सांख्य सम्मत सृष्टि प्रक्रिया
सांख्य सम्मत सृष्टि प्रक्रिया
- सांख्य की सृष्टि प्रक्रिया पर विचार करना अपेक्षित है। सांख्य की सृष्टि प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रकृति पुरूष सम्बन्ध व सृष्टि क्रम पर विचार किया जायेगा।
प्रकृति पुरूष सम्बन्ध -
- सांख्य दर्शन द्वैतवादी दर्शन है प्रकृति एवं पुरूष के सम्बन्ध से प्रकृति में गुणक्षोभ होता है। और सरूप परिणाम वाली प्रकृति निरूप परिणाम वाली होकर व्यक्त का प्रसव करती है। प्रकृति त्रिगुणात्मिका अविवेकी विषय सामान्य अचेतन और परिणामी है। पुरूष तत्व निर्गुण विवेकी भोक्ता असाधारण चेतन और अपरिणामी है। प्रकृति अचेतन है। और क्रियाशील है। पुरूष चेतन है। और निष्क्रिय है। दोनों में संयोग के कारण अचेतन प्रकृति के विकार महत आदि में चैतन्य भास होता है। और प्रकृति में कर्तृत्व आदि की प्रतीति। प्रकृति जो अचेतन है तथा पुरूष जो चेतन है। दोनों का संयोग क्यों होता है। इसपर सांख्य कारिका में कहा गया है-
पुरूषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य
पड्ङ्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत् कृतः सर्ग ।। का0-21
- पुरूष द्वारा प्रधान को देखने के लिए और प्रधान द्वारा पुरूष का कैवल्य कराने के लिए लंगड़े व अन्धे की तरह दोनो का संयोग होता है। उन दोनो के संयोग का फल सृष्टि है। पुरूष का प्रकृति के साथ जो संयोग है वह प्रकृति को देखने के लिए होता है। प्रकृति महत् से महाभूत पर्यन्त जो सृष्टि है उसे पुरूष देखता है। और प्रकृति का पुरूष के साथ जो संयोग है। वह पुरूष का कैवल्य सम्पन्न कराने के लिए है। इन दोनों का सम्बन्ध पंगु और अँधे की तरह से होता है। पुरूष पंगु है और प्रकृति अँधी है। जैसे गमन करने में असमर्थ पंगु एवं देखने में असमर्थ अँधा व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्तकर वियुक्त हो जाते हैं। वैसे ही क्रिया रहित दर्शन शक्ति वाले पुरूष और क्रियावती किन्तु दर्शन शक्ति रहित प्रकृति भी अपने अपने दर्शन और कैवल्य रूप प्रयोजन को सम्पन्न करके वियुक्त हो जाते है। प्रकृति और पुरूष का सम्बन्ध सप्रयोजन है। सोद्देश्य है। संयोग का अर्थ वाचस्पति के अनुसार प्रकृति और पुरूष की सन्निधि है। डॉ संगम लाल पाण्डेय के अनुसार जब तक पुरूष और प्रकृति का विवेक नहीं हो जाता तब तक कैवल्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। विवेक प्राप्ति के लिए पुरूष को प्रकृति की आवश्यकता है। पुरूष और प्रकृति की आवश्यकताओं में भोगों में एकता है। पुरूष जिस विवेक को चाहता है। उसी को प्रकृति भी चाहती है। इसी कारण दोनों का संयोग होता है।। प्रकृति और पुरूष दोनों एक दूसरे का उद्देश्य पूरा करते है। चेतनाशून्य दूध बछड़े के पोषण के लिए गाय के शरीर से प्रस्रवित होता है, वैसे ही ज्ञानशून्य (अचेतन) प्रकृति का परिणाम पुरूष के कैवल्य के लिए है 2 प्रकृति और पुरूष का संयोग अनादि है। यह देश और काल में घटित होने वाला नहीं है। प्रकृति और पुरूष के सम्बन्ध की व्याख्या करने के लिए यह उदाहरण भी दिया जाता है- जैसे चुम्बक के सन्निधि मात्र से ही लोहे के टुकड़ों में गतिशीलता होती है। ठीक ऐसे ही पुरूष की सन्निधि मात्र से ही प्रकृति विरूप परिणाम वाली होती है।
1. भारतीय दर्शन का सर्वेक्षण पृष्ठ 231 2. सांख्यकारिका 57
- पुरूष का सम्बन्ध विशेष रूप से प्रकृति के परिणाम बुद्धि से होता है। लेकिन इस सम्बन्ध का स्वरूप स्पष्ट करना कठिन है। बुद्धि करणों में सूक्ष्म है। इसी में पुरूष की छाया पड़ती है। जिसके कारण बुद्धि चेतनावति हो जाती है। और वह पुरूष स्वरूपा हो जाती है। ऐसी बुद्धि पुरूष के लिए भोग को उत्पनन करती है। बुद्धि के द्वारा ही पुरूष सुख-दुःख मोहात्मक संसार से भोक्ता या साक्षी के रूप में जुड़ता है। जो बुद्धि प्रकृति का भोग सम्पन्न करती है वही बुद्धि अन्त में प्रकृति और पुरूष का विभेद ज्ञान भी उत्पन्न करती है।। बुद्ध और पुरूष के सम्बन्ध का निरूपण भी जटिल है पुरूष और लिंग शरीर का संयोग देश और काल में घटित होने वाला नहीं है किन्तु दोनों में संयोग के अनन्तर अचेतन लिंग शरीर चेतन सा हो जाता है और निष्क्रिय पुरूष कर्ता और भोक्ता सा हो जाता है। सांख्य दर्शन ने प्रकृति और पुरूष के संयोग की संतोष जनक व्याख्या नहीं की है। ऐसा विद्वानों का मत है। प्रकृति और पुरूष का संयोग सोद्देश्य है। और इन दोनों के संयोग का फल है सृष्टि। जब तक प्रकृति और पुरूष का संयोग रहता है। तब तक सृष्टि की स्थिति रहती है। दोनों का वियोग होने पर प्रलय की स्थिति होती है।
सृष्टिक्रम -
- प्रकृति एवं पुरूष के संयोग का फल है सृष्टि। गुणक्षोभ होने पर प्रकृति में विरूप परिणाम होता है। तब प्रकृति से महत्, उससे अंहकार, अहंकार से 11 इन्द्रियां और पांच तन्मात्र, और पांच तन्मात्राओं से पांच महाभूत उत्पन्न होते हैं। चूंकि ये 23 तत्व निश्चित क्रम से ही उत्पन्न है। अतः उनपर उसी क्रम से वर्णन किया जायेगा।
महत् तत्व -
- यह प्रकृति से उत्पन्न होने वाला प्रथम तत्व है। मति ख्याति प्रत्यय उपलब्धि और प्रज्ञा पर्याय है। यह विश्व का बीज है। समष्टि रूप में इसे महत् कहते है। व्यष्टि रूप में बुद्धि । का इसका स्वरूप अध्यवसाय है। सामने दिखलाई पड़ने वाला व्यक्ति राम ही हैं। ऐसा निश्चय अध्यवसाय है। अध्यवसाय करने वाला तत्व बुद्धि है। बुद्धि के सात्विक और तामस दो रूप है। सात्विक बुद्धि के चार अंग है- धर्म ज्ञान विराग और ऐश्वर्य। तामस बुद्धि के भी चार अंग हैं- अधर्म अज्ञान राग और अनैश्वर्य इस प्रकार बुद्धि आठ अंगों वाली है। धर्म से उर्ध्व लोक की प्राप्ति होती है। अधर्म से अधोगति होती है। ज्ञान से अपवर्ग होता है। और अज्ञान से बन्धन होता है वैराग्य से प्रकृति लय की अवस्था होती है। रजोमय राग से संसरण होता है। एश्वर्य से इच्दा की सफलता तथा अनैश्वर्य से इच्छाओं का हनन होता है। बुद्धि पुरूष के लिए सभी विषयों के भोग का संपादन करती है। और वही प्रकृति और पुरूा का ज्ञान ही भेद सम्पन्न करती है। विपर्यय अशक्ति तुष्टि सिद्धि ये प्रत्यय सर्ग हैं। विपर्यय के पांच भेद हैं। 28 भेद अशक्ति के हैं। त्रुष्टि के 9 भेद हैं सिद्धि के 8 भेद है। इस प्रकार प्रत्यय सर्ग के कुल 50 भेद है।
अहंकार तत्वः-
- महत् से उत्पन्न होने वाला तत्व अहंकार है। अहंकार को अभिमान कहते हैं। रूप आदि विषयों में अभिमान अहंकार है। जैसे मैं रूपवान हूँ ये विषय मेरे लिण् है मैं इसे करने में असमर्थ हूँ यह सब अभिमान है। और ये सब अहंकार के असाधारण धर्म है। अहंकार के तीन भेद है। 1. सात्विक अहंकार- इसे वैकृत अहंकार कहते हैं। 2 तामस अहंकार- जिसे भूतादि अहंकार कहते हैं।
1. सांख्यकारिका
- राजस अहंकार इसे तैजस भी कहते हैं। अहंकार से दो तरह की सृष्टि होती है। सात्विक अहंकार से 11 इन्द्रियों का समूह उत्पन्न होता है। तथा तामस अहंकार से 5 तन्मात्राएँ उत्पन्न होती है। सात्विक और तामस अहंकार का सहयोगी राजस अहंकार है।
11 इन्द्रिय तत्व -
- सात्विक अहंकार से इन्द्रियाँ उत्पन्न होती है। इन्द्रिय का अर्थ माठर के अनुसार विषयों में द्रवित होने वाले तत्वों से है। इन्द्रियां तीन तरह की हैं 1. ज्ञानेन्द्रिया, 2. कर्मेन्द्रियाँ और 3. उभयेन्द्रिय मन। ज्ञानेन्द्रिया पांच है- श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण । श्रोत्र शब्दका, त्वचा स्पर्श का, नेत्र रूप का, जिह्वा रस का और घ्राण गन्ध का आलोचन करती है। कर्म इन्द्रियाँ 5 है वाक्, पाणि, पाद्, पायु उपस्थ । इनका व्यपार क्रमशः बोलना, ग्रहण करना, गमन करना, विसर्जन करना और रमण करना है। पांचों ज्ञानेन्द्रियां एवं पांच कर्मेन्द्रियां मिलकर दस वाह्येन्द्रियां कही जाती है। इन्हे बाकरण भी कहते हैं। उभयेन्द्रिय मन है जो अन्तरिन्द्रिय है। यह उभ्यात्मक है। इसका व्यापार संकल्प और विकल्प है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- इन्द्रियाणां मनश्चास्मि । महत् अहंकार और मन को अन्तः करण कहते है। ज्ञानेन्द्रियों और अन्तः करण की ज्ञान में बड़ी भूमिका है। अन्तःकरण ही मुख्य हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ अमुख्य ।
पंच तन्मात्रः-
- तामस अहंकार से 5 तन्मात्र उत्पन्न होते हैं। तन्मात्र का अर्थ सूक्ष्म है। यह प्रत्यक्ष नहीं होते है। अनुमान के विषय हैं। ये हैं शब्द तन्मात्र, स्पर्श तन्मात्र, रूप तन्मात्र, रस तन्मात्र और गन्ध तन्मात्र । तन्मात्र अविशेष कहे जाते हैं।
पंच महाभूतः-
- पंच तन्मात्रों से पांच महाभूत उत्पन्न होते हैं। शब्द तन्मात्र से अकाश महाभूत उत्पन्न होता है। उसमें शब्द गुण होता है। शब्दतन्मात्रसहित स्पर्श तन्मात्र से वायु उत्पन्न होता है। उसमें शब्द और स्पर्श गुण होते हैं। शब्दस्पर्शतन्मात्रसहित रूप तन्मात्र से अग्नि उत्पन्न होता है। उसमें शब्द, स्पर्श और रूपगुण होते हैं। शब्दस्पर्शरूपसहित रस तन्मात्र से जल उत्पन्न होता है। उसमें शब्द स्पर्श रूप और रस गुण होता है। शब्दस्पर्शरूपरसतन्मात्रसहित गन्ध तन्मात्र से पृथ्वी उत्पन्न होती है। इसमं शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध गुण होता है। ये महाभूत शान्त घोर मूढ होते हैं। ये विशेष कहे जाते हैं। ये प्रत्यक्ष के विषय हैं। महत से अहंकार मन श्रवण त्वक नेत्र जिह्वा और नासिका वाक् पाणि पाद पायु उपस्थ शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी ये सब व्यक्त पदार्थ हैं। ये सभी व्यक्त पदार्थ प्रकृति के समान भी हैं और असमान भी हैं। प्रकृति जैसे त्रिगुणात्मिका, अविवेकी, विषय, सामान्य अचेतन और नित्यपरिणामी है वैसे ही ये व्यक्त भी सुख दुःख मोहात्मक अविवेकी विषय सामान्य अचेतन और परिणामी तत्व हैं। जहाँ प्रकृति अहेतुमत नित्य प्रवेश और निःसरण रहित आश्रय स्वतन्त्र निरवयव और अलिंग एक है वहीं ये व्यक्त आदि हेतुमत अनित्य सक्रिय परतन्त्र आश्रित सावयव लिंग और अनेक हैं। इन व्यक्त पदार्थों में बुद्धि अहंकार मन और पाँच तन्मात्रायें प्रकृति और विकृति दोनों हैं जबकि एकादश इन्द्रियाँ और पंचमहाभूत केवल कार्य हैं। प्रकृति अविकृति तत्व है। पुरूष न तो प्रकृति है न तो विकृति है। सांख्य दर्शन के अनुसार इन्हीं पच्चीस तत्वों का खेल पूरी सृष्टि है। सृष्टि इन्ही तत्वों का परिणाम है। सांख्य की सृष्टिप्रक्रिया विकासवादी चक्रिय और सप्रयोजन है यह विकासवादी प्रक्रिया 25 तत्वों का खेल है जो खेल प्रकृति से प्रारम्भ होकर महाभूतों तक समाप्त हो जाता है और पुरूष इसमें द्रष्टा है।