सांख्यकारिका 8, 9, मूलपाठ, अर्थ व व्याख्या
पूर्वापर सम्बन्ध - अत्यन्तदूरादि 8 कारणो से प्रमेय का प्रत्यक्ष नही होता है तो प्रकृति का प्रत्यक्ष न होने मे क्या कारण है ? और उसकी उपलब्धता कैसे होती है? ऐसी आंकाक्षा होने पर कहते है-
सौक्षम्यात्तदनुपलब्धिर्नाभावात् कार्यतस्तदुपलब्धेः 1।
महदादि तच्च कार्यं प्रकृतिविरूपं 2 सरूपं च ।। का08
अन्वय-
- सैक्ष्मयात् तदनुपलब्धिः, अभावात् न, कार्यतः तदुपलब्धेः। तच्च कार्य महदादि प्रकृतिविरूपं सरूपं च।
अर्थ-
- सूक्ष्म होने के कारण ही उन प्रकृति और पुरूष का प्रत्यक्ष ज्ञान नही होता है, अभाव के कारण नही, क्योकि कार्य से उस प्रकृति का अनुमानात्मक ज्ञान होता है। और वे कार्य महदादि है (जो) प्रकृति के समान धर्म वाले भी है और उसमे भिन्न धर्म वाले भी है।
शारदाव्याख्या-
- सौक्ष्म्यात् तदनुपलब्धिः सूक्ष्म होने के कारण उन प्रकृति और पुरूष का प्रत्यक्ष के द्वारा सिद्धि नहीं होती है। जो सूक्ष्म पदार्थ हैं उनकी प्रत्यक्ष के द्वारा सिद्धि नही होती है।
- न अभावात्-ऐसा नही है कि प्रकृति और पुरूष ख पुष्प की तरह असत् पदार्थ है अतः उन दोनो का प्रत्यक्ष नही होता हैं। वस्तुतः वे भाव पदार्थ हैं। नित्य है। यदि प्रकृति और पुरूष भाव पदार्थ हैं तो उनकी उपलब्धि कैसे होती है ऐसी आकांक्षा होने पर कहते है कार्यतस्दुपलब्धेः कार्य से उस प्रकृति का अनुमानात्मक ज्ञान होता है जैसे लोक मे कार्य को देखकर उसके कारण का अनुमान होता है वैसे ही प्रकृति का ज्ञान उसके कार्य से होता है। पुरूष के अनुमानार्थ हेतुओं का संघातपरार्थत्वात् 17वी कारिका में कहा जायेगा। कार्य से प्रकृति का ज्ञान होता है। कार्य कौन है ऐसी आशंका होने पर कहा गया है-तच्चकार्यं महदादिः वे कार्य है महदादि 23 तत्व अर्थात् महत् अहंकार, 11 इन्द्रियाँ, 5 तन्मात्र और 5 महाभूत। ये कार्य हैं। इन्ही से प्रकृति का अनुमान होता है।
- प्रकृतिविरूपं सरूपं च - वे महत् आदि कार्य प्रकृति के सदृश धर्म वाले भी है। और प्रकृति से विरूप धर्म वाले भी हैं। जैसे पुत्र पिता के सदृश भी होता है और उससे भिन्न भी होता है वैसे ही महत् आदि कार्य प्रकृति के सदृश भी हैं और भिन्न भी हैं।
असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।। का09
अन्वय-
- कार्यं सत् असदकरणात्, उपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च ।
अर्थ-
- असत् के न उत्पन्न होने के कारण, उपादान कारण का ग्रहण होने के कारण, सभी कारणो से सभी कार्यो की उत्पत्ति असम्भव होने के कारण, समर्थ कारण से ही समर्थ कार्य की उत्पत्ति होने के कारण, कार्य के कारण स्वरूप होने के कारण कार्य उत्पन्न होने के पूर्व भी कारण मे सत् होता है।
तदुपलब्धिः- गौडपादभाष्य , युक्तिदीपिका ।
प्रकृतिविरूपं सरूपं च तत्वकौमुदी
शारदाव्याख्या-
- कार्यं सत् उत्पत्ति के पहले कार्य कारण मे विद्यमान रहता है। यह सिद्धान्त सत्कार्यवाद है इसका प्रयोजन कार्य से प्रकृति की अस्तित्व की सिद्धि है। कारण में कार्य सत् है इसके लिए 5 हेतु दिए गए है।
- अर्थात् जो वस्तु अनस्तित्व वाला होता है उसे किसी भी कारण से उत्पन्न नही किया जा सकता है। जैसे आकाश पुष्प असत् है उसे किसी कारण से नही उत्पन्न किया जा सकता है और करोड़ो शिल्पी मिलकर नीले रंग को पीला नही वना सकते है। अतः जैसे उत्पत्ति के बाद कार्य सत् होता है ठीक वैसे ही उत्पत्ति के पूर्व भी कार्य कारण में सत् होता है।
उपादानग्रहणात् -
- यतः कार्य की उत्पत्ति के लिए सम्बन्धित उपादान का ग्रहण किया जाता है। यह लोक सिद्ध है कि जो व्यक्ति जिस कार्य को चाहता है वह उससे संम्बन्धित उपादान कारण का ग्रहण करता है, जैसे दही को प्राप्त करने के लिए दूध का ही ग्रहण करता है। इससे सिद्ध है कि कार्य उत्पत्ति के पहले कारण मे सत् है।
- यतः सभी कार्यों की सभी कारणो से उत्पत्ति नही होती है अतः यह भी सिद्ध करता है कि कार्य कारण में उत्पत्ति के पहले से ही मौजूद रहता है। जैसे-सुवर्ण की रजत्, तृण, धूल, और बालू से उत्पत्ति नही होती है।
- यतः जो कारण जिस कार्य की उत्पत्ति मे शक्त अर्थात समर्थ होता है उससे उसी शक्य कार्य की उत्पत्ति होती है। अतः सिद्ध होता है कि कार्य कारण मे सत् है, जैसे शक्य तेल, घट, पट, को उत्पन्न करने में क्रमशः तिल, मृत्तिका और तन्तु ही समर्थ हैं।
- यतः कार्य कारणात्मक होता है जो लक्षण कारण का होता है वही लक्षण कार्य का भी होता है। यह सिद्ध करता है कि कार्य कारण मे पहले से विद्यमान है जैसे जौ से जौ ही उत्पन्न होता है, धान से धान ही उत्पन्न होता है, गेहूँ से गेहूँ उत्पन्न होता है।
विशेष-
- कार्य उत्पत्तिपूर्व कारण मे सत् है या असत् है, सदसत् है ? इस प्रश्न के समाधानार्थ भारतीय दर्शन मे कई सिद्धान्त मिलते है। जो मानते है कि कार्य उत्पत्ति के पहले कारण मे सत् है वे सत्कार्यवादी कहे जाते हैं। सत्कार्यवाद को सांख्ययोग और वेदान्त मानता है। सांख्ययोग सत्कार्यवाद के भेद प्रकृति परिणामवाद को मानता है। विशिष्टाद्वैत व्रह्मपरिणामवाद को मानता है। अद्वैतवेदान्त ब्रह्मविवर्तवाद मानता है। जो र्दशन कार्य को उत्पत्ति के पहले कारण में असत् मानते हैं। वे असत्कार्यवादी हैं। वे हैं न्यायवैशेषिक और बौद्धदर्शन। न्यायवैशेषिक आरम्भवादी हैं। ये कार्य को नवीन सृष्टि मानते है। कार्य में उत्पत्ति और व्यय के द्वारा असत्कार्यवाद को सिद्ध करते हैं। वौद्ध क्षणभंगवाद को मानता है। जो कारण मे कार्य को सद् और असद् दोनो मानतं है वे सदसत्कार्यवादी है जैन दर्शन इस सिद्धान्त को मानता है। जैन दर्शन स्यादवाद से सदसत् कार्यवाद को सिद्ध करता है।