविशेष विषयक है। अनुमिति ज्ञान का कारण है। अनुमान दो प्रकार के होते हैं- स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान। स्वार्थानुमान व्यक्ति अपने स्वयं के लिये करता है। परार्थानुमान दूसरों को बताने के लिये किया जाता है। परार्थानुमान पाँच चरणों में पूर्ण होता है- प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन। अनुमान के आगमनात्मक तथा निगमनात्मक प्रकारों का भी वर्णन श्रीभाष्य में प्राप्त होता है।
- शब्द- लौकिक और वैदिक भेद से दो प्रकार के हैं। रामानुज के अनुसार शब्द का अर्थ वैदिक अर्थात् वेद ही है। नैयायिकों की तरह वे वेद को आप्त नहीं मानते। इन्होंने परम तत्व का निरूपण करने वाली स्मृतियों और पुराणों को भी वेद जैसा प्रामाणिक माना है। शब्द प्रमाण में रामानुज ने पांचरात्र आगम को वेद के समकक्ष रखा है। वे ज्ञानकर्म-समुच्चयवादी हैं। वे यह मानते हैं कि मीमांसा और वेदान्त एक ही शास्त्र के दो भाग हैं। ब्रह्मजिज्ञासा के पूर्व धर्मजिज्ञासा आवश्यक है। सत्कर्म से चित्तशुद्धिहोती और इसका बोध होता है कि केवल कर्म से मोक्ष नहीं मिल सकता, उसके लिये ब्रह्मज्ञान आवश्यक है।