सांख्य दर्शन संक्षिप्त इतिहास एवं तत्वमीमांसा
सांख्य दर्शन का संक्षिप्त इतिहास
- सांख्य दर्शन सर्वप्राचीन आस्तिक दर्शन है। इसके प्रवर्तक महर्षि कपिल हैं। सांख्य का अर्थ है तत्वों की गणना व तत्व का ज्ञान। सांख्य का व्युत्पत्ति परक अर्थ है संख्यायन्ते गण्यन्ते तत्वानि येन तत् सांख्यम् अर्थात जिसमे तत्वों की संख्या गिनी जाती है वह सांख्य है। सांख्य का दूसरा व्युत्पत्त्पिरक अर्थ है। संख्यायते प्रकृतिपुरूषान्यताख्यातिरूपोऽवबोधो सम्यक् ज्ञायते येन तत् संख्यम् अर्थात जिसमे प्रकृति एवं पुरूष का अन्यताख्याति रूप विवेक ज्ञान होता है वह सांख्य है। महाभारत के अनुसार तत्वों की गणना और तत्वज्ञान दोनों ही सांख्य है।
संख्या प्रकुर्वते चैव, प्रकृति'च प्रचक्षते ।
तत्वानि च
चतुर्विंशत, तेन सांख्यं प्रकीर्तितम्
।।
- सांख्य दर्शन में प्रकृति पुरूष सृष्टि प्रक्रिया, मोक्ष, अज्ञान, आदि का विचार मिलता है। यह सत्य है कि सांख्य का सुव्यवस्थित रूप बाद में बना किन्तु इसके बहुत से सिद्धान्तों की चर्चा वेद उपनिषद, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता तथा पुराणों में मिलती है। ऋग्वेद का पुरूष सूक्त सृष्टि की आध्यात्मिक व्याख्या करता है तो वहीं वाक् सूक्त शक्ति से सृष्टि की व्याख्या करता है। नासदीय सूक्त के तम् असीत तमसा गूढमग्रेप्रकेतं (ऋग्वेद 10.129.3) में सांख्य के अव्यक्त का संकेत मिलता है, यही से साख्य के विचारों के प्रस्फुटित होने का संकेत डॉ0 आद्या प्रसाद मिश्र ने माना है।
- उपनिषदों में तो सांख्य दर्शन में स्वीकृत बहुत से तत्वों का संकेत मिलता है। श्वेताश्वतर उपनिषद में सांख्य के अव्यक्त आदि तत्वों का वर्णन है जैसे देवात्म शक्तिं स्वगुणैनिगूढाम्, पंचाशत् भेदां पंचपर्वामधीमः, व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः, तिलेषु तैलं दधनीव सर्पिः, अजामेकां लोहित शुक्लकृष्णां, मायां प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् । श्वेताश्वतर में ही सर्वप्रथम कपिल ऋषि का नाम आया है- ऋषि प्रसूतं कपिलस्तमग्रे 1। 521 कठोपनिषद् में भी सांख्य के तत्वों का संकेत है।
- सत्कार्यवाद का बीज वृहदारण्यक में मिलता है। इसके अतिरिक्त महाभारत में सांख्य से सम्बन्धित आचार्य परम्परा एवं सिद्धान्तों का वर्णन मिलता है। श्रीमद्भगवत् गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक स्थलों पर सांख्य योग की चर्चा की है। इसके अतिरिक्त सांख्य के सिद्धान्त भागवत्, सौर, सूर्य, लिंग, विष्णु तथा देवी भागवत् पुराणों में भी मिलते हैं।
- अब आप सांख्य के प्रारम्भिक बीज कहां-कहां प्रस्फुटित हुए और इस विषय से परिचित हो गये होंगे। आगे सांख्य की आचार्य परम्परा और साहित्य पर प्रकाश डाला जायेगा।
- यह सर्व स्वीकृत है कि महर्षि कपिल ही सांख्य के प्रवर्तक है। इन्हे ब्रह्मा का पुत्र, अग्नि का अवतार, और नारायण का अवतार, बताया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने को सिद्धों में कपिल मुनि कहा है- सिद्धानां कपिलो मुनिः इन्हें सिद्धेश, निर्माणचित्त का आश्रय लेकर पवित्र सांख्य का उपदेश करने वाला आदिविद्वान् कहा जाता है। डॉ सुरेशचन्द श्रीवास्तव के अनुसार पिशंग वस्त्र धारण करना कदाचित् कपिल के नामकरण का भी एक कारण हो, क्योंकि कपिल और पिशंग शब्द पर्यायवाची है। इन्होने निर्माणचित्त का आश्रय लेकर आसुरि को पवित्र सांख्य ज्ञानात्मक तंत्र का उपदेश किया। आज भी विश्व दार्शनिक समुदाय कपिल के स्थापित सिद्धान्तों के सामने नतमस्तक है। क्योंकि वे दर्शन के कई अंगो यथा तत्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा व नीति मीमांसा को दर्शन का अनिवार्य अंग मानें। आज भी यही तीनों अंग दर्शन के आधारभूत अवयव माने जाते हैं। तत्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा व नीतिमीमांसा को सर्वप्रथम प्रस्तुत करके इन्होने दर्शन जगत का बहुत ही उपकार किया है। आचार्य कपिल के नाम से कई ग्रन्थों को कुछ लोग जोड़ते हैं जैसे सांख्यप्रवचनसूत्र और तत्वसमास। सांख्यप्रवचनसूत्र किसी परवर्ती आचार्य की रचना है। तत्वसमास को कुछ विद्वान कपिल की रचना मानते हैं और कुछ इसे दूसरे आचार्य की रचना मानते हैं.
- आचार्य कपिल के बाद उनके शिष्य आसुरि का नाम सांख्याचार्य के रूप में मिलता है। माठर वृत्ति के अनुसार अत्यन्त ही कारूण्य भाव से बार-बार आग्रह करके गृहस्थ धर्म में आसक्त आसुरि को कपिल ने अपना शिष्य बनाया और उन्हे पवित्र तंत्र (सांख्यशास्त्र) का उपदेश किया।
आसुरि ने पंचशिख
को अपना शिष्य बनाया। इन्हे पांचरात्रविशारद कहा गया है। इन्होने आसुरि से प्राप्त
सांख्य को षष्टितन्त्र में प्रकाशित किया और बहुत से शिष्यों को उसे पढ़ाया।
पंचशिख के द्वारा लिखा गया षष्टितंत्र नामक ग्रन्थ आज नहीं मिलता है किन्तु पंचशिख
के विचार परवर्ती ग्रन्थों में मिलते है। उनमें कुछ इस प्रकार है -
1. स्यात् स्वल्पः सङ्करः सपरिहारः सप्रत्यवर्ष ख्यातिमेव दर्शनम्योगसूत्र । ( तत्व कौमुदी)
2. एकमेव दर्शनं
- पंचशिख के अनन्तर जैगीषव्य का नाम मिलता है। जैगीषव्य परम योगी थे इन्होने उमा और महेश को भी योग का प्रदर्शन कर आश्चर्य चकित किया था। इसके अतिरिक्त वार्षगण्य, विन्ध्यवास असितदेवल आदि को भी सांख्याचार्य के रूप में माना गया। वार्षगण्य के बाद प्रसिद्ध सांख्याचार्य के रूप में ईश्वरकृष्ण का ही उल्लेख मिलता है इन्हें कपिल के द्वारा उपदिष्ट मूल सांख्यीय विचार धारा का अनुयायी माना जाता है। इन्होने सांख्यकारिका नामक प्रमुख ग्रन्थ लिखा जिसके ऊपर वर्तमान सांख्य दर्शन का स्वरूप अवलम्बित है। स्वयं ईश्वरकृष्ण ने कहा है मैनें पवित्र सांख्य का संकलन आख्यायिका आदि से रहित सांख्यकारिका में किया है। इसमें कुल 72/73 कारिकायें हैं।
- सांख्यकारिका को सांख्यसप्तति, हिरण्यसप्तति, कनकसप्तति, सुवर्णसप्तति भी कहा जाता है। इसी ग्रन्थ पर आधृत सांख्य के स्वरूप से हम परिचित हैं। शंकराचार्य ने सांख्य का खण्डन करते समय सांख्यकारिका से उद्धरण दिये हैं। सांख्यकारिका पर अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं। माठरवृत्ति, गौडपादभाष्य, जयमंगला, तत्वकौमुदी युक्तिदीपिका आदि प्राचीन टीकाएँ है। इस ग्रन्थ पर कुछ नवीन टीकाएँ भी हैं जैसे बालराम उदासीन की विद्वततोषिणी, वंशीधर मिश्र का साख्यतत्वदिवाकर, श्रीकृष्णबल्लभाचार्य की किरणावली, शिवनारायणशास्त्री की सारबोधिनी, हरीराम शुक्ल की सुषमा, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र की सांख्य तत्व कौमुदीप्रभा (हिन्दी में) आदि। इनके अतिरिक्त सांख्यसूत्रवृत्ति, महादेव का सांख्यसूत्रविस्तर, नागेश की लघुसांख्यसूत्रवृत्ति, विज्ञानभिक्षु का साख्यप्रवचनभाष्य तथा सांख्यसारः इत्यादि ग्रन्थ भी सांख्य से सम्बन्धित ग्रन्थ है।