द्वैताद्वैत का उद्भव, विशिष्टाद्वैत का साहित्य | Dwaitvaad Philosophy

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द्वैताद्वैत का उद्भव,  विशिष्टाद्वैत का साहित्य

द्वैताद्वैत का उद्भव,  विशिष्टाद्वैत का साहित्य | Dwaitvaad Philosophy




द्वैताद्वैत का उद्भव 

  • निम्बार्क दर्शन के प्रतिष्ठापक आचार्य निम्बार्क का जन्म बारहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में तैलंग ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका वास्तविक नाम नियमानन्द था। कहा जाता है कि नीम के पेड़ पर चढ़ कर सूर्यास्त हो जाने पर भी सूर्य का दर्शन कराने के कारण इनका नाम निम्बार्क पड़ा था। ये अलौकिक प्रतिभासम्पन्न वैष्णवी विद्वान् थे। 

  • इनका समय दासगुप्त के मत में चौदहवीं सदी के अन्त या पन्द्रहवीं सदी के प्रारम्भ का है। रोमा चौधरी इन्हें ग्यारहवीं सदी का मानती हैं जो अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। कुछ परम्परानुयायी इनका समय काफी पीछे ले जाते हैं, किन्तु रामानुज के बाद ही इन्हें मानना उचित होगा।

 

  • रामानुज के विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय के अतिरिक्त निम्बार्क का द्वैताद्वैत या भेदाभेद प्रमुख वैष्णव वेदान्त सम्प्रदाय है। निम्बार्क सम्प्रदाय को वैष्णव मत का 'सनक-सम्प्रदायकहा जाता है तथा निम्बार्क को सुदर्शनचक्र का अवतार माना जाता है। भारतीय दर्शन में द्वैताद्वैतवाद अत्यन्त प्राचीन है। बादरायण से भी पूर्व के आचार्यों में औडुलोमि और आश्मरथ्य तथा शंकर-पूर्व के आचार्यों में भर्तृप्रपंच एवं शंकरोत्तर आचार्यों में भास्कर और यादव प्रसिद्ध भेदवादी आचार्य हुये हैं। निम्बार्काचार्य ने इन आचार्यों के मत को पुनरुज्जीवित किया है।

 

विशिष्टाद्वैत का साहित्य 

  • निम्बार्क भास्कर के अनुयायी हैं, पर भास्कर के औपाधिक भेदाभेदवाद से थोड़ा भिन्न स्वाभाविक भेदाभेदवाद का प्रतिपादन करके इन्होंने अलग सम्प्रदाय बनाया, जो एक विशिष्ट धर्म- सम्प्रदाय के रूप में, मुख्य रूप से ब्रज तथा उत्तर प्रदेश में एवं अन्यत्र, बंगाल आदि में, प्रचलित रहा है। निम्बार्क का ब्रह्मसूत्र पर भाष्य पूर्णप्रज्ञभाष्य या वेदान्तपारिजातसौरभ के नाम से विख्यात है। यह अति संक्षिप्त वृत्ति के रूप में है। शंकर के सिद्धान्त का प्रतिवाद करने में इन्होंने अधिक अभिरुचि नहीं दिखायी है। दशश्लोकी या सिद्धान्तरत्न तथा कृष्णस्तवराज नामक इनके दो स्वतन्त्र ग्रन्थ भी हैं। इनकी रचनाओं पर टीका-ग्रन्थ भी पाये जाते हैं। इनकी प्रमुख रचनाएँ वेदान्तपारिजातसौरभ, सिद्धान्तरत्न, दशश्लोकी, श्रीकृष्णस्तवराज हैं। 

 

द्वैताद्वैत- ज्ञान मीमांसा 

1. ज्ञान- 

  • ज्ञान यथार्थ, वस्तु-विषयक तथा आत्मा का धर्मभूत द्रव्य है। यथार्थ ज्ञान या प्रमा बुद्धि के नहीं जीव के आश्रित होती है। प्रमा या धर्मभूत ज्ञान में संकोच विकास कर्मवश होता है, इसलिये कि आत्मा के स्वरूप-ज्ञान के समान यह स्वयंप्रकाश नहीं है। आत्मा सदा ही ज्ञातृत्व धर्मवाला होता है, अतः ज्ञान का कभी अभाव नहीं होता। इन्द्रिय आदि निमित्त न मिलने से सुषुप्ति, मूर्च्छा आदि दशा में वह प्रकट नहीं हो पाता। यदि उसका अभाव माना जाय तो कभी भी आविर्भाव सम्भव नहीं होगा। ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण नहीं है, जैसा न्याय-वैशेषिक दर्शन में मान्य है। ज्ञान आत्मा में गुण और गुणी के सम्बन्ध से नित्य जुड़ा हुआ रहता है। गुण और गुणी में भेदाभेद सम्बन्ध होता है, गुण आत्मा से भिन्न द्रव्य होते हुए भी उससे अभिन्न या अपृथक् सिद्ध है। निम्बार्क रामानुज के समान वस्तुवादी या बाह्यार्थसत्यवादी तथा ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय एवं ज्ञान के साधन (प्रमाणत्रय) को स्वीकार करते हैं।

 

2 ज्ञान के साधन (प्रमाण) 

  • रामानुज के समान निम्बार्क प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द, तीन प्रमाणों को मानते है। प्रत्यक्ष-इन्द्रिय और विषय के सन्निकर्ष से जन्य ज्ञान प्रत्यक्ष है जो बाह्य और आन्तर दो प्रकार का होता है। बाह्य पदार्थों का प्रत्यक्ष इन्द्रियज है तथा सुख-दुःख आदि आन्तरिक विषयों का इन्द्रिय- निरपेक्ष आन्तर।

 

अनुमान-

  • व्याप्ति पर निर्भर ज्ञान अनुमान है। अनुमान प्रमाण दो प्रकार का होता है- स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान। परार्थानुमान में प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन पंचावयव वाक्यों का प्रयोग होता है।

 

शब्द-

  1. इन दो ज्ञानों से अतिरिक्त एवं सर्वाधिक प्रामाणिक ज्ञान श्रुतिमूलक होता है। श्रुति श्रवण-मनन- निदिध्यासन का विधान करती है। वस्तु के साक्षात्कार का कारण निदिध्यासन है, उसके बहिरंग साधन श्रवण और मनन हैं। आचार्य के मुख से वाक्यार्थ का ग्रहण श्रवण है, श्रुत्यनुकूल तर्क से उस पर विशेष विचार मनन है तथा ध्यानपूर्वक उपदिष्ट वस्तु का साक्षात्कार निदिध्यासन है। इनका अपूर्व विधान श्रुति द्वारा हुआ है। अर्थात् वेद वचनां में कहीं भी किसी रूप में अर्थवाद नहीं है। 

  • प्रत्यक्ष और अनुमान अपने अपने विषयों में प्रमाण हैं, किन्तु शास्त्र-ज्ञान सर्वथा निर्दोष एवं प्रामाणिक होने से अपेक्षाकृत अधिक विशुद्ध होता है, उसमें भ्रान्ति की सम्भावना बिलकुल नहीं होती, वह सभी परिस्थितियों में समान रूप से परिपूर्ण एवं भ्रान्तिरहित ज्ञान होता है। 

  • निम्बार्क रामानुज के समान सत्ख्यातिवादी हैं। अनिर्वचनीय ख्याति, अख्याति, अन्यथाख्याति जैसे सिद्धान्तों का खण्डन करते हुये सत्ख्यातिवादी निम्बार्क का कथन है कि प्रमाण का बल पर भ्रान्त ज्ञान का बाध उसी प्रकार होता है जिस प्रकार पुण्य से पाप का या औषधि से रोग का। निम्बार्क के अनुसार परिणामवाद श्रुति द्वारा प्रतिपादित है।

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