तत्वमीमांसा- द्वैतवाद
तत्वमीमांसा- द्वैतवाद
- मध्व का वस्तुवादी द्वैतवाद ईश्वर, जीव और जगत् की पारमार्थिक सत्ता स्वीकार करता है। प्रकृति, जीव और ईश्वर भिन्न तत्व हैं, ये अपनी-अपनी सत्ता रखते हैं, क्योंकि इनकी प्रतीति होती है। इनमें से किसी एक को दूसरे में अन्तर्भूत नहीं माना जा सकता। बहुत्व का एक में विलय नहीं होता और न तो बहुत्व या नाना को मिथ्या ही माना जा सकता है। परब्रह्म ईश्वर स्वतन्त्र तत्व है, जबकि प्रकृति और जीव परतन्त्र तत्व हैं। ईश्वर अनन्तकल्याणगुणसम्पन्न तथा परिपूर्ण हैं, इस प्रकार स्वतन्त्र और परतन्त्र रूप से तीनों तत्वों का दो वर्ग है। ये तीनों सत् तत्व हैं, क्योंकि इनकी सर्वदा प्रतीति होती है। मध्व द्वैत को सत्य मानते हैं- जो स्वरूपतः भिन्न होता है, वह अभिन्न नहीं हो सकता। ब्रह्म, जीव और प्रकृति स्वरूपतः भिन्न हैं, अतः इनमें अभेद सम्बन्ध नहीं हो सकता । ब्रह्म ही पूर्ण स्वतन्त्र, सत्य का सत्य, नित्यों का नित्य, चेतनों का चेतन तथा सत्ता, प्रतीति एवं प्रवृत्ति का निमित्त है।
- मध्व भेद को वस्तुओं का स्वरूप मानते हैं, यह जगत् सत्य है और प्रत्येक पदार्थ अन्य सब पदार्था से सर्वथा भिन्न है। मध्व जीव और जगत् को ईश्वर का शरीर नहीं मानते हैं। जीव और जगत् विशेषण या गौण नहीं हैं। वे तात्विक और मुख्य हैं। ईश्वर परतन्त्र होने से उनकी सत्ता पर कोई आँच नहीं आती। वे परस्पर भिन्न हैं और ईश्वर से नितांत भिन्न हैं, अतः वे ईश्वर का शरीर नहीं हो सकते। मध्वाचार्य ने पंचविध नित्य भेद स्वीकार किये हैं जिनके ज्ञान हो जाने पर जीव मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। ये पाँच भेद हैं-
- ईश्वर और जीव का भेद
- जीव और जीव का भेद
- ईश्वर और जड़ का भेद
- जड़ और जड़ का भेद एवं
- जीव और जड़ का भेद
जैसा कि महाभारततात्पर्यनिर्णय में भी कहा गया है-
जगत्प्रवाहः सत्योऽयं पंचभेदसमन्वितः ।
जीवेशयोर्भिदा चैव जीवभेदः परस्परम्।
जडेशयोर्जडानांच जडजीवभिदा तथा ।। महाभारततात्पर्यनिर्णय-1.67-70
मध्व का भेद पर इतना दुर्निवार आग्रह है कि उन्होंने मुक्त जीवों में भी ज्ञान और आनन्द के तारतम्य रूपी भेद को स्वीकार किया है।
2 पदार्थ एवं द्रव्य
दस पदार्थ -
- मध्वदर्शन में पदार्थों की संख्या दस मानी गयी है- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य तथा अभाव ।
बीस द्रव्य-
- उनके मत में द्रव्य बीस प्रकार का होता है- परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृत, आकाश, प्रकृति, गुणत्रय, महत्तत्व, अंहकार, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, तन्मात्राएँ, महाभूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अन्धकार, वासना, काल तथा प्रतिबिम्ब। मध्वाचार्य ने स्वतन्त्र और अस्वतन्त्र नामक दो तत्त्वों को स्वीकार किया है। भगवान विष्णु स्वतन्त्र तत्त्व हैं और अस्वतन्त्र तत्त्व परमात्मा का दास जीव है।
सत्कार्यवाद और परिणामवाद-
- जगत् प्रकृति का वास्तविक विकार या परिणाम है। सम्पूर्ण जगत् के उपादान कारण के रूप में प्रकृति को माना गया है। उपादान कारण तथा उनके कार्य में भेदाभेद सम्बन्ध है। तन्तु रूप उपादान के अभाव में वस्त्र की सत्ता ही संभव नहीं होती। तन्तु और कपड़े में अत्यन्त भेद नहीं है, किन्तु अत्यन्त अभेद भी नहीं है। यह स्थिति निमित्त कारण के सम्बन्ध में नहीं है। स्वर्ण से बने आभूषण सोना रूप में तथा आभूषण रूप में भिन्नाभिन्न दोनों हैं। उसी तरह प्रकृति और उसके विकारों में भी भेद और अभेद दोनों हैं। व्यक्त और अव्यक्त, कार्य और कारण, सूक्ष्म और स्थूल, ये दो अवस्थाएँ ही कार्य- कारण कहलाती हैं। भेद पर बल देकर मध्व ने सत्कार्यवाद तथा असत्कार्यवाद में समन्वय स्थापित किया है।
3 परमात्मा एवं जीव
- परमात्मा-भगवान् विष्णु परमात्मा हैं जो सब प्रकार से पूर्ण हैं। भगवान् समस्तकल्याणगुणों से परिपूर्ण है। वह मत्स्य, कूर्म आदि अवतारों को धारण करते हैं, परमात्मा उत्पत्ति, स्थिति, संहार, नियमन, ज्ञान, आवरण, बन्ध और मोक्ष- इन सबका विधाता है। परमात्मा सर्वज्ञ है वह एकराट् कहलाता है। वह सर्वतन्त्र स्वतन्त्र और एक है। वह जीव, जड़, प्रकृति से अत्यन्त विलक्षण है। लक्ष्मी परमात्मा की शक्ति और सहचरी है। वह परमात्मा के बाधित रहने के कारण उनसे भिन्न है तथा उनके आधीन है। लक्ष्मी, नित्य, चिद्रूप और अनन्त है, वह समस्त गुणों से परिपूर्ण है। श्री, दुर्गा, ही, महालक्ष्मी, दक्षिणा, सीता जयन्ती, सत्या, रूक्मिणी आदि लक्ष्मी की मूर्तियाँ हैं। वह ब्रह्मा आदि जीवों की जननी है। लक्ष्मी गुणों में भगवान् से न्यून है।
जीव-
जीव परमात्मा से भिन्न और अनेक हैं। प्रत्येक जीव का अपना व्यक्तित्व अलग है, अतः एक जीव दूसरे से भिन्न है। जीव अज्ञान, मोह, दुःख, भय आदि दोषों से मुक्त होने के कारण संसार में परिभ्रमण करता है। जीव के तीन भेद हैं-
1. मुक्तियोग्य- देव, ऋषि, पितृ, चक्रवर्ती तथा पुरूषोत्तम रूप से पाँच प्रकार के होते हैं।
2. नित्यसंसारी- अपने कर्मानुसार स्वर्ग के सुख, मर्त्यलोक के सुख-दुःख भोगते रहते हैं। ये मध्यम कोटी के मानव होते हैं।
3. तमोयोग्य- दानव, राक्षस, पिशाच और अधम मानव होते हैं। ये कभी मुक्त नहीं हो सकते हैं।
मुक्तियोग्य तमोयोग्य जीव दो प्रकार का होता है- चतुर्गुणोपासक और एकगुणोपासक।
प्रकृति
- माध्वदर्शन में प्रकृति की मान्यता है। प्रकृति साक्षात् या परम्परया विश्व का उपादान कारण है। परमात्मा तो केवल निमित्त कारण है। परमात्मा की अध्यक्षता में प्रकृति अपना कार्य करती है। प्रकृति त्रिगुणात्मिका, परिणामिनी, जड़, अव्यक्त और व्यापक है। प्रकृति ईश्वर की इच्छा या शक्ति है। यह जगत् के सारे बंधनों का कारण है। सभी प्राणियों के लिंग शरीर प्रकृति से निर्मित होते हैं। लक्ष्मी इसकी अधिष्ठात्री देवी है.
मोक्ष का स्वरूप-
- मध्वाचार्य के अनुसार भगवान परमात्मा की कृपा एवं साक्षात्कार से ही मोक्ष सम्भव है। परमात्मा के अनुग्रह से जीव मुक्ति को प्राप्त करता है। वैराग्य, शम, शरणागति, परमात्मभक्ति और पंचविध भेदज्ञान मोक्षप्राप्ति के साधन हैं। भगवान् के प्रति ज्ञानपूर्वक अनन्य स्नेह ही भक्ति है। भगवान् के अपरोक्ष ज्ञान से उनमें अनन्य भक्ति उत्पन्न होती है और तब भगवान् के परम अनुग्रह से मोक्ष प्राप्त होता है। मुक्त पुरुष का शरीर ब्रह्म के शरीर से भिन्न तथा जीवब्रह्मैक्य नहीं है। पंचभेदों का परिज्ञान मुक्ति के साधन हैं। माध्वमत में मोक्ष चार प्रकार का होता है- कर्मक्षय, उत्क्रान्तिलय, अचिरादिमार्ग और भोग। इनमें भोग मुक्तिचार प्रकार की होती है-
1. सालोक्य - भगवान् के साथ बैकुण्ठ लोक में निवास करना ।
2. सामीप्य- भगवान् के समीप रहना।
3. सारूप्य - भगवान् के समान रूप धारण करना।
4. सायुज्य - भगवान् के शरीर में प्रवेश करके उनके शरीर से आनन्द का भोग करना।
- मध्व मुक्त जीवों को भी ब्रह्म के समान न मानकर ब्रह्म से भिन्न मानते हैं तथा परस्पर भी भिन्न मानते हैं तथा उनमें ज्ञान और आनन्द आदि गुणों के तारतम्य की कल्पना करते हैं। मध्व के अनुसार दानव, राक्षस, पिशाच तथा अधम मनुष्य मोक्ष से परे हैं। ये नित्य अभिशप्त हैं तथा मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी नहीं।