सत्यजित राय लेखक परिचय :अपू के साथ ढाई साल
सत्यजित राय लेखक परिचय
जीवन परिचय-
- भारतीय सिनेमा को कलात्मक ऊँचाई प्रदान करने वाले फिल्मकारों में सत्यजित राय का नाम अग्रयों है। सत्ययति एय का जन्म कोलकाता (पश्चिम बंगाल) में 1921 ई. में हुआ था। इनके निर्देशन में रहलो फोन फिल्म पथेर पांचाली (बांग्ला) 1955 ई. में प्रदर्शित हुई। इससे उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बरिष्ट प्राप्त हुई। इन्होंने फिल्मों के जरिए केवल फिल्म विधा को समृद्ध हो नहीं किया, अपितु इस माध्यम के बारे में निर्देशकों और जालोचकों के बीच एक समझ विकसित करने में भी अपना योगदान दिया।
- सत्यजित राय के कार्यों को देखते हुए इन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा गया। इन्हें फ्रांस का लेजन डो ऑनर, जीवन को उपलब्धियों पर ऑस्कर और भारतरत्न सहित फिल्म जगत् का हर महत्वपूर्ण सम्मान मिला। 1990 ई. में इनका स्वर्गवास हो गया।
सत्यजित राय प्रमुख रचनाएँ-
- सत्यजित राय फिल्म निर्देशक तो थे ही, वे बाल व किशोर साहित्य भी लिखते थे। इनकी प्रमुख रचनाएँ प्रो. शंकु के कारनामे, सोने का किला, जहाँगीर की स्वर्ण मुद्रा, बादशाही अँगूठी आदि हैं।
सत्यजित राय प्रमुख फिल्में -
- अपराजिता, अपू का संसार, जलसाघर, देवी चारुलता, महानगर, गोपी गायेन, बाका बायेन, पथेर पांचाली (बांग्ला); शतरंज के खिलाड़ी, सद्गति (हिंदी)।
सत्यजित राय साहित्यिक विशेषताएँ -
- सत्यजित राय ने तीस के लगभग फीचर फिल्में बनाई। इनकी ज्यादातर फिल्में साहित्यिक कृतियों पर आधारित हैं। इनके पसंदीदा साहित्यकारों में बांग्ला के विभूति भूषण बंद्योपाध्याय से लेकर हिंदी के प्रेमचंद तक शामिल हैं। फिल्मों के पटकथा-लेखन, संगीत-संयोजन एवं निर्देशन के अलावा इन्होंने बांग्ला में बच्चों और किशोरों के लिए लेखन का काम भी बहुत संजीदगी के साथ किया है। इनके द्वारा रचित कहानियों में जासूसी रोमांच के साथ-साथ पेड़-पौधे तथा पशु-पक्षी का सहज संसार भी है।
अपू के साथ ढाई साल: पाठ का सारांश
- 'अपू के साथ ढाई साल' नामक संस्मरण पथेर पांचाली फिल्म के अनुभवों से संबंधित है जिसका निर्माण भारतीय फिल्म के इतिहास में एक बहुत बड़ी घटना के रूप में दर्ज है। इससे फिल्म के सृजन और उसके व्याकरण से संबंधित कई बारीकियों का पता चलता है। यही नहीं जो फिल्मी दुनिया हमें अपने ग्लैमर से चुधियाती हुई जान पड़ती है, उसका एक ऐसा सच हमारे सामने आता है, जिसमें साधनहीनता के बीच अपनी कलादृष्टि को साकार करने का संघर्ष भी है। यह पाठ मूल रूप से बांग्ला भाषा में लिखा गया है जिसका अनुवाद विलास गिते ने किया है।
इस संस्मरण का सार इस प्रकार है-
- लेखक कहते हैं कि पथेर पांचाली फिल्म की शूटिंग ढाई साल तक चली। उस समय वह विज्ञापन कंपनी में काम करता था। काम से फुर्सत मिलते ही और पैसे होने पर शूटिंग की जाती थी। शूटिंग शुरू करने से पहले कलाकार इकट्ठे करने के लिए बड़ा आयोजन किया गया। अपू की भूमिका निभाने के लिए छह साल का लड़का नहीं मिल रहा था। इसके लिए अखबार में विज्ञापन दिया। रासबिहारी एवेन्यू के एक भवन में किराए के कमरे पर बच्चे इंटरव्यू के लिए आते थे। एक सज्जन तो अपनी लड़की के बाल कटवाकर लाए थे। लेखक परेशान हो गया। एक दिन लेखक की पत्नी की नजर पड़ोस में रहने वाले लड़के पर पड़ी और वह सुबीर बनर्जी ही 'पथेर पांचाली' में अपू बना।
- फिल्म में अधिक समय लगने लगा तो लेखक को यह डर लगने लगा कि अगर अपू और दुर्गा नामक बच्चे बड़े हो गए तो दिक्कत हो जाएगी। सौभाग्य से वे नहीं बढ़े। फिल्म की शूटिंग के लिए वे पालसिट नामक गाँव गए। वहाँ रेल-लाइन के पास काशफूलों से भरा मैदान था। उस मैदान में शूटिंग शुरू हुई। एक दिन में आधो शूटिंग हुई। निर्देशक, छायाकार, कलाकार आदि सभी नए होने के कारण घबराए हुए थे। वाकी का सीन बाद में शूट करना था। सात दिन बाद वहाँ दोबारा पहुँचे तो काशफूल गायब थे। उन्हें जानवर खा गए। अतः आधे सीन की शूटिंग के लिए अगली शरद ऋतु की प्रतीक्षा करनी पड़ी।
- अगले वर्ष शूटिंग हुई। उसी समय रेलगाड़ी के शॉट्स भी लिए गए। कई शॉट्स होने के लिए तीन रेलगाड़ियों से शूटिंग की गई। कलाकार दल का एक सदस्य पहले से ही गाड़ी के इंजन में सवार होता था ताकि वह शॉट्स वाले दृश्य में बायलर में कोयला डालता जाए और रेलगाड़ी का धुआँ निकलता दिख सके। सफेद काशफूलों की पृष्ठभूमि पर काला धुआँ अच्छा सीन दिखाता है। इस सीन को कोई दर्शक नहीं पहचान पाये। लेखक को धन की कमी से कई समस्याएँ झेलनी पड़ी। फिल्म में 'भूलो' नामक कुत्ते के लिए गाँव का कुत्ता लिया गया। दृश्य में कुत्ते को भात खाते हुए दिखाया जाना था, परंतु जैसे ही यह शॉट शुरू होने को था, सूरज की रोशनी व पैसे दोनों ही खत्म हो गए। छह महीने बाद पैसे इकट्ठे करके बोडाल गाँव पहुँचे तो पता चला कि वह कुत्ता मर गया था। फिर भूलो जैसा दिखने वाला कुत्ता पकड़ा गया और उससे फिल्म की शूटिंग पूरी की गई। लेखक को आदमी के संदर्भ में भी यही समस्या हुई। फिल्म में मिठाई बेचने वाला है- श्रीनिवास। अपू व दुर्गा के पास पैसे नहीं थे। वे मुखर्जी के घर गए जो उससे मिठाई खरीदेंगे और बच्चे मिठाई खरीदते देखकर ही खुश होंगे। पैसे के अभाव के कारण दृश्य का कुछ अंश चित्रित किया गया। बाद में वहाँ पहुँचे तो श्रीनिवास का देहडि हो चुका था। किसी तरह उनके शरीर से मिलता-जुलता व्यक्ति मिला और उनकी पीठ वाले दृश्य से शूटिंग पूरी को गई।
- श्रीनिवास के सीन में भूलो कुत्ते के कारण भी परेशानी हुई। एक खास सीन में दुर्गा व अपू को मिठाई वाले के पीछे दौड़ना होता है तथा उसी समय झुरमुट में बैठे भूलो कुत्ते को भी छलाँग लगाकर दौड़ना होता है। फूलो प्रशिक्षित नहीं था, अतः वह मालिक की आज्ञा को नहीं मान रहा था। अंत में दुर्गा के हाथ में थोड़ी मिठाई डिपा कुत्ते को दिखाकर दौड़ने की योजना से शूटिंग पूरी की गई।
- बारिश के दृश्य चित्रित करने में पैसे का अभाव परेशान करता था। बरसात में पैसे नहीं थे। अक्टूबर में बारिश की संभावना कम थी। वे हर रोज देहात में बारिश का इंतजार करते। एक दिन शरद ऋतु में बादल आए और धुआँधार बारिश हुई। दुर्गा व अपू ने बारिश में भीगने का सीन किया। ठंड से दोनों काँप रहे थे, फिर उन्हें दूध में ब्रांडी मिलाकर पिलाई गई। बोडाल गाँव में अपू-दुर्गा का घर, स्कूल, गाँव के मैदान, खेत, आम के पेड़ बाँस की झुरमुट आदि मिले। यहाँ उन्हें कई तरह के विचित्र व्यक्ति भी मिले। सुबोध दा साठ वर्ष से अधिक के थे और झोपड़ी में अकेले रहकर बड़बड़ाते रहते थे। फिल्मवालों को देखकर उन्हें मारने को कहने लगे। बाद में वे वायलिन पर लोकगीतों की धुनें बजाकर सुनाते थे। वे सनकी थे।
- इसी तरह शूटिंग के साथ वाले घर में एक धोबी था जो पागल था। वह किसी समय राजकीय मुद्दे पर भाषण देने लगता था। शूटिंग के दौरान उसके भाषण साउंड के काम को प्रभावित करता था। पथेर पांचाली की शूटिंग के लिए लिया गया घर खंडहर था। उसे ठीक करवाने में एक महीना लगा। इस घर के कई कमरों में सामान रखा था तथा उन्हें फिल्म में नहीं दिखाया गया था। भूपेन बाबू एक कमरे में रिकॉर्डिंग मशीन लेकर बैठते थे। वे साउंड के बारे में बताते थे। एक दिन जब उनसे साउंड के बारे में पूछा गया तो आवाज नदारद थी। उनके कमरे से एक बड़ा साँप खिड़की से नीचे उतर रहा था। उनकी बोलती बंद थी। लोगों ने उसे मारने से रोका, क्योंकि वह वास्तुसर्प था जो बहुत दिनों से वहाँ रह रहा था।