द्वैत का उद्भव साहित्य (इतिहास)
द्वैतवाद" एक परिचय
- अन्य वैष्णव वेदांत सम्प्रदायों के समान मध्व दर्शन का "द्वैतवाद" भी शंकराचार्य के अद्वैतवाद के विरोध में खड़ा हुआ है। इस दर्शन की प्रसिद्धि रामानुज के दर्शन के जैसी ही है। इनके मत में निमित्त कारण तथा उपादान कारण का आत्यन्तिक भेद या द्वैत मान्य है। द्वैतवाद के समर्थन में मध्व ने सांख्य तथा न्याय-वैशेषिक दर्शनों के कुछ एक सिद्धांतो की महत्ता को स्वीकार करते हुए औपनिषदिक दर्शन की नयी व्याख्या प्रस्तुत की है।
द्वैत का उद्भव (इतिहास) -
- वैष्णव दार्शनिक मध्वाचार्य का जन्म 1197 ई. में दक्षिण में उडुली जिले के अन्तर्गत विल्व नामक ग्राम में हुआ था। मध्व को आनन्दतीर्थ, पूर्णबोध और पूर्णप्रज्ञ आदि नामों से जाना जाता है। उन्होंने ब्रह्मसूत्र, गीता और उपनिषदों पर भाष्य लिखा है। इनका मत ब्रह्मसम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है। इनके सिद्धान्त को द्वैतवाद के नाम से जाना जाता है।
द्वैत का उद्भव मत के सिद्धान्त का प्रतिपादक श्लोक सर्वथा स्मरणीय है-
श्रीमन्मध्वमते हरिः परतरः सत्यं जगत् तत्वतो,
भेदोजीवगणा हरेरनुचरा नीचोच्चभावं गताः ।
मुक्तिर्नेजसुखानुभूतिरमला भक्तिश्च तत् साधनम्,
प्रत्यक्षादित्रितयं प्रमाणमखिलाम्नायैक वेद्यो
हरिः ।।
द्वैत का साहित्य
- मध्व के द्वारा लिखित प्रमुख ग्रन्थों में प्रस्थानत्रय (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता तथा उपनिषद्) पर भाष्य, ब्रह्मसूत्र पर अणुव्याख्यान नामक ग्रन्थ, भागवतपुराण पर भागवत-तात्पर्य-निर्णयटीका आदि हैं। उपाधिखण्डन, मायावादखण्डन, मिथ्यावानुमानखण्डन, तत्वोद्योत, तत्वविवेक, तत्वसंख्यान आदि भी इनकी अन्य रचनायें हैं।
ज्ञान मीमांसा द्वैत के अनुसार
1. ज्ञान का स्वरूप
- अन्य वैष्णव वेदान्तियों के सदृश मध्व भी ज्ञान के सविशेष-विषयत्व, स्वतः प्रामाण्य, वस्तुवाद एवं बाह्यार्थवाद का समर्थन करते है। इनकी ज्ञान मीमांसा न्याय-वैशेषिक की अपेक्षा सांख्य पर अधिक आधारित है। चूँकि कोई वस्तु निर्विशेष सामान्य मात्र नहीं, अपितु असंख्य विशेषों वाली होती है। अतः निर्विशेष ज्ञान असम्भव है। ज्ञान किसी वास्तविक पदार्थ का होता है, उस वस्तु के आकारों वाली बुद्धिवृद्धि के माध्यम से ही ज्ञाता को वस्तु का ज्ञान होता है। जैसी वस्तु हो ठीक उसी रूप का ज्ञान, अर्थात् यथार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमा है जो स्वाभाविक रूप में स्वतःप्रमाण है। ज्ञान का स्वतःप्रामाण्य स्वयं सिद्ध है-उसकी प्रामाणिकता स्वयं उसी में, उसकी उत्पत्ति एवं ज्ञप्ति में निहित होती है। अयथार्थ ज्ञान या अप्रमा का परतः प्रमाण भी उत्पत्ति और ज्ञप्ति रूप में सम्पन्न होता है।
साक्षी-
- मध्व वेदान्त में साक्षी के विना ज्ञान प्रमाणिक नहीं होता, क्योंकि ज्ञान साक्षी का बोध या पौरुषेय बोध है। आत्मा के स्वरूपभूत चैतन्येन्द्रिय को साक्षी कहते हैं। अनवस्था दोष से बचने के लिये ज्ञान का स्वतः प्रमाण मानना आवश्यक हो जाता है, अन्यथा एक ज्ञान की प्रमाणिकता किसी अन्य ज्ञान से, उसकी पुनः किसी अन्य से मानने पर अनवस्था दोष उत्पन्न हो जाता है। साक्षी को ही ज्ञान और उसकी प्रमाणिकता दोनो हो जाती है। मध्व के अनुसार साक्षी ही सभी प्रमाणों का प्रमाण है। क्योंकि वही सभी निश्चय, अध्यवसाय या अनुभव के मूल में है। वृत्ति ज्ञान का फलरूप प्रमा साक्षी निष्ठ होती है ।
- तदनुसार प्रमाण भी दो प्रकार के हैं- अनु प्रमाण और केवल प्रमाण। अनुप्रमाण तीन प्रकार के हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द या आगम। यथार्थ ज्ञान के साधन को अनुप्रमाण कहते हैं जो तीन प्रकार के होने के कारण तीन प्रकार के यथार्थ ज्ञान को देते हैं- प्रत्यक्षज्ञान, अनुमितिज्ञान तथा शब्दज्ञान। यथार्थ ज्ञान को ही केवल प्रमाण कहते हैं यह चार प्रकार का होता है- 1. ईश्वरज्ञान, 2. लक्ष्मी-ज्ञान, 3. योगिज्ञान और 4. अयोगिज्ञान।
2 ज्ञान के साधन (प्रमाण)
तीन अनुप्रमाण-
- स्मृति से भिन्न अनुभव ही प्रमाण है। प्रमाण शब्द साधन और उसके फल, दोनों का वाचक है। यथार्थ ज्ञान के साधन को अनुप्रमाण कहते हैं। अनुप्रमाण वृद्धि ज्ञान है, यह तीन प्रकार का होता है- प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द या आगम।
प्रत्यक्ष प्रमाण-
- आसन्न और अव्यवहित रूप से विद्यमान कुछ वस्तुओं का ग्राहक साधन प्रत्यक्ष कहलाता है। अर्थात् निर्दोष इन्द्रियों से वस्तु के सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष कहते हैं। यह सात प्रकार का होता है- साक्षी, मन, नेत्र, त्वक्, रसना, श्रोत्र, और घ्राण ये ही सात इन्द्रियाँ हैं। मुख्यतः चार प्रकार के प्रत्यक्ष का विवरण प्राप्त होता है- 1. ईश्वरप्रत्यक्ष, 2. लक्ष्मी-प्रत्यक्ष, 3. योगिप्रत्यक्ष और 4. अयोगिप्रत्यक्ष । मध्व के अनुसार सारे प्रत्यक्ष सविकल्पक ही होते हैं।
अनुमान प्रमाण-
व्याप्ति के स्मरण के साथ-साथ लिंग, हेतु, व्याप्य या युक्ति का देश विशेष में ठीक- ठीक ज्ञान से
साध्य, लिंगी या अनुमेय
पदार्थ के ज्ञान या प्रमा का जनक साधन अनुमान प्रमाण कहलाता है। अनुमान के मुख्य
दो अंग हैं- व्याप्ति और समुचित देश विशेष में साध्य की स्थिति। धूम व्याप्य और
अग्नि व्यापक है। अनुमान तीन प्रकार का होता है-
1. कार्यानुमान - जहाँ कार्य से कारण का अनुमान होता है वह कार्यानुमान है, जैसे धूम से अग्नि का अनुमान।
2. कारणानुमान - जहाँ कारण से कार्य का अनुमान होता है वह कारणा है, जैसे विशेष प्रकार के बादल को देखकर वर्षा का अनुमान।
3. अकार्याकारणानुमान-
जो अपने साध्य का न तो कारण है और न कार्य, फिर भी अनुमापक होता है वह अकार्याकारणानुमा होता है, जैसे रस रस रूप
का अनुमापक है। दृष्ट और सामान्यतोदृष्ट के भेद से भी अनुमान के दो प्रकार होते
है।
शब्द प्रमाण या आगम प्रमाण-
- निर्दोष शब्द को कहते हैं, शब्द पद और वाक्य है। आकांक्षा, योग्यता और सन्निहित पदों के समूह को वाक्य कहते हैं। वाक्य करण या साधन है, पदार्थ की स्मृति अवान्तर व्यापार तथा वाक्यार्थ का ज्ञान अवान्तर फल। आगम या शब्द प्रमाण दो प्रकार का होता है-अपौरुषेय और पौरुषेय या नित्य और अनित्य। वेद आदि सत्य आगम अपौरुषेय हैं तथा महाभारत, रामायण, पांचरात्र आदि पौरुषेय आगम हैं।
- इन तीनों प्रमाणों में प्रत्यक्ष सर्वाधिक प्रामाणिक और निश्चयात्मक माना गया है। किसी अन्य प्रमाण या तर्क के द्वारा प्रत्यक्ष का बाध सम्भव नहीं है। मध्व वेदान्त में ये तीन ही प्रमाण हैं तथा अन्य प्रमाणों का अन्तर्भाव इन्हीं प्रमाणों में हो जाता है।