सांख्यकारिका 2 मूलपाठ, अर्थ व व्याख्या
दृष्टवदानुश्रविकः स ह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः।
तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्।। का0-2
अन्वय-
आनुश्रविकः दृष्टवत्।
हिसः अविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः ।
तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्
अर्थ-
- वैदिक उपाय भी लौकिक उपायों जैसा है क्योकि वह दोष, क्षय और वैषम्य से युक्त है उन दोनों लौकिक/वैदिक) उपायो से भिन्न उपाय प्रशस्त है वह उपाय है। व्यक्त अव्यक्त और ज्ञ के विवेक ज्ञान से उत्पन्न कैवल्य।
शारदाव्याख्या-
अनुश्रविकः अनुश्रूयते इति अनुभवः तत्र भवः आनुश्रविकः गुरू के उच्चारण के अनन्तर सुने जाने से वेदो को अनुश्रव कहते है। उसमे विहित उपाय ही आनुश्रविक है। दुःख विधात के वैदिक उपाय रहते दुःख शमन विषयक जिज्ञासा व्यर्थ है। क्योकि आगम कहता है-
अपामसोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान्।
किं वा नूनमस्मान् तृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृतमर्त्यस्य ।। ऋग्वेद 8.42.3
ऐसा ही संकेत कठोपनिषद् मे भी मिलता है-
- न तत्रं त्वं न जरया विभेति, उमे तीर्खा अशनायापिपासे शोकान्तिगः मोदते स्वर्ग लोके। वैदिक उपाय जो दुःखो के शमन का उद्घोष करते है वह वास्तविक स्थिति नही है वैदिक उपायों से भी दुःख का आत्यन्तिक व एकान्तिक समाधान नही होता है अतः दृष्टवत्-दृष्टेन तुल्यः अर्थात वैदिक उपाय भी दृष्टवत है। जैसे लौकिक उपाय दुःख की आत्यन्तिक एवं एकान्तिक निवृत्ति करने मे समर्थ नही है वैसे ही वैदिक कर्म कलाप भी, दुःख का पूरी तरह से शमन करने में असमर्थ है।
- वैदिक उपाय दुःख का पूरी तरह से शमन करने में असमर्थ क्यों हैं? ऐसी आशंका होने पर कहा है हिसःविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः विशुद्धियुक्तःक्षययुक्तः, अतिशययुक्तश्चते विशुद्धिक्षयातिशययुक्तः। क्योकि वह वैदिक कार्य कलाप अशुद्धि, क्षय और वैषम्यदोषो से युक्त होता है। श्रुति का आदेश है स्वर्गकामो वै यजेत् किन्तु यज्ञां में हिंसा भी विहित है उसमे पशुओ कि हिन्सा होती है जहाँ साधुकर्मो से पुण्य बनता है वहीं हिंसा कर्म से पाप भी बनता है। अतः पाप के भी मिश्रित होने से वह वैदिकर्म मलयुक्त होता है। और सुख के साथ साथ दुःखदायी भी होता है। वैदिक उपाय जन्य स्वर्गादि प्राप्ति भी क्षय दोष से युक्त होती है जीव स्वर्ग मे तभी तक रहता है जब तक पुण्य बना रहता है पुण्य के क्षय होने पर पुनः मृत्यु लोक मे आना पड़ता है गीता कहती है-
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। 9.21
वैदिक उपाय जन्य फल मे वैषम्य भी होता है भिन्न-भिन्न यज्ञों का अलग-अलग फल है कुछ स्वर्ग मे वास देने वाले है तो कुछ वहाँ का अधिपति बनाने वाले हैं। जैसे लोक मे कम सुखी व्यक्ति अधिक सुखी व्यक्ति को देखकर के दुखी होता है वैसे ही स्वर्ग मे भी स्वर्ग के वासी अपने से उच्च स्थिति मे विद्यमान जीव को देखकर दुःखी हो सकते हैं। जैसे सुरूप को देख कर कुरूप दुःखी होता है वैसे ही इन्द्रपद आसीन जीव को देखकर अन्य दुःखी हो सकते हैं। चूँकि लौकिक और वैदिक दोनो ही उपाय दुःख की पूर्ण शान्ति करने में असमर्थ है तो क्या कोइ ऐसा उपाय है ? जो उन दुख का पूर्ण शमन करने में समर्थ हो ऐसी आशंका होने पर कहते है -
तद्विपरितः ताभ्यां विपरीतः श्रेयान्-
- उन दोनों लौकिक एवं वैदिक उपायों से भिन्न उपाय प्रशस्यतर है; क्योकि वह उपाय दुःख का आत्यन्तिक एकान्तिक रूप से शमन करता है और उसमे अशुद्धि, क्षय, और अतिशय भी नही हैं। वह उपाय है व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्. व्यक्तं च अव्यक्तं च ज्ञश्च इति व्यक्ताव्यक्तज्ञाः तेषां विज्ञानम् तस्मात्। व्यक्त अव्यक्त और ज्ञ के विभेदज्ञान से उत्पन्न कैवल्य। व्यक्ततत्व है महत्, अहंकार, 11 इन्द्रियाँ 5 तन्मात्र, 5 महाभूत। अव्यक्त प्रकृति है एक है। ज्ञ पुरूष तत्व है इस प्रकार कुल 25 तत्व है। इन्ही तत्वो के ज्ञान से कैवल्य मिलता है। गौड़पादभाष्य मे भी निर्देश है-
पंचविंशतितत्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसन् ।
जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः ।।
इन पच्चीस तत्वो के अभ्यास से ही केवल्य उत्पन्न होता है इसका 64वीं कारिका मे प्रतिपादन हुआ है।
एवं तत्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाऽहमित्यपरिशेषम्।
अविपर्ययाद्विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ।। 2
पूर्वापर संबन्ध-तत्वो के ज्ञान से उत्पन्न कैवल्य दुःख शमन का साधन है उन 25 तत्वो का पदार्थ चतुष्टय के रूप मे प्रतिपादन करते है।