तत्व-मीमांसा :विशिष्टाद्वैत (विशिष्ट अद्वैत)
विशिष्टाद्वैत (विशिष्ट अद्वैत)
- रामानुजाचार्य के अनुसार द्वैत-रहित अद्वैत और अद्वैत-शून्य द्वैत दोनों ही कोरी कल्पना हैं क्योंकि भेद के बिना अभेद और अभेद के बिना भेद सिद्ध नहीं होता। अतः दोनों सदा साथ रहते हैं और इनमें पार्थक्य सम्भव नहीं है। तत्त्व सदा द्वैतविशिष्ट-अद्वैत होता है। इसी का संक्षिप्त रूप विशिष्टरूप है। द्वैत विशेषण है, अद्वैत विशेष्य है और विशेषणयुक्त विशेष्य को विशिष्ट कहते हैं। यद्यपि रामानुज ने द्वैत और अद्वैत दोनों को सत्य और अपृथक् माना है तथापि वे दोनों को समान स्तर के नहीं मानते। अद्वैत मुख्य है और द्वैत गौण है। अद्वैत आत्मरूप है, द्रव्य है, अङ्गी है। द्वैत शरीररूप है, गुण है, अङ्ग है। अद्वैत विशेष्य है, द्वैत विशेषण है। अतः द्वैत अद्वैत पर आश्रित रहता है। द्वैत अद्वैत का विशेषण बन कर ही उससे अपृथक् रहता है। यह विशिष्टाद्वैत है जो द्वैताद्वैत से भिन्न है क्योंकि उसमें द्वैत और अद्वैत दोनों समान रूप से सत्य और एक ही स्तर के होते हैं।
- रामानुज चित्, अचित् और ईश्वर, इन तीनों तत्त्वों को (तत्त्व-त्रय) मानते हैं। चित् चेतन भोक्ता जीव है। अचित् जड़ भोग्य जगत् है। ईश्वर दोनों का अन्तर्यामी है। चित् और अचित् दोनों नित्य और परस्पर- स्वतन्त्र द्रव्य हैं। किन्तु दोनों ईश्वर पर आश्रित हैं और सर्वथा उनके अधीन हैं। दोनों स्वयं में द्रव्य हैं, किन्तु ईश्वर के गुण या धर्म हैं। दोनों ईश्वर के शरीर हैं और ईश्वर उनका अन्तर्यामी आत्मा है। जीव अपने शरीर का आत्मा है, किन्तु ईश्वर का शरीर है जो जीव का भी आत्मा है। शरीर और आत्मा का सम्बन्ध अपृथक् सिद्ध है जो आन्तरिक अपार्थक्य सम्बन्ध है। रामानुज के अनुसार 'शरीर' वह है जो आत्मा द्वारा धारण किया जाये (धार्य), नियमन किया जाये (नियाम्य) और अपनी अर्थसिद्धि के लिये साधन के रूप में प्रवृत्त किया जाये (शेष), तथा आत्मा' वह है जो शरीर को धारण करे (धर्ता), नियमन करे (नियन्ता) और जो साधन रूप में प्रवृत्त होने वाले शरीर का साध्य हो (शेषी)। यह सब चेतन और अचेतन विश्व परमपुरूष ईश्वर द्वारा नियाम्य, धार्य तथा शेष होने के कारण उनका शरीर है। ईश्वर चिदचिद्विशिष्ट है। चिदचिद् ईश्वर के विशेषण, धर्म, गुण, प्रकार, अंश, अंग, शरीर, नियाम्य, धार्य और शेष हैं, तथा ईश्वर उनके विशेष्य, धर्मी, द्रव्य, प्रकारी, अंगी, शरीरी या आत्मा, नियन्ता, धर्ता और शेषी हैं। चित् और अचित् दोनों ईश्वर के समान नित्य तत्त्व हैं, किन्तु ईश्वर से बाह्य और पृथक् नहीं हैं। ये ईश्वर का शरीर हैं। ईश्वर में सजातीय और विजातीय भेद नहीं है क्योंकि ईश्वर के समान या भिन्न कोई अन्य स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है। किन्तु ईश्वर में स्वगत भेद विद्यमान हैं क्योंकि उनका शरीर नित्य एवं परस्पर भिन्न चित् और अचित् तत्त्वों से निर्मित है। ईश्वर का अपने चिदचिद्-शरीर से सम्बन्ध स्वाभाविक और सनातन है।
तत्वत्रय
- ईश्वर रामानुजाचार्य के ईश्वर के निरूपण में तीन बिन्दु मुख्य हैं। प्रथम, ईश्वर और ब्रह्म एक ही हैं। ब्रह्म या ईश्वर सविशेष सगुण हैं तथा चिदचिद्-विशिष्ट हैं। ईश्वर इस चिदचिद्रूप विश्व का अन्तर्यामी आत्मा है तथा इस सकल जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-लय का कारण भी है। रामानुज के अनुसार ईश्वर जगत् का अभिन्न-निमित्तोपादान कारण है। चित् या जीव एवं अचित् या जड़ तत्त्व दोनों नित्य पदार्थ हैं तथा नित्य होने के कारण उत्पत्ति-विनाशरहित हैं। अतः सृष्टि का तात्पर्य इनके स्थूलरूप धारण करने से है और प्रलय का तात्पर्य इनके सूक्ष्मरूप में चले जाने से है। प्रलयकाल में चित् और अचित् अपनी सूक्ष्मावस्था में रहते हैं, यह ब्रह्म की कारणावस्था है। सृष्टि के समय चिदचित् स्थूल रूप धारण कर लेते हैं, यह ब्रह्म की कार्यावस्था है।
- ईश्वर हेयगुणरहित और अशेषकल्याणगुणसागर है। वे नारायण या वासुदेव हैं। लक्ष्मी उनकी पत्नी हैं। शुद्धसत्त्वनिर्मित वैकुण्ठ उनका निवास है। वे सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और करुणासागर हैं। उनके दिव्यगुण नित्य, शुद्ध और अनन्त हैं। उनका ज्ञान, आनन्द, प्रेम, ऐश्वर्य, बल, शक्ति, कृपा आदि अपार हैं। ईश्वर एक हैं, किन्तु अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के कारण वे स्वयं को पाँच रूपों में प्रकट करते हैं- अन्तर्यामी, पर, व्यूह, विभव और अर्चावतार। चिदचिद्विशिष्ट ईश्वर या ब्रह्म का उपनिषदों में प्रतिपादन उपलब्ध है।
- चित् या चेतन जीव यद्यपि ईश्वर का विशेषण, प्रकार या गुण है, तथापि वह स्वयं चेतन द्रव्य है। जीव एक नहीं, अनेक हैं। जीव नित्य, जन्म-मरणरहित और अणुरूप है। वह शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन, अहंकार और बुद्धि से विलक्षण है। वह स्वप्रकाश चेतन द्रव्य है और वह अपने धर्मभूत ज्ञान का आश्रय है। साथ ही वह नित्य स्वचेतन ज्ञाता या द्रष्टा है, अतः ज्ञानस्वरूप भी है। ज्ञान उसका आवश्यक, अनिवार्य और अपृथक्सिद्ध स्वरूप है। अतः उसे एक साथ ज्ञानस्वरूप और ज्ञानाश्रय कहा जाता है। वह स्वभाव से आनन्दरूप है।
रामानुज ने चित् या जीवात्मा के तीन प्रकार माने हैं-
1. नित्य-मुक्त जीव जो कभी बद्ध नहीं रहे, जो अविद्या, कर्म और प्रकृति से सदा मुक्त हैं एवं जो वैकुण्ठ में सदा भगवत्-सेवा में रत रहते हैं। ये शेष, गरूड, विश्वक्सेन आदि हैं।
2 मुक्त जीव जो बन्धन से मुक्त हो चुके हैं।
3. बद्ध जीव जो अविद्या और कर्म के कारण जन्म-मरण रूपी संसारचक्र में घूम रहे हैं तथा विविध दुःख भोग रहे हैं।
चित्त और ईश्वर
- जीव और ईश्वर में विशेषण-विशेष्य, गुण-द्रव्य, अंग-अंगी और शरीर-आत्मा का सम्बन्ध है तथा जीव की सार्थकता ईश्वर का अविभाज्य शुद्ध अंग बनकर ईश्वरीय ज्ञान और आनन्द का अनुभव करने में है। रामानुज जीव और ईश्वर में भेद, अभेद या भेदाभेद सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते। उन्होनें इन तीनों सम्बन्धों का खण्डन किया है। शुद्ध भेद या शुद्ध अभेद (भेदशून्य अभेद) कल्पनामात्र है, क्योंकि भेद और अभेद सदा साथ-साथ रहते हैं जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता। अद्वैत विशेष्य है जो सदा द्वैतविशेषण से विशिष्ट रहता है। यही विशिष्टाद्वैत नाम की सार्थकता है। चिदचित्-विशिष्ट ईश्वर ही ब्रह्म है। रामानुज ने समवाय सम्बन्ध का भी खण्डन किया है क्योंकि उनके अनुसार समवाय बाह्य सम्बन्ध है और अनवस्थादोष से दूषित है। रामानुज ने जीव और ईश्वर में अपृथक्सिद्धि नामक सम्बन्ध स्वीकार किया है जो आन्तर और वास्तविक सम्बन्ध है जीव ईश्वर पर सर्वथा आश्रित है और ईश्वर से अपृथक् है। अचित् ज्ञान शून्य तथा विकारास्पद को अचित् कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है.
1. मिश्र सत्व -
- इसमें सत्व, रजस् तथा तमस् तीनों गुण मिले रहते हैं, इसे प्रकृति या माया कहते हैं। यह जड़, भोग्य है, जगत् का उपादान कारण है। नित्य जड़ होते हुए भी यह ईश्वर का शरीर है। सृष्टि ईश्वर की लीला है और उनका संकल्प मात्र है।
2. शुद्ध सत्व या नित्य विभूति -
- रजस्तमः शून्य होने से अप्राकृत और दिव्य है। यह नित्य, अतिशयतेजोमय, ज्ञान एवं आनन्द का जनक, शुद्धसत्वरूप द्रव्यविशेष है। ईश्वर का विग्रह, नित्य तथा मुक्त शरीरों के शरीर, बैकुण्ठ लोक, भगवान् के विभव आदि भी इसी शुद्ध सत्व से निर्मित है। रामानुज के अनुसार आत्मा शरीर के बिना नहीं रहता, अतः मोक्ष दशा में कर्मजन्य प्राकृत देह पात के बाद मुक्तपुरुष को भगवत्संकल्प से निर्मित अप्राकृत शुद्धसत्वशरीर प्राप्त होता है।
3. सत्व शून्य या काल -
काल सत्वशून्य जड़ द्रव्य है। दिक् को आकाश से अभिन्न माना गया है जो प्रकृति जन्य है। इस प्रकार रामानुज ने षड् द्रव्य स्वीकार किये हैं-
- चेतन- चित् और ईश्वर।
- जड़- प्रकृति और काल ।
- अजड़- धर्मभूतज्ञान और नित्यविभूति ।
- श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्
- ये षड् द्रव्य अचित्, चित् तथा ईश्वर इन तीन तत्त्वों के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाते हैं।
सृष्टि प्रक्रिया-
- रामानुज के अनुसार अव्यक्त का विकास सांख्य दर्शन के अनुसार ही मानते हैं। अव्यक्त का प्रथम विकार महत् है, महत् से अहंकार की उत्पत्ति होती है। अहंकार तीन प्रकार के होते हैं- सात्विक, राजस् तथा तैजस्। अहंकार के सात्विक रूप से पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन ग्यारह इन्द्रियाँ उत्पन्न होती है। मन उभयात्मक है, यह अन्तरिन्द्रिय है, यह ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों दोनो में आता है। किन्तु रामानुज ने मन को ज्ञानेन्द्रियों के साथ रखा है। मन को इसके कार्य के अनुसार कई नाम दिये जाते हैं- मन जब निर्णय करता है तो यह बुद्धि है, अज्ञान से शरीर को जब आत्मा मानता है तो अहंकार है, जब चिन्तन या विचार करता है तो चित्त है। रामानुज भूतादि की क्रमिक उत्पत्ति मानते हैं।
- इस प्रकार उपर्युक्त चौबीस तत्वों से जीवात्मा और परमात्मा के लिये भोग्य वस्तुओं, भोग के साधन और भोग के स्थानों का निर्माण होता है। निर्माण का यह कार्य ब्रह्म के द्वारा होता है। सृष्टि के पूर्व की स्थिति को अद्वारक सृष्टि कहते हैं तथा ब्रह्म द्वारा की गई सृष्टि सद्वारक सृष्टि कहलाती है। सद्वारक सृष्टि की प्रक्रिया पंचीकरण है।
पंचीकरण-
- पंच महाभूतों का पूर्ण विकास हो जाने के बाद उनमें से प्रत्येक महाभूत के दो दो बराबर भाग किये जाते हैं। पुनः आधे भाग को चार-चार भागों में विभाजित किया जाता है। अपने आधे भाग के साथ शेष बचे चार महाभूतों के 1/8 भाग को जोड़ने से एक महाभूत का निर्माण होता है, चूँकि एक महाभूत में पाँचों तत्वों की उपस्थिति होती है अतः इसे पंचीकरण कहते हैं तथा जिस महाभूत में जिस तत्व की अधिकता होती है उसी के नाम से वह जाना जाता है।
जगत्- रामानुज अचित् द्रव्य से जगत् को उत्पन्न मानते हैं क्योकि अचित् एक नित्य द्रव्य है। सृष्टि के मूल में परब्रह्म का संकल्प है। ईश्वर के संकल्प से ही सृष्टि की उत्पत्ति होती है। इसलिए जगत् के उपादान तथा निमित्त दोनो कारण की सत्ता नित्य एवं सत्य है। ईश्वर और उसकी अंशभूता प्रकृति का कार्यरूप जगत् भी सत्य है। सत् कारण से सत् कार्य की उत्पत्ति होती है, क्योंकि कारण और कार्य में केवल अवस्था भेद का अंतर है। कारण स्वयं कार्य रूप में परिवर्तित हो जाता है। एक ही पदार्थ एक अवस्था विशेष में कारण कहलाता है और दूसरी अवस्था में कार्य-
कारणभूतद्रव्यस्यावस्थान्तरापत्तिरेव हि कार्यता- श्रीभाष्य 1/1/5
- इसे ही सत्कार्यवाद कहतें हैं अर्थात् कार्य अपनी उत्पत्ति से पूर्व अपने कारण में सत् रूप में विद्यमान रहता है, यहाँ कारण से कार्य का आविर्भाव होता है। रामानुज का सिद्धांत सत्कार्यवाद का सिद्धांत है। इसके अनुसार चित् और अचित् ही जगत् के रूप में प्रकट होते हैं, चित् और अचित् विकसित होकर नाम रूप धारण कर जगत् की संज्ञा प्राप्त कर लेते हैं। ईश्वर इन दोनो चित् और अचित् के साथ अपृथक् रूप से जुड़ा रहता है अर्थात् ब्रह्म भी कारण से कार्य रूप में परिवर्तित होता है। अतः जगत् ब्रह्म की स्थूलावस्था सिद्ध होती है। रामानुज जगत् को ब्रह्मात्मक मानते हैं। जगत् ब्रह्म में ही स्थित है, ब्रह्म ही उसका कारण है और वही उसका गन्तव्य भी है। जगत् की सत्ता पारमार्थिक है क्योंकि यह सविशेष ब्रह्म की विभूति है। आचार्य शंकर ने जगत् के मिथ्यात्व की सिद्धि के लिये माया सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं, रामानुज शंकर के इस सिद्धांत को मिथ्यावाद कहते हैं तथा इसका खण्डन करते हैं।
मायावाद के खण्डन में रामानुज के द्वारा दिये गये तर्क को अनुपपत्ति कहते हैं ये सात हैं-
आश्रयानुपपत्ति, तिरोधानानुपपत्ति, स्वरूपानुपपत्ति, अनिर्वचनीयानुपत्ति, प्रमाणानुपपत्ति, निर्कानुपपत्ति तथा निवृत्यनुपपत्ति ।
बन्धन और मोक्ष-
- भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय जन्म-मृत्यु-चक्र को बन्धन तथा इसकी आत्यंतिक समाप्ति को मोक्ष नाम देते हैं। जीवों का बन्धन अविद्या और कर्म के कारण है। बन्ध और मोक्ष दोनों वास्तविक हैं। कर्म के कारण जीव का देह, प्राण, इन्द्रिय, अन्तःकरण आदि से सम्बन्ध होता है और यही उसका बन्धन है। शुद्ध चेतन जीव कर्म में क्यों फँसता है ? इसका कोई उत्तर नहीं है सिवाय इसके कि कर्म का जीव के साथ सम्बन्ध अनादि है। मोक्ष के लिये जीव को इस कर्म-मल को सर्वथा नष्ट करना आवश्यक है। ज्ञानकर्म-समुच्चय इसमें सहायक है। सत्कर्म चित्त को शुद्ध करते हैं। ज्ञान से चित्, अचित् और ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। रामानुजाचार्य के अनुसार परज्ञान और पराभक्ति एक ही है और यही मोक्ष का कारण है। यह परज्ञान सविकल्प शाब्दबोध या बौद्धिक ज्ञान से भिन्न है, अन्यथा वेदान्तशास्त्र के सभी अध्येता मुक्त हो जायेंगे। परा भक्ति भी प्रपत्ति और स्मृति या उपासना का भगवत्साक्षात्काररूप चरम उत्कर्ष है जो भगवान् के अनुग्रह, कृपा या प्रसाद से ही सम्भव है। पर-ज्ञान या परा-भक्ति ईश्वर के स्वरूप का साक्षात् अनुभव है जो उनकी कृपा से ही सम्भव है। सत्कर्म और बौद्धिक ज्ञान का समुच्चय भक्ति का साधन है। भक्ति का अर्थ है प्रपत्ति और स्मृति। प्रपत्ति या शरणागति भगवत्प्राप्ति का सरल एवं सुनिश्चित साधन है।
भगवान् का वचन है-
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच।।
- अर्थात् 'सब धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुमको तुम्हारे सब पापों से मुक्त कर दूँगा।' भागवत में श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन, इस नवधा भक्ति में आत्मनिवेदन को शरणागति या प्रपत्ति की पराकाष्ठा बताया है। भागवत में कहा गया है कि जिस प्रकार भूख से व्याकुल पक्षियों के छोटे बच्चे, जिनके पंख अभी नहीं निकले हैं, अपने घोंसलों में माता की आतुरता से प्रतीक्षा करते हैं, जिस प्रकार छोटे बछड़े (बच्चे भी) भूख से व्याकुल होकर माता के दूध की प्रतीक्षा करते हैं, जिस प्रकार विरहिणी प्रिया अपने बाहर गये हुये प्रियतम के दर्शन के लिये दुःख से व्याकुल होकर तड़पती है। उसी प्रकार हे कमलनयन! यह हमारा मन आपके दर्शन के लिये तड़प रहा है। प्रपत्ति भगवान् के प्रति उत्कट प्रेम है, प्रेमा भक्ति है। रामानुज ने इसके साथ 'धुरवा स्मृति' को भी जोड़ दिया है। स्मृति का अर्थ है उपासना या ध्यान। धुरवा स्मृति में प्रेम और ज्ञान दोनों का संगम है। यह उत्कट प्रेम और निरन्तर चिन्तन का मिलन है। रामानुजाचार्य के अनुसार भक्ति का अर्थ है प्रपत्ति और धुरवा स्मृति। इस भक्ति का चरम उत्कर्ष भगवदनुग्रह से भगवान् के साक्षात् अनुभव में होता है। यही परा-भक्ति है, यही पर-ज्ञान है, यही ब्रह्म-साक्षात्कार है, यही मोक्ष है। आत्मा का आत्मस्वरूप बोध ही उसका मोक्ष है। जन्म मृत्यु से परे हो जाना मोक्ष है। जीवात्मा के कर्म नष्ट हो जाते हैं। यदि कर्म फल का नाश हो जाय तो शरीर सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं रहती है। इसलिये कर्मों और उनके फलों का आत्यन्तिक उच्छेद मोक्ष है। ईश्वर साक्षात्कार तथा पूर्ण ज्ञान की अवस्था में मोक्ष प्राप्त होता है अर्थात् जीवात्मा को परम पद प्राप्त हो जाता है।
मोक्ष के उपाय-
- मोक्ष प्राप्ति के लिये सर्वोच्च साधन ईश्वर स्वयं है। इस संसार रोग की दवा ईश्वर की कृपा है। कर्म, ज्ञान, भक्ति इत्यादि सब साधन ईश्वर की कृपा प्राप्ति के लिये ही किये जाते हैं। कर्म और ज्ञान भक्ति के सहकारी हैं। तत्व ज्ञान के द्वारा जीवात्मा को अपने शुद्ध स्वरूप का बोध हो जाता है। ज्ञान और कर्म से हम अपने कर्म फलों का नाश कर सकते हैं।
भक्ति-
- भगवत्साक्षात्कार के लिये चित् को ईश्वर में लगा देना ही भक्ति है। बुद्धि ही भक्ति का रूप ग्रहण कर लेती है, बुद्धि परक होने के कारण भक्ति को विशेष प्रकार का ज्ञान कहते हैं। भक्ति ज्ञान की पराकाष्ठा है। ज्ञान की चरम परिणति भगवान के प्रति परम प्रेम में होती है, इसे ही भक्ति कहते हैं। रामानुज ने ध्यान, उपासना, वेदना (ज्ञान) को भक्ति का पर्याय कहा है। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग में समन्वय स्थापित करते हुए रामानुज कहते हैं कि भक्ति-रूप ज्ञान विशेष की उपपत्तिपर ईश्वराधन से प्राप्त ज्ञान से युक्त होकर कर्म या निष्काम कर्म करने से भक्ति योग की सिद्धि हो जाती है।
- आत्मावलोकन के लिये पातंजल योग में उल्लिखित यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का अष्टांग योग साधन भक्ति का ही रूप है। इसके अतिरिक्त अर्चन, वन्दन, पादसेवन इत्यादि भागवत् दर्शन में मान्य क्रियाएँ भी आत्मावलोकन में सहायक हैं। अष्टांग योग की चरमोपलब्धि समाधि को रामानुज दर्शन में साधन ही माना गया है। श्रद्धावान लभते ज्ञानम्
शरणागति-
- भगवान् के प्रति भक्ति एवं प्रेम का मानव मात्र को अधिकार है। ज्ञान ईश्वर की कृपा से मिल सकता है। रामानुज दर्शन के अनुसार ईश्वर की कृपा प्राप्त करना ही मोक्ष का अन्यतम साधन है। ईश्वरार्पित होना ही प्रपत्ति अथवा शरणागति है। जब जीवात्मा ईश्वर को परम लक्ष्य के रूप में जान लेता है और उसे ही मोक्ष का सर्वोत्तम उपाय समझने लगता है तब वह शरणागति की मनःस्थिति में होता है अर्थात् ईश्वर की शरण में, ईश्वर का कृपा पात्र अपने आप को मानने लगता है। रामानुज ने शरणागति को भक्त के लिये आवश्यक प्रथम चरण और भक्ति की चरम परिणति माना है। सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन और उसके विभिन्न सम्प्रदाय औपनिषदिक सिद्धान्त की व्याख्या करते हैं, परं मौलिकता की दृष्टि से रामानुज का विशिष्टाद्वैत दर्शन शंकराचार्य के दर्शन के समकक्ष माने जाते हैं। दोनो ही वेदान्त दर्शन एक दूसरे के पूरक तथा एक ही सिद्धान्त के दो पहलू हैं। दोनो अद्वैत मत के समर्थक हैं। रामानुज का वेदान्त दर्शन सविशेष ब्रह्म और जीव-जगत् के बीच शरीरात्मभाव सम्बन्ध द्वारा एकेश्वरवाद पर बल देता है। रामानुज को भक्ति परक वेदान्त दर्शन को पुष्ट एवं विकसित करने का पूरा श्रेय जाता है। परवर्ती भक्ति परक वेदान्त दर्शनों जैसे मध्वाचार्य का द्वैतवाद, निम्बार्क का द्वैताद्वैतवाद, वल्लभ का शुद्धाद्वैतवाद तथा चैतन्य का अचिन्त्यभेदाभेदवाद में रामानुज दर्शन की छाप देखी जा सकती है। विशेष रूप से ब्रह्म और जीव तथा ब्रह्म और जगत् के सम्बन्ध की अवधारणाओं में, ज्ञान आदि के सम्बन्ध में मौलिक चिन्तन प्रस्तुत करने के कारण, भारतीय चिन्तन धारा में उनके विशिष्टाद्वैत दर्शन का विशिष्ट स्थान है।