अपभ्रंश भाषा साहित्य इतिहास एवं विशेषताएँ
अपभ्रंश भाषा का इतिहास
- अपभ्रंश भाषा (या भाषाओं) का समय 500 ई. से 1000 ई. तक माना जाता है, जबकि 15वीं शताब्दी तक इसमें साहित्य रचना होती रही है।
- अपभ्रंश शब्द का अर्थ आमतौर पर विद्वान "अपभ्रष्ट" या "बिगड़ी हुई " भाषा लेते हैं। इस भाषा के निम्नलिखित नाम भी हैं "अवब्भंस" अवहंस, अवहट्ठ (अपभ्रष्ट), अवहट, अवहत्य आदि। यह बोलचाल की भाषा माने देश भाषा थी।
- 14वीं शताब्दी के कवि विद्यापति लिखते हैं- देसिल बयना सबजन मिट्ठा। तें तैसन जम्पत्रों अवहट्ठा (अर्थात् देश की भाषा सब लोगों के लिए मीठी है। इसे अवहट्ठ कहा जाता है)।
अपभ्रंश साहित्य
अपभ्रंश का साहित्य विविध प्रकार का है। इसकी प्रमुख धाराएँ निम्न प्रकार की हैं-
(i) पुराण साहित्य :
- अपभ्रंश में प्रमुख रूप से जैनियों के पुराण लिखे गये जिनमें प्रमुख हैं पुष्पदंत का महापुराण और शालिभद्र सूरि का बाहुबलि रास। अपभ्रंश के राम काव्य के कवि स्वयंभू ने पउम चरिउ (पद्म चरित्र याने राम काव्य) की रचना की।
(ii) चरित्र काव्यः
- चरित्र काव्य लोकप्रिय व्यक्तियों के जीवन चरित्र हैं। पुष्पदंत के णायकुमार चरिउ (नागकुमार चरित्र) जसहर चरिउ आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
iii) कथा काव्यः
- ये आदि काल के महाकाव्यों की तरह काल्पनिक कथा कृतियाँ हैं।
iv) जैन कवियों का नीतिपरक साहित्यः
- ये अधिक मुक्तक रचनाएँ हैं, जिनमें जीवन के आदर्शों का विवरण है। जोइन्दु को "परमात्म प्रकाश" और "योग स्तर" और रामसिंह का "पाहुड दोहा" प्रमुख कृतियाँ हैं।
- ⅴ) बौद्ध सिद्ध कवियों ने रहस्य साधना संबंधी अपनी काव्य रचना अपभ्रंश में ही की। इस धारा में सरहपा और काण्हपा के दोहा कोष प्रसिद्ध हैं।
vi) आदिकालीन रचनाएँः
- हम जिसे हिंदी साहित्य का आदिकाव्य कहते हैं उसकी कई रचनाएँ अपभ्रंश में हुई हैं। काव्य कृतियों में "रासो" साहित्य आदिकाल की प्रमुख रचनाएँ हैं। उनमें अब्दुल रहमान की कृति संदेश रासक अपभ्रंश में लिखी गयी है।
अपभ्रंश के कितने रूप हैं?
- विद्वानों में इस संबंध में मतभेद हैं। कुछ विद्वान अपभ्रंश के दो रूप मानते हैं - पश्चिमी और पूर्वी। अब सर्वमान्य विचार छह रूपों का है। ये हैं शौरसेनी, पैशाची, ब्राचड, महाराष्ट्री, मागधी और अर्ध मागधी। माना यह जाता है कि इन्हीं क्षेत्रीय रूपों से विविध आधुनिक आर्य भाषाओं का विकास हुआ।
अपभ्रंश भाषा की विशेषताएँ
ध्वनि स्तर
ध्वनि स्तर पर इसकी तीन-चार विशेषताएँ हैं, जो आधुनिक हिंदी और उसकी बोलियों के स्वरूप को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
i) स्वरों का दीर्धीकरण हुआ जैसे अक्खि से आखि। हिंदी में आँख आदि शब्दों का रूप इसी से विकसित हुआ।
ii) अनुनासिकता का विकास इसी युग में हुआ, जैसे बक्र से बंक (और आधुनिक हिंदी में बाँका)।
iii) शब्द उकार बहुल
थे याने उ/ से समाप्त होते थे जैसे चरिउ (चरित), बहुतु (बहुत)।
आधुनिक हिंदी में शब्दांत स्वर समाप्त हो गये।
व्याकरणिक स्तर
i) संस्कृत शब्दों के संज्ञा रूप 24 थे, जो पालि में 14 बने, प्राकृत में 12 और अपभ्रंश तक आते-आते सिर्फ़ 6 ही रह गये। उदाहरण के लिए पुत्त (पुत्र) शब्द लीजिए।
ii) संज्ञा के कारक रूप कम होने के कारण विभक्ति के अर्थ को प्रकट करने के लिए परसर्ग शब्दों का प्रयोग बढ़ा। ये परसर्ग हैं- केर/कर कर का (मज्झे, मांझ, माँह, महँ) में, (उप्परि। परि) पर, तैं/तें ते (से) काँ/कौ/कूँ (को) आदि।
iii) क्रिया रूपों में भी इसी प्रकार का सरलीकरण दिखायी पड़ता है। संस्कृत में धातु के रूप विभिन्न लकारों में 540 होते थे, पालि में 240 रह गये और प्राकृत में 72। आप जानते हैं कि ये रूप हिंदी में कितने हैं? हिंदी में भूतकाल (आया आदि 4) वर्तमान काल (आता आदि 4) भविष्यत् (आएगा आदि 12) संभावनार्थ (आऊँ, आए आदि 6) और विधि (आओ आदि 2) में कुल 28 क्रिया रूप हैं। भूतकाल में 4 रूप हैं और भविष्यत् में 12, इसका कारण यह है कि भूतकाल के कृदंत में पुरुष का अंतर नहीं है। आया, आता आदि कृदंत सिर्फ़ लिंग और वचन भेद बताते हैं। पुरुष की सूचना सहायक क्रिया (है, हो, हूँ आदि) के आधार पर मिलती है। भविष्यत् में पुरुष की भी सूचना है, यह एकल क्रिया है याने क्रिया का तिङन्त रूप है। कृदंत के कारण आया है आदि संयुक्त क्रियाएँ कहलाती हैं। एकल क्रिया से संयुक्त क्रिया का विकास अपभ्रंश से ही शुरू होता है। कृदंत तभी प्रभावी होते हैं, जब धातु रूप निश्चित हो जाएँ।
अपभ्रंश में धातु रूप निश्चित हो गये और उनसे विभिन्न क्रिया रूपों की रचना व्यवस्थित होने लगी। इस दृष्टि से अपभ्रंश का रूप-रचना की दृष्टि से आधुनिक आर्य भाषाओं से सीधा संबंध है।
iv) जब शब्दों में
विभक्ति आदि युक्त संश्लिष्ट रूप न बनें तो भाषा में पदक्रम अधिक निश्चित हो जाता
है। जैसे "राम खाना खा रहा है" को "खाना राम खा रहा है" नहीं
कह सकते। अपभ्रंश में आधुनिक भाषाओं की तरह पदक्रम अधिक सुनिश्चित हो गया था।