सांख्यकारिका 1 मूलपाठ, अर्थ व व्याख्या
सांख्यकारिका 1 मूलपाठ, अर्थ व व्याख्या
दुखःत्रयाभिधाताज्जिज्ञासा तदपधातके हेतौ ।
दृष्टे साऽपार्था चेन्नैकान्तात्यन्तोऽभावात्।। का0-1
अन्वय
दुःखत्रयाभिघातात्तद्घघातकेहेतौजिज्ञासा (भवति)
दृष्टेसाऽपार्थाचेत्, न,
अर्थ-
त्रिविध दुखः का जीव मात्र से असह्य
सम्बन्ध होने से उस (दुःखत्रय) को शान्त करने के उपाय के विषय मे जिज्ञासा होती
है। यदि कोइ ऐसा मानता है कि (दुःखशमन) के लौकिक उपायो के होने पर वह जिज्ञासा
व्यर्थ है तो ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है; क्योकि
लौकिक उपाय से दुःख की आवश्यक रूप से एवं सदा के लिए शान्ति नही होती है। (अतः वह
जिज्ञासा सार्थक है।)
शारदाव्याख्या-
श्रीगणपति कछु गुनगन गाऊँ। मातु शारदा सतत मनाऊँ।।
गुरुहनुमन्त चरन रज आँजूँ। जिनकी कृपा शारदा
साजूँ।।
परमकृपा पूर्वक अज्ञान सागर मे डूबते हुए जीवां
के कैवल्यार्थ निर्माणचित्त का आश्रय लेकर सिद्धेश ब्रह्मापुत्र कपिल ने जिस
पवित्र सांख्य शास्त्र का उपदेश आसुरि को दिया और वही ज्ञान आसुरि ने अपने शिष्य
पंचशिख को दिया पंचशिख ने जिसका षष्टितन्त्र के माध्यम से खूब विस्तार किया वही
ज्ञान जैगीषव्य, वार्षगण्य विन्ध्यवासादि शिष्य प्रशिष्यों की
परम्परा से पुष्पितपल्लवित हुआ।
पाठान्तर संकेत 1 -तदभिधाते-गौडपाद, माठर; तदवधातके-जयमंगला
वही ज्ञान जो षष्टितन्त्र मे उपनिबद्ध था उसी का प्रकाशन आचार्य ईश्वरकृष्ण नें सांख्यकारिका' में किया है। उसमें सांख्यशास्त्र विषयक जिज्ञासा की प्रयोजन की अर्थवत्ता प्रतिपादनार्थ ईश्वरकृष्ण ने कहा है दुखः त्रयेति-
दुखःत्रयाभिधातात्-
- दुखानां त्रयम् तेषाम् अभिधातःतस्मात् अपघातके हेतौ जिज्ञासा भवति अर्थात तीन तरह के दुःख से बुद्धिप्रतिविम्बित पुरूष का असहनीय संम्बन्ध होता है अतः उन तीनो तरह के दुःखों के शमन के विषय मे जिज्ञासा होती है। दुखः क्या है ऐसी अपेक्षा होने पर कोई कहता है दुःखयतीतिदुःखम् पतंजलि ने कहा है प्रतिकूल वेदनीयता ही दुःख है, जो अपने लिए अप्रीतिकर हो।
- वही दुःख है। न्याय के अनुसार तो 'बाधना लक्षणम् दुःखम्' अर्थात परिताप ही दुःख है। दुःख सुख का अभाव नही है; बल्कि यह वास्तविकरूप से अनुभूयमान है। इसके प्रति विर्कषण की भावना प्रत्येक व्यक्ति के मन मे रहती है। इसके परिणाम है-प्रतिकुलता, वस्तु, के प्रति विकर्षण और दैन्य आदि। दुःख रजोगुण का परिणाम भेद है दुःख तो अप्रीतिकर है ही वस्तुतः अनुभूयमान सुख भी परिणाम, संस्कार और तापदुःखता के कारण दुख ही है।
- सर्वं दुःखं विवेकिनः ऐसा पतंजलि ने कहा है।दुःख का स्वरूप तो वार्णित हो चुका उसके भेद का विवेचन क्रम प्राप्त है। दुःख भेद निर्देश तो दुःखत्रय कहकर कारिका मे ही हुआ है अर्थात दुःख के तीन भेद है किन्तु ये तीन भेद कौन कौन है? इसविषयमेगौडपादभाष्यमेंकहागयाहै-
“तत्रदुःखत्रयम्आध्यात्मिकम्,आधिभौतिकम्,आधिदेविकम् चेति ।
तत्राध्यात्मिकंद्विविधम् शारीरंमानसंचेति ।
शारीरंवातपित्तश्लेष्मविपर्ययकृतंज्वरातीसारादि।
मानसंप्रियवियोगाप्रियसंयोगिादि। आधिभौतिकंचतुर्विधभूतग्रामनिमित्तंमनुष्यपशुपक्षीसरीसृपदंशमशक यूकामत्कुणमत्स्यमकरग्राहस्थावरेभ्योजरायुजाण्डजस्वेदजोज्जेभ्यः सकाशादुपजायते।
आधिदैविकं-देवानामिदंदैवम्,दिवःप्रभवतीतिवादैवं, तदधिकृत्ययदुपजायतेशीतोष्णवातवर्षाशनिपातादिकम्।
अर्थात दुख तीन है आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक ।
आध्यात्मिक दुःख के दो भेद है- 1. शारीरिक 2. मानसिक। वात, पित्त और कफ के वैषम्य से उत्पन्न ज्वर अतिसार आदि शारीरिक दुख है। प्रिय वस्तु के वियोग एवं अप्रिय के संयोग से उत्पन्न होने वाले दुःख को मानसिक कहते हैं।
- आधिभौतिक दुःख चारो प्रकार कि भूत समूह के कारण होता है। जो मनुष्य पशु, पक्षी, सरीसृप, दंश मच्छर, जूँ, खटमल, मछली, मकर, ग्राह और स्थावर से उत्पन्न होता है। यह दःख जरायुज, अण्डज, स्वदेज, और उद्भिज्ज इन चतुर्विध सृष्टि से उत्पन्न होता है। दैविक दुःख वह है जो दैव (देवताओं अथवा द्युलोक) के कारण होता है। ये है शीत, वर्षा, बज्रपातादि। तत्वकौमुदी में आध्यात्मिकदुःख का अर्थ किया गया हैअन्तरोपायसाध्यत्वादाध्यत्मिकं दुःखम्, आधिदैविकं तु यक्षराक्षस विनायकग्रहाद्यावेशनिबन्धनम् दुःखत्रय का अभिधात जीव मात्र को होता है जो भी शरीरी है उन सभी को इन दुःखो का अभिघात सहना पड़ता है। इस अभिधात से क्या आशय है ?
- इसका उत्तर तत्व कौमुदीकार यों देते है- दुःखत्रयेण अन्तःकरणवर्तिना चेतनाशक्तेः प्रतिकूल वेदनीयतयाभिसम्बन्धोऽभिधात इति अर्थात अन्तः करण मे वर्तमान और अनिष्ट रूप से अनुभूयमान त्रिविध दुःख के साथ चेतन पुरूष के असह्य सम्बन्ध को अभिधात कहते है।" दुःख अनिष्ट से अनुभूयमान है अतः हेयः है उसके निर्वतन के विषय मे जिज्ञासा करना ठीक है। दुःख का विनाश सम्भव है। अतः उसके शान्त करने या विनाश करने के साधन के विषय मे जानने की इच्छा होती है।
दृष्टे सा अपार्था चेत्
- अर्थात यदि पूर्वपक्षी यह कहता है दुःख के
विनाश के प्रत्यक्ष सिद्ध लौकिक उपायो के रहते दुःख शान्ति करने के साधन विषयक
जिज्ञासा बेकार है। क्योकि तीनो दुःखो मे से आध्यात्मिक दुःख के शमन का लौकिक उपाय
आयुर्वेद शास्त्र मे प्रतिपादित कटु कसाय तिक्त क्वाथआदि है और प्रिय का समागम और
अप्रिय का परिहार है। आधिभौतिक दुःख के समन का लौकिक उपाय रसादिका प्रयोग है।
आधिदैविक दुःख का मणिमन्त्रौषधि आदि द्वारा विनाश देखा गया है। अतः
सांख्यशास्त्रविषयक जिज्ञासा व्यर्थ है । यदिपूर्वपक्षी ऐसी आशंका करता है तो
न-अर्थात दुःख शमन के साधनों में जिज्ञासा करना निरर्थक नहीं है वल्कि वह जिज्ञासा
सार्थक है क्योकि,-
एकान्तात्यन्तोभावात्
एकान्तश्च अत्यन्तश्च एकान्तात्यन्तौ तयोः
अभावः तस्मात् -
- अर्थात् लौकिक साधनो से दुःखत्रय की एकान्त रूप से और आत्यन्तिक रूप से निवृत्ति नही होती है। शान्ति नही होती है एकान्त का तात्पर्य है दुःखनिवृत्तेरवस्यम्भावः (तत्वकौमुदी) दुःख का आवश्यक रूप निवृत्त होना ही एकान्त निवर्तन है। यह जरूरी नही कि दुःख लौकिक साधनों से आवश्यक रूप से शान्त ही हो जाय।
- कैन्सर शरीरिक दुःख है अवस्था विशेष मे पहुंचने पर वह अवश्य रूप निवर्तनीय नही रह जाता है। इसी प्रकार लौकिक साधनो से दुःखत्रय की अत्यन्त रूप से निवृत्ति नही होती है। अत्यन्त का अर्थ है-अत्यन्तो-निवृत्तस्य दुःखस्य पुनरनुत्पादः (तत्वकैामुदी) शान्त हुए दुःख का फिर उत्पन्न न होना ही आत्यन्तिक निवृत्ति है किन्तु दुख की आत्यन्तिक निवृत्ति नही होती है अतः दुःख को एकान्तिक एवं आत्यन्ति रूप से शान्त करने के साधन के विषय मे जिज्ञासा सार्थक है।
विशेष
1- दुःखत्रय का उपन्यास करके जहाँ नैराश्य से शुरूवात है वही उसके विनाश के कारण की जिज्ञासा का प्रतिपादन कर मंगलाचरण करते हुए आशावाद का संचार भी किया गया है।
2. सांख्यशास्त्र सप्रयोजन है।
पूर्वापर सम्वन्ध- लौकिक उपाय से दुःखत्रय की शान्ति न हो किन्तु वैदिक उपाय से उसके शान्त होने की आशंका होने पर कहा गया है