द्वैताद्वैत के अनुसार तत्व मीमांसा
द्वैताद्वैत के अनुसार तत्व मीमांसा
- निम्बार्क चित्, अचित् और ईश्वर इन तीन तत्वों को मानते हैं और उनके दर्शन में इनका स्वरूप भी प्रायः रामानुज-सम्मत स्वरूप के अनुरूप है। चित् या जीव एक साथ ज्ञानस्वरूप भी हैं और ज्ञानाश्रय भी हैं। शुद्ध चैतन्य जीव का स्वरूप भी है और ज्ञाता होने के कारण जीव ज्ञान का आश्रय भी है। ज्ञान स्वरूपभूत और धर्मभूत दोनों है।
1 द्वैताद्वैतवाद-
- श्रद्धावान रामानुज के समान निम्बार्क भी चित्, अचित् और ईश्वर- इन तीन तत्त्वों को स्वीकार करते हैं। इनके मत में चित् (जीव) अचित् (जगत्) से भिन्न होते हुये भी ज्ञाता और ज्ञान का आश्रय है, जिस प्रकार सूर्य प्रकाशमय है और प्रकाश का आश्रय भी है, उसी प्रकार चित् भी एक ही काल में ते ज्ञानम् ज्ञानस्वरूप भी है और ज्ञान का आश्रय भी है। ब्रह्म जीव और जड़युक्त जगत् से एक साथ भिन्न और अभिन्न है। जिस प्रकार मकड़ी अपने में से जाला बनाने पर भी उससे स्वतंत्र रहती है इसी प्रार ब्रह्म भी असंख्य जीव और जड़ में विभक्त होता हुआ भी अपनी पूर्णता एवं शुद्धता बनाए रखता है। इस प्रकार चित् का अवस्थाभेद से ब्रह्म से भिन्न तथा चैतन्यरूप से अभिन्न होने के कारण इनका मत 'द्वैताद्वैतवाद' नाम से प्रसिद्ध है। जीव के सभी व्यापार और उनका अस्तित्व भी ब्रह्म पर इस अर्थ में अवलम्बित है कि ब्रह्म सभी का उपादान एवं निमित्त कारण है। कार्य रूप में ईश्वर और जीव में भेद है, किन्तु कारण रूप में दोनों में अभेद है। जिस प्रकार सुवर्णरूप से सोना अभेद एक ही है परन्तु अपने कार्य कुण्डल, अंगुठी आदि के द्वारा सभेद अर्थात् अपने मूल रूप से भिन्न है।
2 तत्वत्रय-
चित्-
- जीव निम्बार्क मत में जीव ज्ञानस्वरूप, स्वयंप्रकाश, ज्ञानाश्रय और अणुरूप है। वह प्रत्येक अवस्था में कर्ता है। मुक्तावस्था में भी कर्तृत्त्व से अलग नहीं रहता। वह विभु, नित्य एवं कर्मफल का भोक्ता है। जीव अंश है और ईश्वर अंशी है, अतः दोनों में अंशांशीभाव सम्बन्ध है। वह सदा ईश्वर के अधीन रहता है। जीव दो प्रकार के है- 1. बद्ध- दुःखों से ग्रस्त और 2. मुक्त- बंधनों से परे। बद्धजीव के दो प्रकार हैं- मुमुक्षु तथा बुभुक्षु। मुक्तजीव भी दो प्रकार का होता है- नित्यमुक्त और मुक्त।
अचित्
अर्थात् चेतना विहीन पदार्थ। अचित् तत्त्व तीन प्रकार का होता है-
1. प्राकृत- अर्थात् प्रकृति से उत्पन्न। महत् से लेकर ब्रह्माण्ड पर्यन्त सभी पदार्थ प्राकृत हैं।
2. अप्राकृत - जिसका प्रकृति से सम्बन्ध न हो, उसे अप्राकृत कहते हैं।
3. काल- प्राकृत और अप्राकृत से भिन्न तत्त्व को काल कहते हैं, यह नित्य एवं विभु है। यह परमात्मा के अधीन है।
ईश्वर
- निम्बार्क मत में ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अचिन्त्य, सर्वनियन्ता, स्वतन्त्र अमित ऐश्वर्य से युक्त है। यह अविद्या आदि पाँच क्लेशों से मुक्त है। ईश्वर जगत् का उपादान कारण भी है और निमित्त कारण भी है। अपनी शक्ति के विक्षेप के द्वारा वह स्वयं जगत् के रूप में परिणत हो जाता है, वह स्वरूप से अविकारी भी रहता है, जैसे मकड़ी अपने अप्रचलित स्वरूप को बनाये रख कर भी अपनी शक्ति का विक्षेप करके जाले के रूप में परिणत हो जाती है। यह सृष्टि का ईश है। यह जगत् उसी का परिणाम है। ईश्वर विश्वकल्याण के लिये अवतार धारण करता है। इस प्रकार जगत् ब्रह्म से भिन्न भी है और अभिन्न भी, स्वरूपतः ब्रह्म से इसका भेद है और कार्य रूप से अभेद भी है। जिस प्रकार दूध से दही का परिणाम होता है, उसी प्रकार ब्रह्म से जगत् का उसकी असाधारण शक्ति से।
कार्य कारण सिद्धान्त
- निम्बार्क के अनुसार कार्य अपने कारण से भिन्न और अभिन्न दोनों रूपों में रहता है। कार्य अपनी उत्पत्ति से पूर्व आपने कारण में विद्यमान रहता है- जगत् रूप कार्य अपनी उत्पत्ति से पूर्व अपने कारण में सत् रूप में विद्यमान रहता है, इसे सत्कार्यवाद कहते हैं। अव्यक्तावस्था में जगत् ब्रह्म से अभिन्न था किन्तु व्यक्तावस्था में वह नामरूपात्मक कार्य-रूप से सीमित एवं ब्रह्म रूप से भिन्न है। सभी परिणाम या विकार सत् के प्रकट नामरूप ही हैं। अतएव एक कारण के ज्ञान हो जाने से सभी कार्यों का ज्ञान हो जाता है। जैसे- स्वर्ण के ज्ञान होने से स्वर्ण के सभी आभूषणों का ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार निम्बार्क सत्कार्यवाद और परिणामवाद का सहारा लेकर जगत्-रूप कार्य का ब्रह्म-कारण से भेदाभेद सम्बन्ध स्थापित करता है।
जीवात्मा और परमात्मा का भेदाभेद-
जीवात्मा और परमात्मा के बीच भेदाभेद सम्बन्ध स्थापित है। परमात्मा आनन्दमय स्वरूप वाला है तथा जीव केआनन्द का कारण है। परमात्मा नित्य आविर्भूत ज्ञान स्वरूप है जबकि जीव अनुकरण है। परमात्मा निर्लेप है, जीवात्मा भोक्ता है। जीवात्मा अनेक है तथा परमात्मा एक और विभु है। जीवात्मा परमात्मा का अंश है, अचेतन प्रकृति के समान उसमें विकार उत्पन्न नहीं होता है। अंशांशीभाव से जीवात्मा और परमात्मा भिन्न हैं, परन्तु अन्ततः दोनों में अभेद है। जैसे सूर्य अनेक जलाशयों में प्रतिबिम्बित होते हुए भी जल के वृद्धि हास आदि दोषों से स्पष्ट नहीं होता, उसी प्रकार जीवात्मा के दोषों से अन्तर्यामि ब्रह्म स्पष्ट नहीं होता। जीवात्मा उसी प्रकार सत्य तत्व है जिस प्रकार परमात्मा अन्तर्यामि तथा जीव का उद्धार करने वाला है। जीव ही बन्ध मोक्ष को प्राप्त करता है परमात्मा नहीं। निम्बार्क की उक्ति है कि ब्रह्म उभयलिंग अर्थात् प्रकाशवान् भी है और अन्धकार से दूर है, अतः निर्दोष है। श्रुति, स्मृति और पुराण ईश्वर को सर्वगुणसम्पन्न बताते हैं। ईश्वर अविद्या आदि क्लेशों से रहित, जन्म आदि छः विकारों से रहित है। श्रुति के समस्त भेद परक और अभेद परक वचन मुख्य हैं।
बन्धन और मोक्ष
- सभी वेदान्तियों के समान निम्बार्क भी वैदिक ज्ञान काण्ड के समर्थक हैं। पुनरपि कर्म आदि को महत्व देकर ज्ञान कर्म समुच्चयवाद की स्थापना में विश्वास करना भक्ति सम्प्रदाय के वैष्णव सम्प्रदाय की विशेषता रही है। अविद्या या कर्म की निवृत्ति तथा आत्मा और ब्रह्म का स्वरूप ज्ञान मोक्ष है। निष्काम कर्म, जो ज्ञान, श्रद्धा, ध्यान, और ईश्वर समर्पण बुद्धि से किया जाता है मोक्ष प्राप्ति में सहायक होते हैं। धर्माचरण द्वारा पापकर्मों से मुक्ति मिलती है। जब सत्यज्ञान का प्रकाश आविर्भूत होता है तब धर्माचारण की आवश्यकता नहीं रहती है। ज्ञानयोग निष्काम कर्मयोगी को होता है, परब्रह्म का साक्षात्कार भगवत्कृपा और ज्ञानयोग से होता है। प्रपत्ति योग भगवत्शरणागति है। गुरू आज्ञा भी भगवत् भक्ति में सहयोग करती है। निम्बार्क के अनुसार मोक्ष प्राप्ति का साधन प्रपत्ति (शरणागति) है। शरणागत होने से भगवान् अनुग्रह करते हैं, अनुग्रह से भक्ति उद्भव होती है, भक्ति से ईश्वर-प्रेम उत्पन्न होता है, प्रेमभक्ति से परमात्मा का साक्षात्कार होता है, तब सारे क्लेशों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है। यही मोक्ष की अवस्था है। इस प्रकार ज्ञान, कर्म, भक्ति, प्रपत्ति, तथा ये पाँचों समन्वित रूप में सर्वोत्तम मोक्ष के साधन हैं।
- उनके अनुसार जीवनमुक्ति नहीं होती, विदेहमुक्ति ही होती है। मोक्ष प्राप्त करने पर जीव यद्यपि ब्रह्म में मिल जाता है, पर उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व लुप्त नहीं होता है, बना रहता है। इस लिये कहा जाता है कि शक्ति और शक्तिमान में अभेद है। भक्त भगवान् के पास पहुँचेगा भगवान् नहीं हो सकता, भक्त भगवान् बनकर सृष्टि नहीं कर सकता।
- निम्बार्काचार्य ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग में ही समन्वय स्थापित नहीं करते, अपितु भेदपरक तथा अभेदपरक श्रुति वचनों में तथा चेतन और अचेतन के द्वैत को ब्रह्माचर्य बताकर द्वैतवादी और अद्वैतवादी दर्शनों में भी एक साथ समन्वय ला देते हैं। धर्म, आचार, दर्शन आदि को एक साथ समन्वित करने में भी उनका विशेष योगदान है। उनके दर्शन में सभी वर्णों और आश्रमों को उचित स्थान भी मिला है। उनका भेदाभेदवाद नाम ही समन्वयात्मक पद्धति का द्योतक है। विरोधी बातों में संगति और सामंजस्य स्थापित करना उनका मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है। इनका मत काफी प्रभावशाली रहा है- अचिन्त्य भेदाभेद, शाक्त मत तथा विज्ञानभिक्षु का मत इनसे काफी प्रभावित रहे हैं।