सांख्यकारिका 3,7 मूलपाठ, अर्थ व व्याख्या
पूर्वापर संम्बन्ध-प्रत्यक्ष प्रमाण का फल स्पष्ट ही है किन्तु अनुमान और शब्द प्रमाण का क्या फल है? ऐसी आकांक्षा होने पर कहते है।
सामान्यतस्तुदृष्टादइन्द्रियाणांरान लमते ज्ञानम्
अन्वय- सामान्यतः दृष्टाद् अनुमानाद् अतीन्द्रियाणां प्रतीतिः। तस्मादपि च असिद्धम् परोक्षम् आप्ताडमात् सिद्धम्।
अर्थ-सामान्यतोदृष्ट अनुमान से अतीन्द्रिय प्रमेयो की उपलब्धि होती है। और उससे अर्थात् सामान्यतोदृष्ट अनुमान से असिद्ध परोक्ष प्रमेय आगम प्रमाण से सिद्ध होते है।
शारदाव्याख्या
- सामान्यतोदृष्टादनुमानादतीन्द्रियाणां प्रतीतिः-सामान्तोदृष्ट अनुमान से इन्द्रियातीत विद्यमान प्रमेयो की सिद्धि होती है। प्रत्यक्ष प्रमाण से इन्द्रियगोचर वर्तमानकालीन विषयों की सिद्धि होती है। इन दोनों कि सिद्धि सामन्तोदृष्टि अनुमान से होती है जैसे महदादि लिंड्.ग त्रिगुणात्मक है त्रिगुणात्मक कार्य जिसके है, वह प्रधान है। इसी प्रकार, क्योकि अचेतन चेतन की तरह प्रतीत होता है अतः इसका संचालक पुरूष है। अनुमान से भूतकालीन, वर्तमानकालीन और भविष्यत्कालीन विषयों का ज्ञान होता है।
1. प्रसिद्धिरनुमानात् - युक्तिदीपिका,
2. साध्यम्- माठरवृत्तिः
- तस्मादपि च असिद्धं परोक्षम् आप्तागमात् सिद्धम्- उस सामान्यतोदृष्टानुमान से जिन अतीन्द्रिय प्रमेयो का ज्ञान नही होता है। उन प्रमेयो की उपलब्धि शब्द प्रमाण से होती है। जैसे स्वर्ग है, नरक है, देवताओं के राजा इन्द्र है, यज्ञ करने से स्वर्ग मिलता है आदि शब्द प्रमाण के द्वारा जाने जाते है।
पूर्वापर संम्बन्ध-प्रमेय विद्यमान रहने पर भी प्रत्यक्ष का विषय क्यो नही होते है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं।
अतिदूरात् सामीप्यादिन्द्रियघातान् मनोऽनवस्थानाच्च ।
सौक्ष्म्याद् व्यवधानादभिभभवात् समानाभिहारात् च ।। का07
अन्वय-अतिदूरात्, सामीप्यात्, इन्द्रियघातात्, मनोऽनवस्थानात्, सौक्ष्म्याद्, व्यवधानाद्, अभिभवात्, समानाभिहारात् च (प्रमेयणाम् उपलबिधः न भवति इति शेषः)।
अर्थ-
अधिक दूर होने के कारण, अधिक समीप होने के कारण, इन्द्रियों के नाश के कारण, चित्त की अस्थिरता के कारण, बीच मे किसी रूकावट के कारण, अभिभूत होने के कारण, और समान मे मिल जाने के कारण (प्रमेयों का प्रत्यक्ष ज्ञान नही होता है)।
शारदाव्याख्या-
विद्यमान होने पर विषयो के प्रत्यक्ष न होने के आठ हेतु है-अतिदूरात्-अधिक दूर होने से वस्तुओ का प्रत्यक्ष नही होता है और विष्णुमित्र का प्रत्यक्ष नही होता है। वान लगते ज्ञानम जैसे देशान्तर मे विद्यमान चैत्र, मैत्र सामीप्यात्-अधिक समीपता के कारण भी प्रमेयो का प्रत्यक्ष ज्ञान नही होता है, जैसे आखो मे लगा हुआ आजन समीप होने के कारण दिखाई नही देता है।
इन्द्रियघातात्-
- इन्द्रियों का घात अर्थात अपने-2 विषय को प्रकाशित करने की शक्ति का नाश होने पर विद्यमान पदार्थोका प्रत्यक्ष नही होता है जैसे अन्धत्व के कारण रूप का ज्ञान नही होता है। मनोऽनवस्थानात् - मन की अस्थिरता से विद्यमान वस्तु भी ज्ञात नही होती है जैसे व्यग्रचित्त व्यक्ति कही गयी बात को अवधारित नही कर पाता है।
- सौक्ष्म्यात्-सूक्ष्म होने के कारण भी विद्यमान वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान नही होता है जैसे इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्यूट्रान कणो का प्रत्यक्ष सूक्ष्म होने के कारण नही होता है। प्रकृति और पुरूष अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं होते हैं।
- व्यवधानात्-व्यवधानात् अर्थात् आड़ मे होने के कारण भी विद्यमान वस्तुओ का प्रत्यक्ष ज्ञान नही होता है जैसे दीवार आदि की ओट में रहने से राज महिषियों का प्रत्यक्ष नही होता है।
अभिभवात्-
- अभिभव अर्थात् तिरस्कृत होने के कारण भी विद्यमान का प्रत्यक्ष नही होता है। जैसे सूर्य के तेज से तिरस्कृत होने से दिन में ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि प्रत्यक्ष के द्वारा नही जाने जाते है।
समानाभिहारात्-
- सदृश वस्तु के साथ मिश्रित होने जाने पर भी विद्यमान वस्तु का प्रत्यक्ष नही होता हैं जैसे-सरोवर केजल में मिली हुई वर्षा की बूँद का प्रत्यक्ष नही होता, मूँग की राशि मे मिला दिये गये मूंग का प्रत्यक्ष नही होता है। उपर्युक्त आठ हेतु वस्तुतः प्रत्यक्ष प्रमाण की सीमाएं है।