सांख्यकारिका 10 मूलपाठ, अर्थ व व्याख्या
पूर्वापर संम्वन्ध - 8वीं कारिका मे महदादि कार्य और प्रकृति मे कुछ धर्म असमान है ऐसा कहा गया है तो वे असमान धर्म क्या है? ऐसी आकांक्षा होने पर कहते है-
हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्.गम्
सावयवं परतंत्रं व्यक्तं, विपरीतम व्यक्तम् ।। का0.10
अन्वय-
व्यक्तंहेतुमत्, अनित्यम् अव्यापि सक्रियम् अनेकम् आश्रितं लिङ्गं सावयवं परतंत्रम्।
अव्यक्तं विपरीतम्।
अर्थ-
- व्यक्तसकारणअर्थाउत्पन्न, विनाशी, व्याप्त, क्रियाशील, अनेक, स्वकारणमेआश्रित, लिङ्ग अर्थात लययुक्त या प्रधान के ज्ञापक हेतु, अवयव युक्त, और परतन्त्र हैं जबकिअव्यक्त, निष्क्रिय, एक, आश्रय, अलिंग, निरवयव, और स्वतंत्र है।
शारदाव्याख्या-
व्यक्त कार्य है और अव्यक्त कारण है दोनो मे विरूपता है उनमे विरूपता बतलाने के लिए व्यक्त के धर्म को पहले बतलाते है -
- व्यक्तं हेतुमत्-व्यक्त महदादि सकारण है इनका कोई कारण होता है। महत् का कारण प्रकृति है। अहंकार का कारण महत् है। 11 इन्द्रियों एवं 5 तन्मात्राओ का कारण अहंकार है। 5 महाभूतो का कारण 5 तन्मात्राएं है।
अनित्यम्-
- अनित्य का अर्थ है विनाशी। विनाशी होने का अर्थ है अपने कारण मे अन्तर्भूत हो जाना। व्यक्त अपने कारण में लय हो जाने से अनित्य हैं। जैसे प्रलयकाल में महाभूत तन्मात्राओं में, तन्मात्राएं एवं 11 इन्द्रियां अहंकार में, यह भी महत् मे और महत प्रकृति मे अन्तर्भूत हो जाते हैं।
अव्यापि -
- अव्यापि का अर्थ है अव्यापक होना। सभी कार्य परिणामी कारण को व्याप्त नही करते हैं, महदादि परिणाम परिणामी प्रकृति को व्याप्त नही करते है। अतः व्यक्त व्याप्य हैं। सक्रियम्-व्यक्त सृष्टि की दशा मे संसरण करता हैं अतः सक्रिय है। अनेकम्-व्यक्त अनेक हैं। ये महद् आदि 23 तत्व हैं।
आश्रितम्-
- स्वकारणमाश्रयते महद् आदि अपने-अपने कारण मे आश्रय लेते है अतः ये आश्रित है। महत् प्रधान पर आश्रित है। वुद्धि पर अहंकार आश्रित है। अहंकार मे 11 इन्द्रियाँ व 5 तन्मात आश्रित है, तन्मात्रो मे 5 महाभूत आश्रित है। लिङ्गम-इसकी व्याख्या मे गौडपादभाष्यं एवं तत्व कौमुदी मे अन्तर है गौड़पादभाव्यं मे तो-लिङ्ग लययुक्तं लयकाले पंचमहाभूतानि तन्मात्रेषु लीयन्ते च प्रधाने लयं यातीति। कहा गया है। किन्तु तत्व कौमुदी मे इस प्रकार कहा गया है, लिंङ्गं प्रधानस्य अर्थात् ये प्रधान के अनुमान मे हेतु होते है।
सावयम्-
- अवयवों वाला होना ही सावयव है।व्यक्त तत्व सावयव हैं। अवयव शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध ही है उनसे युक्त होने से व्यक्त सावयव है।
परतंत्रम् -
- व्यक्त स्वयं से उत्पन्न नही होते हैं। अतः परतन्त्र है। परतन्त्र का अर्थ पराधीन होना भी है।ये व्यक्त के धर्म व्याख्यात हुए अब प्रकृति की विरूपता दिखलाने के लिए कहते हैं- अव्यक्तं विपरीतम् जिसमें सभी कार्य अप्रकट रूप से कारण मे विद्यमान रहते हैं। वह अव्यक्त है। वह व्यक्त के विपरीत धर्म वाला है। यतः व्यक्त हेतुमद, अनित्य, सक्रिय, अनेक, आश्रित, लिङ्ग, सावयव, तथा परतन्त्र है किन्तु अव्यक्त अहेतुमद्, नित्य, एक, आश्रय, अलिङ्ग, निरवयव तथा स्वतन्त्र हैं।