पाश्चात्य दर्शन और भारतीय दर्शन
(Western Philosophy and Indian Philosophy in Hindi )
पाश्चात्य दर्शन और भारतीय दर्शन
- पाश्चात्य चिंतन के क्षेत्र में प्रयुक्त अंग्रेजी का 'फिलॉसफी' (Philosophy) शब्द ग्रीक भाषा के दो शब्दों से व्युत्पन्न है। इन्हें क्रमश: 'फिलॉस' (Philos ) और 'सोफिया' (Sophia) के नाम से जाना जाता है। 'फिलॉस' पद का प्रयोग ग्रीक भाषा में प्रेम अथवा अनुराग (Love) के अर्थ में किया गया है। इसी प्रकार 'सोफिया' का प्रयोग ज्ञान या विवेक (Knowledge or Wisdom) को निर्दिष्ट करने के लिए किया गया है।
- दर्शनशास्त्र में 'ज्ञान' (Knowldedge) शब्द का प्रयोग कभी-कभी 'विवेक' (Wisdom ) के अर्थ में भी किया जाता है। किन्तु व्यवहार में 'ज्ञान' (नॉलेज) का प्रयोग साधारण अर्थ (Ordinary Sense) के साथ-साथ वैज्ञानिक संदर्भों में भी किया जाता है। वस्तुतः पाश्चात्य दर्शन में 'नॉलेज' शब्द का प्रयोग भारतीय प्रमाण मीमांसा में प्रयुक्त 'प्रमा' (Valid or True Cognition), अर्थात् वैध अथवा सत्य ज्ञान के अर्थ में किया गया है। व्यवहार में इसका (नॉलेज का ) अनुवाद संस्कृत या हिन्दी भाषा में प्रचलित ज्ञान के अर्थ में किया जाता है। किन्तु भारतीय दार्शनिकों ने ज्ञान का वर्गीकरण 'सत्य ज्ञान' के साथ-साथ 'असत्य ज्ञान' के रूप में भी किया है। तकनीकी दृष्टि से 'नॉलेज' का अनुवाद 'प्रमा' के अर्थ में करना अधिक समीचीन माना गया है। पश्चिम में 'फिलॉसफी' का प्रयोग इसी नॉलेज अथवा विवेक के प्रति बौद्धिक प्रेम के अर्थ में किया गया है। विवेक के प्रति बौद्धिक प्रेम एक प्रकार की जिज्ञासा का द्योतक है। प्राचीन ग्रीक विचारकों ने सृष्टि एवं मानव जीवन के मूल आधारों की खोज के साथ-साथ ग्रहों, नक्षत्रों, तारा - मंडल, गणित आदि के विषय में जानने की उत्सुक्ता (Curiosity) व्यक्त किया। उन्होंने ब्रह्मांड (Universe) और मानव जीवन के स्वरूप एवं लक्ष्य से संबंधित प्रश्नों के उत्तरों का अध्ययन फिलॉसफी के अन्तर्गत किया।
- किन्तु पश्चिम में फिलॉसफी की कोई निश्चित परिभाषा देना संभव नहीं है क्योंकि प्राचीन काल से लेकर बीसवीं शताब्दी तक वहाँ दार्शनिक चिंतन का स्वरूप और लक्ष्य विभिन्न युगों और परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहा है। इसके फलस्वरूप वहाँ इसका प्रयोग तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, मूल्यमीमांसा, विश्लेषण, द्वितीय क्रम की गवेषणा ( The Second Order - Inquiry ), निकषमीमांसा (Criteriology) आदि के संदर्भ एवं अ में किया जाता रहा है। मध्यकाल में ईसाई धर्म से प्रभावित दार्शनिक सिद्धांतों को छोड़कर 'फिलॉसफी' का प्रयोग 'समालोचनात्मक अनुशीलन' के ही अर्थ में किया गया है। किन्तु समालोचनात्मक चिन्तन (Critical Refelction) पर आधारित दार्शनिक ज्ञान स्वयंकल्पित एवं स्वत: प्रेरित अथवा स्वत:स्फूर्त होता है। इससे स्पष्ट है कि दार्शनिक अनुशीलन किसी के ऊपर बलपूर्वक थोपा नहीं जा सकता है। यह ज्ञान के प्रति बौद्धिक अनुराग और श्रद्धा के बिना संभव नहीं है। अतः पश्चिम में फिलॉसफी को ज्ञान अथवा विवेक के प्रति (बौद्धिक या सुक्तिसंगत ) प्रेम अथवा श्रद्धा कहा गया है। इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति विवेक के प्रति श्रद्धा एवं प्रेम से युक्त होता है, वही सद्गुणी भी हो सकता है। इसीलिए सुकरात ने ज्ञान (विवेक) और (अभेद) स्थापित किया। सद्गुण में तादात्म्य (अभेद ) स्थापित किया .
- भारतीय चिन्तन परम्परा में प्रयुक्त 'दर्शन' का शाब्दिक अर्थ 'दृष्टि' (Vision) है। यह साधारण अर्थ में प्रयुक्त 'देखना' (Seeing and Looking) क्रिया से भिन्न है। व्यवहार में ' दर्शन करना' और 'देखना' दोनों का प्रयोग अलग-अलग संदर्भों में किया जाता है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसका अर्थ तत्त्व का दर्शन, तत्त्व-ज्ञान अथवा तत्त्व का साक्षात्कार है। इस तत्त्व साक्षात्कार का लक्ष्य मानव जीवन के समस्त दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति, अर्थात् समूल नाश है। इस प्रकार भारतीय दर्शन में इसे परा विद्या कहा गया है। दूसरे शब्दों में तत्त्व - साक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, ब्रह्म-विद्या, निर्वाण एवं संबोधि, मोक्ष, कैवल्य, अपवर्ग आदि के साक्षात्कार या विवेक के लिए 'दर्शनशास्त्र' का प्रयोग किया जाता रहा है। इसके विपरीत भारत में लौकिक जीवन से सम्बन्धित ज्ञान को अपराविद्या के अनतर्गत सम्मिलित किया गया है। उल्लेखनीय है कि भारतीय परम्परा में दर्शनशास्त्र धर्म (Religion) से स्वतंत्र नहीं है। यहाँ धर्म और दर्शन में अलगाव नहीं है। भारतीय दर्शन उस विवेक की खोज है जिसको जान लेने से जो अज्ञात है, वह सब ज्ञात हो जाता है। इस दृष्टि से दर्शन अशेष ज्ञान या सम्यक् ज्ञान है जिसको जान लेने से किसी वस्तु का ज्ञान शेष नहीं रहता है। उपनिषद् काल से लेकर आज तक भारतीय दर्शन अनेक सम्प्रदायों, विचारधाराओं और मतमतान्तरों में विभक्त रहा है। किन्तु सभी सम्प्रदायों के दार्शनिक अनुशीलन का लक्ष्य समस्त दुःखों से पूर्णतया मुक्त होना रहा है। प्राच्य एवं पाश्चात्य परम्पराओं में दर्शनशास्त्र अपने मौलिक स्वरूप में ईश्वरमीमांसा (Theology ) और विज्ञान (Science) दोनों से भिन्न है। ईश्ववरमीमांसा अथवा धर्म (Religion) का प्रतिपाद्य विषय भाषा, तर्कबुद्धि एवं सामान्य मानव-अनुभूति से परे है। इसके विपरीत दर्शनशास्त्र के अन्तर्गत तर्क (Logic) और भाषा अपरिहार्य हैं। उन्हें दर्शन का उपकरण कहा जाता है। यहाँ तक कि धर्मपरायण दार्शनिक भी धार्मिक तत्त्व की व्याख्या एवं मूल्यांकन के लिए तार्किक तथा भाषिक आकलों या पेरामीटरों (Parameters of Logic and language) का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार दर्शन विज्ञान (Science) से भी भिन्न है क्योंकि विज्ञान आनुभविक प्रेक्षण (Empirical Observation) और परीक्षण (Experiment) का सहारा लेकर तथ्यों का विश्लेषण करता है। विज्ञान एक प्रकार का तथ्यात्मक अध्ययन है। इसके विपरीत दर्शनशास्त्र विज्ञानों की पूर्वमान्यताओं का विवेचन, विश्लेषण और मूल्यांकन करता है। दर्शन (Philosophy) के अन्तर्गत मनुष्य के कर्मों के औचित्य, ज्ञान के प्रतिमानों, सौन्दर्य, उदात्त (Sublime), सत्ता शुभ आदि के मानदण्डों का मूल्यात्मक अध्ययन किया जाता है। अतः दर्शन को एक मूल्यात्मक (Evaluative ) और निकषमीमांसीय विज्ञान (Criteriological Science) कहा जा सकता है। धर्मशास्त्र और विज्ञान के विपरीत दर्शन 'द्वितीय क्रम की गवेषणा' (Second Order Inquiry ) है। संभवतः रसल ने दर्शनशास्त्र के इस स्वरूप को ही ध्यान में रखकर कहा है- दर्शनशास्त्र की स्थिति ईश्वरमीमांसा और विज्ञान के बीच (मध्यवर्ती) की है।' (Philosophy is something intermediate between Theology and Science........a No Man's land), वे विज्ञान और दर्शन के अंतर को स्पष्ट करते हुए कहते हैं - ' विज्ञान वह है जिसे आप जानते हैं, जबकि दर्शनशास्त्र वह है जिसे आप नहीं जानते हैं' (अर्थात् जिसे जानने की मनुष्य में जिज्ञासा होती है) (Science is what you know, Philosophy is what you don't know ) इससे स्पष्ट है कि पाश्चात्य एवं प्राच्य दोनों ही परम्पराओं में दर्शनशास्त्र की चरम परिणति ज्ञान (विवेक) की खोज में हुई। किन्तु ज्ञान की खोज करने में दोनों के उद्देश्य अलग-अलग रहे हैं। पाश्चात्य दर्शन की मूल प्रेरणा मानव जीवन में व्याप्त सभी दुःखों से मुक्ति प्राप्त करने में रही है।
- हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि समाजिक परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ दार्शनिक चिंतन की दिशा और दार्शनिकों के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन होता रहता है। इस स्थल पर दर्शनशास्त्र की कोई एक सुनिश्चित परिभाषा देना न तो संभव है और न आवश्यक है। यहाँ पर हमारा लक्ष्य पाश्चात्य और भारतीय दार्शनिक परम्पराओं में अन्तर स्पष्ट करना है।
- पाश्चात्य दर्शन का विज्ञान से घनिष्ठ सम्बन्ध है। ऐतिहासिक दृष्टि से सभी विज्ञानों का आधार और स्रोत दर्शनशास्त्र है। सभी विज्ञान दर्शन की संतान हैं क्योंकि आरम्भ में किसी विज्ञान का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। किन्तु ज्ञान के विकास क्रम में धीरे-धीरे प्रत्येक विज्ञान अपने मूल आधार दर्शनशास्त्र से पृथक् होले लगा। इस प्रकार विभिन्न विज्ञान दर्शन से स्वतंत्र विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुए । यही कारण है कि भारतीय दर्शन के विपरीत पाश्चात्य दर्शन में प्रत्येक वैज्ञानिक खोज दार्शनिक चिन्तन को गति प्रदान करती रही है। वहाँ प्रत्येक नवीन दार्शनिक विद्या ने विज्ञान के लिए प्रेरणा प्रदान किया। भौतिकशास्त्र के कुछ प्रसिद्ध विद्वानों ने इसे स्वीकार किया है कि यदि विज्ञानों की पद्धति का सम्यक् अनुसरण किया जाय तो उसका पर्यवसान दर्शनशास्त्र में होता है। पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित दार्शनिक और वैज्ञानिक दर्शनशास्त्र से विज्ञान को अलग रखने के पक्ष में नहीं हैं। अपने अन्तिम प्रयोजन की दृष्टि से विज्ञान और दर्शनशास्त्र एक-दूसरे के विरोधी नहीं हो सकते हैं। पाश्चात्य दर्शन की अधिकांश विचारधाराएँ यूक्लिड की ज्यामिति, न्यूअन की भौतिकी और डार्विन के विकासवाद से प्रभावित रहीं हैं। इससे स्पष्ट है कि विज्ञान और दर्शनशास्त्र की निकटता और सामंजस्य पाश्चात्य दर्शन की एक प्रमुख विशेषता है। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य परम्परा में प्रारम्भ से ही सत् के विवेचन के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक एवं भौतिक (प्राकृतिक ) जगत् की समस्याओं का विवेचन एवं मूल्यांकन होता रहा है। विज्ञान से प्रभावित होने के कारण पाश्चात्य दर्शन जहाँ एक ओर प्रकृतिवादी (Naturalistic ) और बौद्धिक दृष्टि से युक्त है, वहीं दूसरी ओर धर्म (Religion) से भी प्रभावित है। पाइथागोरस के युग से ही प्राचीन ग्रीक विचारधारा पर आर्फिक धर्म का प्रभाव रहा है। इसके अतिरिक्त बहुदेववाद एवं अन्य धार्मिक सम्प्रदायों का प्रभाव भी समाज में व्याप्त रहा है। इस कारण से पाश्चात्य दर्शन प्रकृतिवादी होते हुए भी मूल्यपरक जीवन दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित है।
- इसके विपरीत भारतीय दर्शन पर धर्मशास्त्र, मोक्षशास्त्र, योगशास्त्र और व्याकरण-दर्शन का जितना अधिक प्रभाव पड़ा है, उतना गणित, विज्ञान और ज्योतिषशास्त्र का प्रभाव नहीं पड़ा है। किन्तु यह अवश्य है कि भारतीय तत्त्वमीमांसकों ने भी दर्शन और विज्ञान के सम्बन्ध के विषय में मौलिक कल्पना किया है। यद्यपि भारतीय विचारकों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही आध्यात्मवादी रहा है, तथापि वे लौकिक जगत् एवं वैज्ञानिक चिंतन के प्रति उदासीन नहीं हैं। कुछ भारतीय समालोचकों और विद्वानों ने यह दावा किया है कि भारतीय ऋषियों ने लौकिक विज्ञानों की उन्नति के लिए उतना ही ध्यान दिया था, जितना कि ज्ञान की अन्य विधाओं को विकसित करने का प्रयत्न किया । किन्तु भारतीय दार्शनिकों ने विज्ञान को दर्शनशास्त्र का सहायक माना है। उनके अनुसार दर्शनशास्त्र परा विद्या है। जीवन का परम श्रेय आत्म-ज्ञान अथवा मोक्ष है। दर्शन परम श्रेय (मोक्ष) की प्राप्ति का साधन है। ज्ञान की अन्य शाखाएँ जो व्यावहारिक सत्य की खोज करती है, उन्हें अपरा विद्या के नाम से जाना जाता है। वे परमार्थ तक पहुँचने में असमर्थ हैं। इस दृष्टि से समस्त विज्ञान मानव जीवन और जगत् के भिन्न-भिन्न अंशों का ज्ञान प्रदान करते हैं। व्यावहारिक विज्ञानों का लक्ष्य मनुष्य के लौकिक जीवन को सुखमय और क्लेश-रहित बनाना है। वे दुःख के किसी विशेष प्रकार को ही दूर कर सकते हैं। वे सभी प्रकार के दुःखों का आत्यन्तिक निरोध (निवारण) करने में असमर्थ हैं। भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन का अन्तिम लक्ष्य दुःखों का पूर्ण विनाश है। अतः भारतीय आचार्यों ने विज्ञानों के पथ-प्रदर्शक के रूप में दर्शनशास्त्र की परिकल्पना की है।
- यह उल्लेखनीय है कि भारत में सांख्य-योग, न्याय एवं वैशेषिक सम्प्रदाय वैज्ञानिक और तार्किकदृष्टि से युक्त हैं, परन्तु बौद्धों और वेदान्तियों की अतिशय आध्यात्मिक एवं वैराग्यवादी प्रवृत्ति के समक्ष उनकी विचारधारा गौण हो गयी। बौद्धों औ वेदान्तियों ने प्राकृतिक दृष्टिकोण की उपेक्षा किया। यद्यपि चार्वाकों का दर्शन विशुद्ध रूप से भौतिकवादी, सुखवादी एवं लौकिक है, तथापि उनका उग्र भौतिकवाद एवं भोगवाद बौद्धों और वेदान्तियों के आध्यात्मवाद. वैराग्यवाद और संन्यासवाद के समक्ष टिक न सका।
- पाश्चात्य दर्शन में परम्परागत एवं समष्टिगत चिन्तन की अपेक्षा वैज्ञानिक और व्यष्टिगत चिंतन का अधिक महत्त्व रहा है। वहाँ दार्शनिक प्रवृत्त्यिाँ प्रायः दार्शनिकों के व्यक्तित्व पर आश्रित रही हैं। वहाँ जितने दार्शनिक हुए हैं वे सभी अपने पूववर्ती दार्शनिकों के सिद्धांतों का आलोचनात्मक विश्लेषण करते हैं। वे किसी परम्परा को केवल आस्था के आधार पर नहीं स्वीकार करते हैं। इसके विपरीत भारतीय विचारधारा में दार्शनिक परम्पराओं एवं सम्प्रदायों का विशेष महत्त्व रहा है। भारतीय दर्शन में खंडन-मंडन की जो प्रवृत्ति विभिन्न सम्प्रदायों के बीच में रही है वह प्रवृत्ति पाश्चात्य दर्शन में विभिन्न दार्शनिकों के बीच में रही है। उदाहरण के लिए डेकार्ट, स्पिनोजा और लाइबनित्ज बुद्धिवादी होते हुए भी द्रव्य के स्वरूप एवं परिभाषा के बारे में एकमत नहीं है। वे एक-दूसरे के मतों का खंडन करते हैं। इसी प्रकार लॉक के अनुभववाद को अपनाते हुए भी बर्कले ओर ह्यूम के दार्शनिक निष्कर्ष अलग-अलग हैं। वस्तुतः पाश्चात्य दार्शनिक अपनी मौलिकता एवं नवीनता को जितना अधिक महत्त्व देते हैं उतना किसी परम्परा की स्थिरता को महत्त्व नहीं देते हैं। इससे स्पष्ट है कि पश्चिम की दार्शनिक विचारधारा में दृष्टि एवं परम्परा की अपेक्षा द्रष्टा और मौलिकता को अधिक महत्त्व दिया गया है।
- विज्ञान से प्रभावित होने के कारण पाश्चात्य दर्शन विश्लेषणात्मक पद्धति को अपनाकर दर्शनिक समस्याओं पर विचार करता है। सुकरात और प्लेटो के युग में ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का अध्ययन-अध्यापन संश्लिष्ट रूप में दर्शनशास्त्र के अन्तर्गत ही किया जाता था। किन्तु कालान्तर में ( अरस्तू के समय से ही) उनका विवेचन पृथक् पृथक् शाखाओं के रूप में होना प्रारमी हुआ। बौद्धिक विकास के फलस्वरूप शनैः शनैः दर्शनशास्त्र एवं विज्ञान की अनेक शाखाओं एवं विधाओं का विकास हुआ। इसके फलस्वरूप पाश्चात्य दर्शन में तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, सौनदर्यशास्त्र, मनोविज्ञान, विज्ञान का दर्शन (Philosophy of Science) इतयादि का अध्ययन अलग-अलग शास्त्रों के रूप में किया जाने लगा। विभिन्न समस्याओं के अध्ययन के लिए पाश्चात्य दार्शनिकों के द्वारा अपनायी गयी विश्लेषणात्मक पद्धति का लक्ष्य जटिल समस्याओं का सरलीकरण है। इसका लक्ष्य विचारों में स्पष्टता और सुभिन्नता लाना है। किसी समस्या के सम्यक् बोध के लिए विश्लेषण की इस पद्धति को उपयुक्त माना गया है। इस प्रकार पाश्चात्य दर्शन बुद्धिवादी और प्रकृतिवादी होने के साथ-साथ विश्लेषणात्मक भी रहा है। उनकी विश्लेषणात्मक पद्धति पाश्चात्य दर्शन की द्वैतवादी सांस्कृतिक चेतना और उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिणाम है।
- इसके विपरीत भारतीय दर्शन का दृष्टिकोण संश्लेषणवादी है। इसके अन्तर्गत तत्त्वशास्त्रीय, धार्मिक, नैतिक, प्रमाणमीमांसीय मनोवैज्ञानिक तर्कशास्त्रीय आदि विधाओं का समिश्रण हो गया है। इसके फलस्वरूप भारतीय दर्शन में दार्शनिक चितन और आस्थापरक धार्मिक मान्यताओं एवं मूल्यों में परस्पर अतिव्यापन (Overlapping ) अथवा घपला हो जाता है। वे परस्पर इस प्रकार मिश्रित हो गये हैं कि उन्हें एक-दूसरे से पृथक् करना कठिन हो जाता है। वास्तव में, दर्शनशास्त्र के अन्तर्गत मनुष्य की तार्किक, भाषिक, प्रमाणमीमांसीय एवं मूल्यमीमांसीय विधाओं को ही सम्मिलित करना समीचीन होगा। भारतीय दर्शन का संश्लेषणात्मक दृष्टिकोण समन्वयात्मक है। यह भारतीय संस्कृति की विविधता में एकता एवं समरसता की विशेषता का प्रभाव है। समसामयिक युग में पाश्चात्य दर्शन ने अनेक भारतीय विद्वानों को प्रभावित किया है। इस प्रभाव के फलस्वरूप पाश्चात्य दर्शन की विश्लेषणात्मक पद्धति का प्रयोग भारतीय दर्शन के संदर्भ में भी करने का प्रयास किया गया है। पाश्चात्य दार्शनिक पद्धति से प्रभावित भारतीय विचारकों में प्रो० बालकृष्ण मतीलाल, प्रो० पी०टी० राजू, प्रो० संगमलाल पाण्डेय, प्रो० नन्द किशोर देवराज, प्रो० दयाकृष्ण, प्रो० शिबजीवन भट्टाचार्य आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पश्चिम की विश्लेषणात्मक पद्धति से प्रभावित भारतीय विद्वानों ने इसका प्रयोग भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों के संदर्भ में भी करने का प्रयास किया। वैशेषिकों का दार्शनिक चिन्तन विश्लेषणात्मक है। उनका विलेषण वस्तुओं स्वरूप का विश्लेषण है। उनकी पदार्थमीमांसा एक प्रकार के दार्शनिक विश्लेषण पर आधारित है। इसी प्रकार मीमांसा समप्रदाय का दर्शन भाषा - विश्लेषण (Analysis of Language) है। नैयायिकों ने तर्कणा, ज्ञान, प्रमाण आदि का विश्लेषण किया है । किनतु भारत में विश्लेषण को दर्शन नहीं माना गया है। इस परिप्रेक्ष्य में सांख्य योग एवं वेदान्त की परम्परा महत्त्वपूर्ण है। वे दर्शन का प्रयोग दृष्टि (Vision) के अर्थ में करते हैं। यहाँ 'दृष्टि' का अर्थ 'सम्यक् ज्ञान' है। यह 'सम्यक् ज्ञान तत्त्व - साक्षात्कार या आत्म-साक्षात्कार (Self- Realisation) है। यद्यपि प्राच्य अथवा पाश्चात्य किसी भी परम्परा के 'दर्शनशास्त्र' का अभेद 'विश्लेषण' से करना युक्तिसंगत नहीं है, तथापि दर्शन की विश्लेषण आत्मक उद्धति की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। यह एक वैज्ञानिक पद्धति है। वस्तुत: विश्लेषण की विधि का उपयोग पाश्चात्य दर्शन का एक गुण है। विचारों की स्पष्टता के लिए विश्लेषण की इस पद्धति को भारतीय दर्शन के संदर्भ में अपनाना दर्शनशास्त्र के तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है।