वेदान्त दर्शन का ऐतिहासिक स्वरूप | Vedant Philosophy History

Admin
0

 वेदान्त दर्शन का ऐतिहासिक स्वरूप

वेदान्त दर्शन का ऐतिहासिक स्वरूप | Vedant Philosophy History



  • वेदान्त दर्शन की ऐतिहासिकता 
  • अद्वैत वेदांत 
  • विशिष्टाद्वैत वेदांत 
  • द्वैत वैदांत 
  • द्वैताद्वैत वेदांत 
  • शुद्धाद्वैत वेदांत 
  • अचिन्त्य भेदाभेद वेदांत

वेदान्त दर्शन का ऐतिहासिक स्वरूप प्रस्तावना 

  • वेदान्तसार नामक ग्रन्थ के विस्तृत अध्ययन हेतु निर्मित इस खण्ड की यह प्रथम इकाई है। वेदान्तसार नामक ग्रन्थ के गूढ अध्ययन हेतु इस इकाई में आप वेदान्त में वर्णित सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने वाले आचार्यों का परिचय प्रश्रपत करते हुए सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन की ऐतिहासिकता को जानेगें। 
  • गुरू एवं आचार्य के रूप में विश्रुत होंने के लिए उपनिषदों पर जिन आचार्यों नें टीका ग्रन्थ अथवा पुस्तकें लिखकर वेदान्त को अग्रसरित होने में योगदान दिया वे आज भी भारतीय मनीषा में स्मरणीय हैं। 

वेदान्त दर्शन की ऐतिहासिकता 

  • वेदान्त ज्ञानयोग की एक शाखा है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथो और अरण्यक ग्रंथों का सार समझे जाते हैं। वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: अद्वैत वेदांत, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और श्री मध्वाचार्य जिनको क्रमशः इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है, इनके अलावा भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं जिनमें भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बारक, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर, और विज्ञान भिक्षु. आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदांती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, स्वामी शिवानंद और रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं. ये आधुनिक विचारक अद्वैत वेदांत शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे वेदांतो के प्रवर्तकों ने भी अपने विचारों को भारत में भलिभाँति प्रचारित किया है परन्तु भारत के बाहर उन्हें बहुत कम जाना जाता है. 
  • ऐतिहासिक रुप से किसी गुरु के लिये अचार्य बनने / समझे जाने के लिये वेदांत की पुस्तकों पर टीकाएँ या भाष्य लिखने पड़ते हैं। इन पुस्तकों में तीन महत्वपूर्ण पुस्तक शामिल हैं उपनिषद, भगवद गीता, और ब्रह्मसूत्र. तदनुसार आदि शंकराचार्य, रामानुज और मध्वाचार्य तीनों ने इन तीन महत्वपूर्ण पुस्तकों पर विशिष्ट रचनायें दी हैं। 
  • आदिम मनुष्य प्रकृति के रूपों को देखकर आश्चर्य करता है, उनकी पूजा करने का विधान बनाता है। कर्मकांड का इस प्रकार विकास हो जाने पर सुस्थिर चित्त से मनुष्य उनके पीछे कार्य कर रहे नियमों का चिंतन करने लगता है और यहीं उसकी जिज्ञासा प्रारंभ होती है। स्व का पर के साथ संबंध होने पर स्व और पर के वास्तविक स्वरूप तथा उनके पारस्परिक संबंध के बारे में स्वाभाविक जिज्ञासा उठती है। यदि स्व जीव है तो पर को जगत् कहा जा सकता है। स्व और पर में विभिन्नता प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होती है पर प्रत्यक्ष से आगे विचार करने पर मनुष्य स्व-पर में समान रूप से रहनेवाले तत्व विशेष (ब्रह्म) की कल्पना करता है। उपनिषदों में कर्मकांड को 'अवर' कहकर ज्ञान को इसलिए महत्व दिया गया कि ज्ञान स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है। ब्रह्म, जीव और जगत् का ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है। कालांतर में जिन ग्रंथों में उपनिषद् की परंपरा का पालन करते हुए इन विषयों पर विचार किया गया, उनको भी 'वेदांत' कहा जाने लगा। भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र उपनिषदों के साथ मिलकर वेदांत की 'प्रस्थानत्रयी' कहलाते हैं। 
  • तीनों ग्रंथों में प्रगट विचारों का कई तरह से व्याख्यान किया जा सकता है। इसी कारण से ब्रह्म, जीव तथा जगत् के संबंध में अनेक मत उपस्थित किए गए और इस तरह वेदांत के अनेक रूपो का निर्माण हुआ। 
  • वेदान्त दर्शन की आचार्य परम्परा वस्तुतः अत्यन्त प्राचीन है बादरायणकृत वेदान्त सूत्रों में आचार्य बादरायण ने विभिन्न अन्य समकालीन आचार्यों के मत का संग्रह किया है वे विभिन्न मत कहीं तो आचार्य बादरायण के अपने मतों के समर्थक हैं और कही उनसे विरोध दर्शाते है। एवं विध कुछवेदान्ताचार्यो के नाम ज्ञात होते हैं तथा उनके मतो का भी संकेत मिलता है। 

गौडपाद - 

  • यद्यपि अद्वैतवेदान्त की गुरू परम्परा अतिप्राचीन है, किन्तु गोडपाद आचार्य के समय से वह परम्परा ऐतिहासिक प्रामाणिकता को प्राप्त कर लेती है। 
  • वास्तव मे अद्वैतवाद के प्रथम प्रवर्तक आचार्य गोडपाद ही सिद्व होते है। सर्वप्रथम अद्वैतवेदान्त के सिद्वान्तो का क्रमबद्व रूप में प्रतिपादन इन्ही के द्वारा हुआ है। विद्वानों का विचार है कि गौडपाद आचार्य का अद्वैतवाद बौद्ववाद पर आधारित है। डॉ० दास गुप्ता का तो यह विश्वास है कि आचार्य गौडपाद सम्भवतः बौद्व ही थे, किन्तु डॉ० शर्मा का कथन है कि गौडपादाचार्य के मायावाद का मुख्य प्रयोजन बौद्व-दर्शन का समर्थन न होकर उपनिषद् विचारधारा का स्पष्टीकरण है, इसलिए इनके मायावाद को बौद्व शून्यवाद अथवा विज्ञानवाद पर आधारित न मानकर उपनिषद् दर्शन पर ही प्रतिष्ठित मानना चाहिए। 

  • गौडपाद आचार्य की प्रसिद्ध कृति माण्डूक्योपनिषद् पर आधारित माडूक्यकारिका है। यह ग्रन्थ चार प्रकरणों में विभक्त है- 1- आगम प्रकरण 2- नैतथ्य प्रकरण 3- अद्वैत प्रकरण और 4- अतीत शान्ति प्रकरण ।  माण्डूकय कारिका से गौडपाद के दार्शनिक विचारों का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। वह अनादि माया को ही द्वैत कारण मानते है। (सृष्टी के सम्बन्ध में उनका मत है कि वह अनुभाविक रूप से ही सत्य है यथार्थ सत्ता नहीं, वह स्वप्न भ्रन्ति है और समस्त भेद प्रतीतिरूप है) मायिक जगत् के लिए उन्होंने स्वप्न, मरीचिका जल एवं गांधर्व नगर आदि के दृष्टान्त दिये हैं। यथार्थ सत्ता एकमा आत्मा हैं। यह सदैव अजन्मा, जागृत, स्वप्नरहित स्वप्रकाश है। 

  • श्रीयुत बलदेव उपाध्याय माण्डूक्य कारिका के अतिरिक्त उत्तरगीता का भाष्य भी इन्हीं की कृति बताते हैं। इनका काल अधिकांशतः आठवी शताब्दी का प्रारम्भ अथवा सातवीं शताब्दी का अन्त निश्चित किया जाता है। 

गोविन्दपाद - 

  • गौडपादाचार्य के शिष्य तथा आचार्य शंकर के ग गुरू थे, किन्तु इनके विषय में अधिक प्रामाणिकता सामग्री उपलब्ध नहीं हो सकी है। माधवाचार्य ने सवदर्शनसंग्रह में रसेश्वर दर्शन के अन्र्तगत रसहृदय नाम से कुछ श्लोक उद्धृत किये है। श्रीयुत बलदेव उपाध्याय वहाँ उल्लिखत इस ग्रन्थ को गोविन्द की कृति बताते है।

 

आचार्य शंकर – 

  • आचार्य शंकर बौद्विक जगत की वह महिमामय विभूति हैं, जिन्हें पाकर भारत भूमि धन्य हो गई। वे दार्शनिक नाभमण्डल का ऐसा तेजोमय सूर्य सिद्ध हुए जिसके प्रकाश को देश, काल की सीमायें अवरूद्व न कर सकीं। तभी तो वह विश्वव्यापी ख्याती अर्जित कर सके। क्या पौर्वात्य, क्या पाश्चात्य सभी विद्वान उनके ज्ञान की महानता के समक्ष नामित हो गये। डॉ० घाटे ने उन्हें अद्वैतवाद का सर्वोच्च माना है और टोमलिन का कथन है- शंकर उन सअ दार्शनिकों में महान हैं, जिन्हें आज पश्चिम में प्राप्त प्रतिष्ठा की अपेक्षा अधिकतर प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। भाष्य स्तोत्र और प्रकरण इनकी तीन प्रकार की कृतियाँ हैं। 
  • आचार्य शंकर का सिद्वान्त अद्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है। सत्ताओं के पृथक् महत्व को अस्वीकार करना ही अद्वैतवाद है। आचार्य के अद्वैत का मूल- मन्त्र है, " ब्रहमा सत्यं जगन्मिथ्या ।" ब्रहमा के अतिरिक्त अन्य समस्त वस्तुओं को मिथ्या की सिद्वि हेतु उन्होंने मायावाद की स्थापना की। विद्वानों का कथन है कि शंकर का मायावाद गौड. पादाचार्य के मायावाद से प्रभावित है। आचार्य शंकर ने माया शब्द का प्रयोग अविद्या, अज्ञान, भ्रम, मृगतृष्णिका आदि अर्थो में किया है। मायावाद शंकर का वह अमोघ मन्त्र है जिसके द्वारा ब्रहमा और जगत् के सम्बन्ध की पहेली को सुलझा सके है। जगत् ब्रहमा का विवर्तमात्र है जैसे रज्जू में सर्प । 
  • आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध मे आचार्य का मत है कि वह तो स्वतः सिद्व है। अपने अस्तित्व का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति को सदैव रहता है। आत्मा शंकर का दृष्टिकोण निराशावादी अथवा पलायनवादी नहीं है। मोक्षएक व्यवहारिक सत्य है। इसके लिए उन्होंने ज्ञान, कर्म और उपासना आदि सभी की उपादेयता स्वीकार की है। यही कारण है कि शंकर के सिद्वान्त केवल ज्ञानियों और योगिता को ही नही वरन् साधारण मानव को भी प्रभावित करते है। 
  • आचार्य शंकर ने अद्वैत वेदान्त की जिस धारा को गति दी उसे और अधिक प्रगति की ओर उनके योग्य शिष्य प्रशिष्य ले गये। आचार्य शंकर से आगे चलने वाली वेदान्ताचार्यो की पंक्ति अत्यंन्त दीर्घ है। उनमें से कुछ ने वेदान्त साहित्य को अत्यन्त समृद्ध किया। 

वाचस्पति मिश्र- 

  • आचार्य शंकर के समान ही वाचस्पति मिश्र भी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा वाले आचार्य थे । इन्होंने प्रायः आचार्य थे । इन्होंने प्रायः सभी दर्शनों के साहित्य को समृद्व किया । वेदान्त के ब्रहमशंकर शांकरभाष्य पर भामती टीका इनके वेदान्तसार की परिचायिका है। इनका काल नौवीं शताब्दी निश्चित है.

 

विद्यारण्य - 

  • विद्यारण्य मुनि का नाम 'माधव' बताया जाता है। अपने जीवन के प्रारम्भ में यह माधव नाम मन्त्री पद पर कार्य करते रहे। तदुपरान्त सन्यास की दीक्षा लेकर विद्यारण्य नाम से श्रृंगेरी मठ के अध्यक्ष बने। इनका स्थितिकाल 12960 से 13860 तक निश्चित किया जाता है। जीवन्मुक्ति, विवेक तथा पञचदशी विद्यारण्य तथा भारती तीर्थ की सम्मिलित रचना बताई जाती है। आनन्दगिरी - आनन्दगिरी शंकर के प्रधान शिष्यों में से थे। शंकरभाष्य पर न्यायनिर्णय नामक टीका इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है।

 

मधुसूदन सरस्वती – 

  • यह सोलहवीं शताब्दी के प्रसिद्व वेदान्ती हैं। इनकी प्रसिद्ध कृति न्यायामृत की समीक्षा रूप में अद्वैत सिद्द्वी है। यह अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण है। संक्षेपशारीरिकटीका, गूढार्थदीपिका, सिद्वान्तबिन्दु, वेदान्तकल्पलतिका इत्यादि अन्य कृतिया हैं।

 

धर्मराजाध्वरीन्द्र - 

  • 16 वीं शताब्दी के अन्य आचार्य हैं धर्मराजाध्वरीनद्र। इनकी उत्कृष्ट प्रतिभा और विद्वता का परिचायक ग्रन्थ हैं' वेदान्तपरिभाषा'। इसका अध्ययन वेदान्त के प्रमाण सम्बन्धी ज्ञान के लिए आवश्यक तथा उपयोगी है। बेदान्त- परिभाषा पर इनके पुत्ररचित ' शिलामणि ' नामक व्याख्या भी उपलब्ध है। 
  • सदानन्द सदानन्द योगीन्द्र भी 16वीं शताब्दी के वेदान्ताचार्य हैं इनकी ख्यातिप्राप्त कृति वेदान्तसार है। यह सम्पूर्ण वेदान्त सिद्वान्त का परिचायक ग्रन्थ वेदान्त का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह ग्रन्थ अत्यधिक उपादेय है। वेदान्तसार पर नृसिंह सरस्वती ने सुबोधिनी, आपदेव ने बालबोधिनी तथा स्वामी रामतीर्थ ने विद्वन्मनोरन्जन टींकायें रचीं। इन महाविभूतियों के अतिरिक्त अद्वैव वेदान्त साहित्य को अन्य अनेक विद्वानों ने भी समृद्ध किया। इनमें श्रीहर्ष, सर्वज्ञात्मुनि, अत्पदीक्षित, प्रकाशात्मा, ब्रहमानन्द सरस्वती, नारायणतीर्थ, सदानन्द यति प्रभृति का नाम विशेषोल्लेखनीय है।

 

1 अद्वैत वेदांत 

  • (300 ई.) तथा उनके अनुवर्ती आदि शंकराचार्य (700 ई.) ब्रह्म को प्रधान मानकर जीव और जगत् को उससे अभिन्न मानते हैं। उनके अनुसार तत्व को उत्पत्ति और विनाश से रहित होना चाहिए। विद्यालय नाशवान् जगत तत्वशून्य है, जीव भी जैसा दिखाई देता है वैसा तत्वतः नहीं है। जाग्रत और स्वप्नावस्थाओं में जीव जगत् में रहता है परंतु सुषुप्ति में जीव प्रपंच ज्ञानशून्य चेतनावस्था में रहता है। इससे सिद्ध होता है कि जीव का शुद्ध रूप सुषुप्ति जैसा होना चाहिए। सुषुप्ति अवस्था अनित्य है अतः इससे परे तुरीयावस्था को जीव का शुद्ध रूप माना जाता है। इस अवस्था में नश्वर जगत् से कोई संबंध नहीं होता और जीव को पुनः नश्वर जगत् में प्रवेश भी नहीं करना पड़ता। यह तुरीयावस्था अभ्यास से प्राप्त होती है। 
  • ब्रह्म-जीव-जगत् में अभेद का ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत् जीव में तथा जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है। तीनों में वास्तविक अभेद होने पर भी अज्ञान के कारण जीव जगत् को अपने से पृथक् समझता है। परंतु स्वप्नसंसार की तरह जाग्रत संसार भी जीव की कल्पना है। भेद इतना ही है कि स्वप्न व्यक्तिगत कल्पना का परिणाम है जबकि जाग्रत अनुभव-समष्टि-गत महाकल्पना का। स्वप्नजगत् का ज्ञान होने पर दोनों में मिथ्यात्व सिद्ध है। परंतु बौद्धों की तरह वेदांत में जीव को जगत् का अंग होने के कारण मिथ्या नहीं माना जाता। मिथ्यात्व का अनुभव करनेवाला जीव परम सत्य है, उसे मिथ्या मानने पर सभी ज्ञान को मिथ्या मानना होगा। परंतु जिस रूप में जीव संसार में व्यवहार करता है उसका वह रूप अवश्य मिथ्या है। जीव की तुरीयावस्था भेदज्ञान शून्य शुद्धावस्था है। 
  • ज्ञाता- ज्ञेय-ज्ञान का संबंध मिथ्या संबंध है। इनसे परे होकर जीव अपनी शुद्ध चेतनावस्था को प्राप्त होता है। इस अवस्था में भेद का लेश भी नहीं है क्योंकि भेद द्वैत में होता है। इसी अद्वैत अवस्था को ब्रह्म कहते हैं। तत्व असीम होता है, यदि दूसरा तत्व भी हो तो पहले तत्व की सीमा हो जाएगी और सीमित हो जाने से वह तत्व बुद्धिगम्य होगा जिसमें ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भेद प्रतिभासित होने लगेगा। अनुभव साक्षी है कि सभी ज्ञेय वस्तुएँ नश्वर हैं। अतः यदि हम तत्व को अनश्वर मानते हैं तो हमें उसे अद्वय, अज्ञेय, शुद्ध चैतन्य मानना ही होगा। ऐसे तत्व को मानकर जगत् की अनुभूयमान स्थिति का हमें विवर्तवाद के सहार व्याख्यान करना होगा। रस्सी में प्रतिभासित होनेवाले सर्प की तरह यह जगत् न तो सत् है, असत् है। सत् होता तो इसका कभी नाशश् न होता, असत् होता तो सुख, दुःख का अनुभव न होता। अतः सत् असत् से विलक्षण अनिवर्चनीय अवस्था ही वास्तविक अवस्था हो सकती है। उपनिषदों में नेति कहकर इसी अज्ञातावस्था का प्रतिपादन किया गया है। अज्ञान भाव रूप है क्योंकि इससे वस्तु के अस्तित्व की उपलब्धि होती है, यह अभाव रूप है, क्योंकि इसका वास्तविक रूप कुछ भी नहीं है। इसी अज्ञान को जगत् का कारण माना जाता है।
  •  अज्ञान का ब्रह्म के साथ क्या संबंध है, इसका सही उत्तर कठिन है परंतु ब्रह्म अपने शुद्ध निर्गुण रूप में अज्ञान विरहित है, किसी तरह वह भावाभाव विलक्षण अज्ञान से आवृत्त होकर सगुण ईश्वर कहलाने लगता है और इस तरह सृष्टिक्रम चालू हो जाता है। ईश्वर को अपने शुद्ध रूप का ज्ञान होता है परंतु जीव को अपने ब्रह्मरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना के द्वारा ब्रह्मीभूत होना पड़ता है। गुरु के मुख से 'तत्वमसि' का उपदेश सुनकर जीव 'अहं ब्रह्मास्मि' का अनुभव करता है। उस अवस्था में संपूर्ण जगत् को आत्ममय तथा अपने में सम्पूर्ण जगत् को देखता है क्योंकि उस समय उसके (ब्रह्म) के अतिरिक्त कोई तत्व नहीं होता। इसी अवस्था को तुरीयावस्था या मोक्ष कहते हैं।

 

2 विशिष्टाद्वैत वेदांत 

  • रामानुजाचार्य ने (11वीं शताब्दी) शंकर मत के विपरीत यह कहा कि ईश्वर (ब्रह्म) स्वतंत्र तत्व है परंतु जीव भी सत्य है, मिथ्या नहीं। ये जीव ईश्वर के साथ संबद्ध हैं। उनका यह संबंध भी अज्ञान के कारण नहीं है, वह वास्तविक है। मोक्ष होने पर भी जीव की स्वतंत्र सत्ता रहती है। भौतिक जगत् और जीव अलग अलग रूप से सत्य हैं परंतु ईश्वर की सत्यता इनकी सत्यता से विलक्षण है। ब्रह्म पूर्ण है, जगत् जड़ है, जीव अज्ञान और दुःख से घिरा है। ये तीनों मिलकर एकाकार हो जाते हैं क्योंकि जगत् और जीव ब्रह्म के शरीर हैं और ब्रह्म इनकी आत्मा तथा नियंता है। ब्रह्म से पृथक् इनका अस्तित्व नहीं है, ये ब्रह्म की सेवा करने के लिए ही हैं। इस दर्शन में अद्वैत की जगह बहुत्व की कल्पना है परंतु ब्रह्म अनेक में एकता स्थापित करनेवाला एक तत्व है। बहुत्व से विशिष्ट अद्वय ब्रह्म का प्रतिपादन करने के कारण इसे विशिष्टाद्वैत कहा जाता है।

 

  • विशिष्टाद्वैत मत में भेदरहित ज्ञान असंभव माना गया है। इसीलिए शंकर का शुद्ध अद्वय ब्रह्म इस मत में ग्राह्य नहीं है। ब्रह्म सविशेष है और उसकी विशेषता इसमें है कि उसमें सभी सत् गुण विद्यामान हैं। अतः ब्रह्म वास्तव में शरीरी ईश्वर है। सभी वैयक्तिक आत्माएँ सत्य हैं और इन्हीं से ब्रह्म का शरीर निर्मित है। ये ब्रह्म में, मोक्ष हाने पर, लीन नहीं होतीं; इनका अस्तित्व अक्षुण्ण बना रहता है। इस तरह ब्रह्म अनेकता में एकता स्थापित करनेवाला सूत्र है। यही ब्रह्म प्रलय काल में सूक्ष्मभूत और आत्माओं के साथ कारण रूप में स्थित रहता है परंतु सृष्टिकाल में सूक्ष्म स्थूल रूप धारण कर लेता है। यही कार्य ब्रह्म कहा जाता है। अनंत ज्ञान और आनंद से युक्त ब्रह्म को नारायण कहते हैं जो लक्ष्मी (शक्ति) के साथ बैकुंठ में निवास करते हैं। भक्ति के द्वारा इस नारायण के समीप पहुँचा जा सकता है। सर्वोत्तम भक्ति नारायण के प्रसाद से प्राप्त होती है और यह भगवद्ज्ञानमय है। भक्ति मार्ग में जाति- वर्ण-गत भेद का स्थान नहीं है। सबके लिए भगवत्प्राप्ति का यह राजमार्ग है। 

3 द्वैत वैदांत 

  • मध्व (1197 ई.) ने द्वैत वेदांत का प्रचार किया जिसमें पाँच भेदों को आधार माना जाता है। जीव ईश्वर, जीव जीव, जीव जगत्, ईश्वर जगत्, जगत् जगत् इनमें भेद स्वतः सिद्ध है। भेद के बिना वस्तु की स्थिति असंभव है। जगत् और जीव ईश्वर से पृथक् हैं किंतु ईश्वर द्वारा नियंत्रित हैं। सगुण ईश्वर जगत् का स्रष्टा, पालक और संहारक है। भक्ति से प्रसन्न होनेवाले ईश्वर के इशारे पर ही सृष्टि का खेल चलता है। यद्यपि जीव स्वभावतः ज्ञानमय और आनंदमय है परंतु शरीर, मन आदि के संसर्ग से इसे दुःख भोगना पड़ता है। यह संसर्ग कर्मों के परिणामस्वरूप होता है। जीव ईश्वरनियंत्रित होने पर भी कर्ता और फलभोक्ता है। ईश्वर में नित्य प्रेम ही भक्ति है जिससे जीव मुक्त होकर, ईश्वर के समीप स्थित होकर, आनंदभोग करता है। भौतिक जगत् ईश्वर के अधीन है और ईश्वर की इच्छा से ही सृष्टि और प्रलय में यह क्रमशः स्थूल और सूक्ष्म अवस्था में स्थित होता है। रामानुज की तरह मध्य जीव और जगत् को ब्रह्म का शरीर नहीं मानते। ये स्वतःस्थित तत्व हैं। उनमें परस्पर भेद वास्तविक है। ईश्वर केवल इनका नियंत्रण करता है। इस दर्शन में ब्रह्म जगत् का निमित्त कारण है, प्रकृति (भौतिक तत्व) उपादान कारण है। 

 

4 द्वैताद्वैत वेदांत 

  • निंबार्क (11 वीं शताब्दी) का दर्शन रामानुज से अत्यधिक प्रभावित है। जीव ज्ञान स्वरूप तथा ज्ञान का आधार है। जीव और ज्ञान में धर्मी-धर्म-भाव-संबध अथवा भेदाभेद संबंध माना गया है। यही ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। ईश्वरश् जीव का नियंता, भर्ता और साक्षी है। भक्ति से ज्ञान का उदय हो पर संसार के दुःख से मुक्त जीव ईश्वर का सामीप्य प्राप्त करता है। अप्राकृत भूत से ईश्वर का शरीर तथा प्राकृत भूत से जगत् का निर्माण हुआ है। काल तीसरा भूत माना गया है। ईश्वर को कृष्ण राधा के रूप में माना गया है। जीव और भूत इसी के अंग हैं। यही उपादान और निमित कारण है। जीव-जगत् तथा ईश्वर में भेद भी है अभेद भी है। यदि जीव-जगत् तथा ईश्वर एक होते तो ईश्वर को भी जीव की तरह कष्ट भोगना पड़ता। यदि भिन्न होते तो ईश्वर सर्वव्यापी सर्वांतरात्मा कैसे कहलाता ?

 

5 शुद्धाद्वैत वेदांत 

  • वल्लभ (1479 ई.) के इस मत में ब्रह्म स्वतंत्र तत्व है। सच्चिदानंद श्रीकृष्ण ही ब्रह्म हैं और जीव तथा जगत् उनके अंश हैं। वही अणोरणीयान् तथा महतो महीयान् है। वह एक भी है, नाना भी है। वही अपनी इच्छा से अपने आप को जीव और जगत् के नाना रूपों में प्रगट करता है। माया उसकी शक्ति है जिसी सहायता से वह एक से अनेक होता है। परंतु अनेक मिथ्या नहीं है। श्रीकृष्ण से जीव-जगत् की स्वभावतः उत्पत्ति होती है। इस उत्पत्ति से श्रीकृष्ण में कोई विकार नहीं उत्पन्न होता। जीव-जगत् तथा ईश्वर का संबंध चिनगारी आग का सबंध है। ईश्वर के प्रति स्नेह भक्ति है। सांसारिक वस्तुओं से वैराग्य लेकर ईश्वर में राग लगाना जीव का कर्तव्य है। ईश्वर के अनुग्रह से ही यह भक्ति प्राप्य है, भक्त होना जीव के अपने वश में नहीं है। ईश्वर जब प्रसन्न हो जाते हैं तो जीव को (अंश) अपने भीतर ले लेते हैं या अपने पास नित्यसुख का उपभोग करने के लिए रख लेते हैं। इस भक्तिमार्ग को पुष्टिमार्ग भी कहते हैं।

 

6 अचिन्त्य भेदाभेद वेदांत 

  • महाप्रभु चैतन्य (1485-1533 ई.) के इस संप्रदाय में अनंत गुणनिधान, सच्चिदानंद श्रीकृष्ण परब्रह्म माने गए हैं। ब्रह्म भेदातीत हैं। परंतु अपनी शक्ति से वह जीव और जगत् के रूप में आविर्भूत होता है। ये ब्रह्म से भिन्न और अभिन्न हैं। अपने आपमें वह निमित्त कारण है परंतु शक्ति से संपर्क होने के कारण वह उपादान कारण भी है। उसकी तटस्थशक्ति से जीवों का तथा मायाशक्ति से जगत् का निर्माण होता है। जीव अनंत और अणु रूप हैं। यह सूर्य की किरणों की तरह ईश्वर पर निर्भर हैं। संसार उसी का प्रकाश है अतः मिथ्या नहीं है। मोक्ष में जीव का अज्ञान नष्ट होता है पर संसार बना रहता है। सारी अभिलाषाओं को छोड़कर कृष्ण का अनुसेवन ही भक्ति है। वेदशास्त्रानुमोदित मार्ग से ईश्वरभक्ति के अनंतर जब जीव ईश्वर के रंग में रंग जाता है तब वास्तविक भक्ति होती है जिसे रुचि या रागानुगा भक्ति कहते हैं। राधा की भक्ति सर्वोत्कृष्ट है। वृंदावन धाम में सर्वदा कृष्ण का आनंदपूर्ण प्रेम प्राप्त करना ही मोक्ष है।

 

आराध्यो भगवान व्रजेश तनयः तद्धामवृन्दावनम् रम्याकाचिदपासना 

प्रजवधुवर्गेण या कल्पिता मते ज्ञानम् शास्त्रं भागवतमपुराणममलं प्रेमापुमर्थो महान 

श्री चैतन्यमहाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः ।। 


इनका मानना था कि व्रजेश तनय भगवान कृष्ण ही एकमात्र आध्य हैं। व्रजवधुओं द्वारा कल्पित रमणीय उपासना ही एकमात्र उपासना है। श्रीमद्भागवतमहापुराण ही शास्त्र है। प्रेमा नामक महानद पुरूषार्थ है।

वेदान्त दर्शन का ऐतिहासिक स्वरूप सारांश 

  • वेदान्त ज्ञानयोग की एक शाखा है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्त्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथो और अरण्यक ग्रंथों का सार समझे जाते हैं। वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: अद्वैत वेदांतविशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्यरामानुज और श्री मध्वाचार्य जिनको क्रमशः इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता हैइनके अलावा भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं जिनमें भास्करवल्लभचैतन्यनिम्बारकवाचस्पति मिश्रसुरेश्वरऔर विज्ञान भिक्षु. आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदांती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंसस्वामी विवेकानंदअरविंद घोषस्वामी शिवानंद और रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं. ये आधुनिक विचारक अद्वैत वेदांत शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे वेदांतो के प्रवर्तकों ने भी अपने विचारों को भारत में भलिभाँति प्रचारित किया है परन्तु भारत के बाहर उन्हें बहुत कम जाना जाता। 
  • आचार्य शंकर का सिद्वान्त अद्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है। सत्ताओं के पृथक् महत्व को अस्वीकार करना ही अद्वैतवाद है। आचार्य के अद्वैत का मूल- मन्त्र है, " ब्रहमा सत्यं जगन्मिथ्या ।" ब्रहमा के अतिरिक्त अन्य समस्त वस्तुओं को मिथ्या की सिद्वि हेतु उन्होंने मायावाद की स्थापना की । विद्वानों का कथन है कि शंकर का मायावाद गौड. पादाचार्य के मायावाद से प्रभावित है। आचार्य शंकर ने माया शब्द का प्रयोग अविद्याअज्ञानभ्रममृगतृष्णिका आदि अर्थो में किया है। मायावाद शंकर का वह अमोघ मन्त्र है जिसके द्वारा ब्रहमा और जगत् के सम्बन्ध की पहेली को सुलझा सके है। जगत् ब्रहमा का विवर्तमात्र है जैसे रज्जू में सर्प । 

 

पारिभाषिक शब्दावली 

  • आगम - शास्त्रों को आगम कहा जाता है  
  • उपनिषद्  गति, विशरण और अवसादन 
  • विवर्त  भ्रम 
  • कारिका - श्लोक रूप 
  • भौतिक - लोक संसार 
  • श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top