वेदान्तसार के प्रमुख सिद्धान्तों का समीक्षण | Vedant Saar Sidhant

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 वेदान्तसार के प्रमुख सिद्धान्तों का समीक्षण

वेदान्तसार के प्रमुख सिद्धान्तों का समीक्षण | Vedant Saar Sidhant


वेदान्तसार प्रस्तावना 

  • वेदान्तसार जो सदानन्द योगीन्द्र द्वारा रचित है, इस में वेदान्त एवं वेदान्तसार के सैद्धान्तिक तुलनात्मक समीक्षण का अध्ययन कराया जायेगा। 
  • वस्तुतः भारतीय दर्शनों में वेदान्त दर्शन प्राणस्वरूप् है। इसके अन्तर्गत ब्रहम, माया, जीव जगत ईश्वर और मनुष्य के करणीय तथा अकरणीय कर्मो की विवेचना नियम-निषेध पूर्वक की गयी है।  

 

अध्ययन के पश्चात, आप यह बतायेगे कि- 

1. ब्रह्राम का स्वरूप क्या है। 

2. ईश्वर को किस प्रकार परिभाषित किया गया है। 

3. यज्ञों को किस प्रकार परिभाषित किया गया है। 

4. ज्ञानमार्ग की विशेषताएं क्या है श्रद्धावान लमते ज्ञानम् 

5. अनुवन्ध चतुस्टय का महत्व क्या है। 

6. वेदान्तसार की उपयोगिता क्या है।

 

वेदान्तसार के प्रमुख सिद्धान्तः 

  • ज्ञान की एक अबाध सरिता जिसका प्रवाह सनातन है उसे दर्शन कहते है। वेदों में जगत् की उत्पत्ति स्थिति तथा विनाश को बताया गया है। इसके बाद जो दार्शनिक सत्यान्वेषण है वह है उपनिषद। इन्ही में ब्रहम माया, जीव जगत ईश्वर की अन्वेषणपूर्ण सत्य साबित होते हैं। सभी दर्शनों के प्रतिपा? विषयों में ब्रहम, माया, जीव, जगत, ईश्वर ये सब प्रकारान्तर से वर्णित हैं। सदानन्द योगीन्द्र रचित वेदान्तसार में अनुबन्ध चतुष्टया-विषय, सम्बन्ध, अधिकारी और प्रयोजन को बताकर अध्यारोप, अपवाद, अनुमान, काम्य निषिद्ध कर्म, यज्ञादि तथा ज्ञान एवं अज्ञान के स्वरूप की विवेचन की गयी है। आवरण तथा विशेष शक्ति के माध्यम से योगीन्द्र ने समस्त गुत्थ्यिों की सुलझाने का प्रयास किया है। इस पाठ के अन्तर्गत आप वेदान्त में जितने सैद्धान्तिक स्वरूप है। उनकी सारभूत बातों को वेदान्तसार के माध्यम से जानेगे।

 

1 ब्रह्म- (ब्रह्राम का स्वरूप क्या है। ) 

  • यहाँ पर केवल वेदान्तसार में वर्णित तथ्यों के आधार पर ब्रह्म के स्वरूप की व्याख्या नहीं की जायेगी। ब्रहम के बारे में वेदान्त दर्शन की जो मान्यता है उसका संक्षिप्त निदर्शन किया जा रहा है।- सामान्यतः ब्रहम शब्द को बृह धातु से उत्पन्न माना गया है। इसका अर्थ है विशाल, अतः जो इतना विशाल हो कि सबकुछ व्याप्त परिण्याप्त कर ले उसी को ब्रहम कहते है। 
  • प्रारम्भ में ब्रहम शब्द का प्रयोग वैदिक सूत्रों तथा स्तुतियों में किया जात था। इसी क्रय में ब्रहम शब्द वेद के लिए प्रयुक्त हो गया। तथा कर्मकाण्ड की प्रचुरता के कारण यज्ञों का महत्व बढ़ जाने से यज्ञ को ही सृष्टि उत्पन्न करने वाली सबसे बड़ी शक्ति समझा जाने लगा। किन्तु यज्ञ का आधार तो ब्रहम अथवा वेद ही था अतः ब्रहम या वेद को प्रथमजम् कही जाने लगा। ठसके अलावा ब्रहम शब्द का तात्पर्य है-एकमात्र नित्य चेतनासत्ता जो जगत् का कारण और सत् चित् आनन्द स्वरूप है। ब्रह्रम शब्द का प्रमुख प्रयोग एक ही संख्या के लिए भी किया गया है। अतः ब्रहम् शब्द के चाहे जितने भी अर्थ किये गये हो उनके तात्पर्य तो सर्वव्यापी ही निकलते है। 

 

  • श्रुतियों में ब्रहम के लिए स्थान-स्थान पर आनन्द एवं आनन्दमय शब्द का निर्माण "तत्प्रकृतवचने" प्रचुरता के अर्थ में मयत् प्रत्यय के योग से हुआ है। अतः इसका अर्थ है "आनन्द की प्रचुरता" गुणहीन होने के नाते आनन्द की प्रचुरता ब्रहम में ही समाहित है। ब्रह्रम के विषय में सदाननद योगीन्द्र ने वेदान्तसार के मंगलाचरण के प्रारम्भिक दो पद्मों में ही ब्रहम के स्वरूप को उद्घाटित कर दिया है जिसमें उन्होने अपने गुरू की भी वन्दना की है। मंगलाचरण के पद्य में उन्होनं ब्रहम को सर्वदा वर्तमान, चेतन और आनन्द स्वरूप, वाणी तथा मन की पहु ंच से परे, अखिल जगत का आधार और अखण्ड कहा है। वेदान्तसार केमत में ब्रहम सत् चित ओर आनन्द स्वरूप है।

 

अखण्डं सच्चिदानन्दवांगमनसगोचरम् आत्मानमखिलाधारमाश्रयेभीष्टसिद्धये । अर्थतोप्यद्वयानन्दतीतद्वैतभानतः गुस्नाराध्य वेदान्तसारं वक्ष्ये यथामतिः ।।

 

  • सत् का अर्थ है त्रिकालवाधित पदार्थ जो कभी विकृत न हो ब्रहम सत्यं ज्ञानमनन्तं है वह प्रत्येक अवस्था में विकारहीन तथा नित्य है, वह पूर्ण है, प्रबुद्ध है तथा ज्ञान वर्द्धक भी है। वेदान्त के अन्दर व्यवहारिक और परमार्थिक दो दृष्टियों से ब्रहम पर विचार किया जाता है. 
  • मुण्डक उपनिषद में एक कथा आती है- एक बार सुनक के पुत्र अंगिरस ऋषि के पास पहुंचकर पूछे कि वह कौन सी वस्तु है जिसको जान लेने से सबकुद ज्ञात हो जायेगा। उन्होंने उत्तर दिया कि -ब्रह्रम। द्वैतभावना का दूर होना अर्थात् आत्मा का दर्शन होना है। इस प्रकार सदानन्द योगीन्द्र ने ब्रहम के विषय में अतिसूक्षम शब्दावली के माध्यम से असीमित अनुभूति और भावना को व्यक्त किया है।

 

2. अनुबन्ध- 

ग्रन्थ को पढ़ने ओर जानने के लिए निम्न बाते महत्वपूर्ण होती है। 

1. उस ग्रन्थ को पढ़ने का अधिकारी कौन है। 

2. उस ग्रन्थ का विषय क्या है जो लिखा हुआ।

3. उसमें लिखित विषय एवं पुस्तक का क्या सम्बन्ध है। 

4. इसके अध्ययन का प्रयोजन क्या है।

उपर्युक्त इन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर को अनुबन्ध कहा जाता है तथा इन चारों के उत्तर को अनुबन्ध चतुष्टय कहा जाता है। बात भी सही है कोई भी ग्रन्थ को मैं पढ़ रहा हू  उसका विषय क्या है, इसमें क्या लिखा है, इसका सम्बन्ध किससे है और मैं पढूगा तो क्या प्राप्त होगा, तब तक कोई उसमें प्रवृत नहीं हो सकता है। वाचस्पत्यम् में एक स्थान पर कहा गया है- 

 

ज्ञातार्थ ज्ञात सम्बन्धं श्रोतं श्रोता प्रवर्त्तते 

ग्रन्थादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः ।। 

अतः वह अनुबन्ध चार प्रकार का है 

क-अधिकारी स्वः विषय ग-सम्बन्ध घ-प्रयोजन। यहाँ पर क्रमशः वर्णन प्रस्तुत है।

 

1 अधिकारी- 

  • वेदान्त नामक विषय का अधिकारी वही हो सकेगा जो विधिवत वेद वेदाङ्‌गों का अध्ययन करके वेदार्थ ज्ञान में पारंगत हो। काम्य एवं शास्त्र ज्ञान करके निषिद्ध कर्मो का त्याग किया हो। इसके बाद जिस व्यक्ति का अन्तःकरण नित्य, नैमित्तिक, प्रायश्चित् एवं उपासना कर्मो के द्वारा समस्त पापों से मुक्त हो गया हो। ऐसेचार साधनों से सम्पन्न प्रमाता ही अधिकारी कहलाता है। अधिकारी को इस जन्म या पूर्व जन्म में वेदार्थ ज्ञान परमाश्यक है। र्का प्राप्ति की कामना से किये जाने वाले ज्योतिष्तोम यज्ञादि काम्य कर्म है। नरकादि प्राप्ति कराने कराने वाले ब्रहृमतत्या आदि कर्मो को निषिद्ध कर्म कहते है। जिनके न करने से हानि होती है उन्हें नित्य कर्म कहा जाता है। पुत्रोपत्ति आदि के अवसर पर जो जातेष्टि आदि यज्ञ किये जाते है उन्हें नैमित्तिक कहा जाता है। मनुष्य अपने जीवन में जितने आपकर्मो को करता है उनके शमन हेतु किये जाने वाले चान्द्रायाण व्रत आदि प्रायश्चित कर्म कहे जाते हैं। मानसिक वृत्ति पूर्णतः स्थिर हो इसके लिए सगुण ब्रहम के विषय में जो कर्म किये जाते है वे उपासना कर्म होते हैं। इसप्रकार के सम्पन्न होने से व्यक्ति अधिकारी कहलाता है।

 

2 विषय- 

  • यह अनुबन्ध चतुष्टय का एक महत्वपूर्ण भाग है इसके अन्तर्गत यह बताया जाता है कि जिस ग्रन्थ में जो भी वर्णित है वह सैद्धान्तिक रूप में किस विषय से सम्ब्न्धित है। अथवा वेदान्तसार का विषय जीव और ब्रहम का एक होना बताया जाता है। वह विरूद्ध धर्मो से मुक्त होकर शद्ध चैतन्य का ज्ञान है। यही वेदान्त वाक्यों का चरम लक्ष्य भी है। जीव तथा ब्रह्रम का आत्यन्तिक भेद निरूपण ही अद्वैतवाद का सारभूत है। जीवों की ब्रहम से भिन्न अपनी अलग सत्ता ही विशिष्तवाद का सार है। जीव और ब्रहम का स्वरूप शुद्ध चैतन्य की शुद्धता है। प्रमाणों से जाना जाने वाला विषय प्रमेय कहलाता है। कपिल तथा कणाद आदि दार्शनिकों ने वदान्त का तात्पर्य प्रधान के अस्तित्व को सिद्ध कराना माना गया है। 

 

3 सम्बन्ध- 

  • जीव तथा ब्रहम दोनों के ऐक्य और उनके प्रतिपादक उपनिषद् वाक्यों का बोध्य बोधक भाव हो जाना वदोन्तसार में सम्बन्ध कहलाता है। जीव और ब्रहृम का ऐक्य ही विषय है तथा प्रतिवादक श्रुतिवाक्यों के जो बोध्यबोधक प्रभाव है वही सम्बन्ध है। यद्यपि शुद्ध चैतन्य के अस्तित्व को प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित नहीं किया जा सकता और कोई प्रत्यक्ष व्याख्या भी नहीं की जा सकती है किन्तु अनुमान प्रमाण के सहारे से उसकी व्याख्या हो सकती है।

 

4. प्रयोजन- 

  • जीव और ब्रह्म की जो एकता है उसकी जानकारी के बीच में अज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर आत्मा के स्वरूपानन्द की प्राप्ति होती है। आत्मज्ञाता ही हमेशा शोक से तर जाता है। "तरति शोकम् आत्मवित्" और ब्रहृमविद्य ब्रहृमैव भवति" आदि वाक्य ही वेदान्तसार के प्रयोजन है वैसे तो वेदान्तसार का प्रमुख प्रयोजन केवल अज्ञान का निवारण ही यदि किसी तत्वेत्ता को अच्छा गुरू प्राप्त हो जाय तो "तत्वमसि" आदि वाक्यों के कृपापूर्ण उपदेश से उसके अज्ञान की निवृत्ति हो जाती है। आनन्द का असीमित सभुद्र साधक की झोली में लेता है। अतः इसी आनन्द की उपलब्धि करना ही वेदान्तसार का प्रमुख प्रयोजन है। 

4 अध्यारोप एवं आवरण, विक्षेप शक्तियाँ 

  • वेदान्तसार के सिद्धान्तों में अध्यारोप तथा अज्ञान की दो शक्तियों का वर्णन किया गया है जिन्हें आवरण तथा विक्षेप कहते है। 
  • अध्यारोप-रस्सी में सर्प का आभास होने के समान किसी वस्तु में अन्य वस्तु के आरोप को अध्यारोप कहते है। यहाँ वस्तु का तात्पर्य अविनाशी ब्रहम या आत्मा से है और अन्य वस्तु जो अवस्तु कहलाती है उसकी किसी भी रूप में सत्ता नहीं होती है। वस्तु सच्चिदानन्दताद्वयं ब्रहम। अज्ञानादिसकलजड़समूहोऽवस्तुः अज्ञान सत्व और असत्व दोनों से रहित होने के कारण अवर्णनीय होता है। यह त्रिगुणात्मक है और ज्ञान का विरोधी है मै अज्ञानी हू ँ इसका तात्पर्य ही ज्ञान की भावरूपात्मकता है। समष्टि और व्यष्टि दो अभिप्रायों के कारण अज्ञान कहीं एकरूपता में और कहीं बहुवचन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। वेदान्तसार में कहा गया है कि-आनस्य आवरणविक्षेप दो शक्तियाँ होती है।

आवरणशक्ति- 

जिस प्रकार एक लघु मेघखण्ड अखण्ड विस्तृत सूर्य की आभा को दर्शकों की दृष्टि से विच्छिन्न कर देता है उसी प्रकार सीमित अज्ञान भी असीमित तथा असांसारिक आत्मा का आवृत् कर देता है। ऐसी शक्ति आवरण शक्ति कहलाती है। वेदान्तसार का एक उदाहरण है-

 

घनच्छन्नदृष्टिर्घनच्छन्नचर्क यथा मन्यतेनिष्पभ चातिमूढ़ः । 

तथा बद्धवद्भाति या मूढ़ दृष्टेः स नितयोपलब्धिस्वरूपोंऽहमात्मा।।

 

अर्थात् 

  • जिस प्रकार मेघ से आच्छन्न दृष्टि वाला व्यक्ति मेघाच्छादित सूर्य को प्रकाशरहित समझता है। उसी तरह साधारण दृष्टि वाला मूढ़ लोगों को जन्म मरण वाला बन्धनों से बाधित प्रतीत होता है। 

विक्षेपशक्ति- 

  • विक्षेप शक्ति तो उसे कहते हैं जो रस्सी निषयक अनाच्छादितं रस्सी में अपनी शक्ति से सर्पादिकी उद्भावना के समान अज्ञानावृत आत्मा में ही आकाशादि प्रपन्च की उद्भावना कराता है। विक्षेप शक्ति ही लिंग शरीर से लेखक ब्रह्रमाण्ड की रचना तक करती है। विक्षेप शक्ति की यहीं विशेषता है। 
  • जिस प्रकार एक ही मकड़ी अपने तन्तु रूपी कार्य के प्रति चेतन प्रधानता के नाते निमित्त कारण होती है और अपने शरीर की प्रधानता के नाते निमित्त कारण होती है और अपने शरीर की प्रधानता के नाते उपादान कारण भी होती है। उसी प्रकार यह संसार है। अगर मकड़ी चेतन न हो तो केवल उसके शरीर से तन्तु नहीं बन सकता। किन्तु यदि शरीर न हो तो भी केवल चैतन्य से ही तन्तु नहीं बन सकता। अर्थात् जिस प्रकार मकड़ी जाल को बनाती हैं और उसे निगल लेती है, जिस प्रकार जीवित मनुष्य से रोम या केश उत्पन्न होते है वैसे ही अक्षर अविनाशी ब्रह्रम से यह जगत उत्पन्न होता है।

 

5 सूक्ष्म शरीर-लिंग 

  • शरीर ही सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। इसके सत्रह (17) अवयव होते है- पॉच ज्ञानोन्द्रियाँ, बुद्धि एवं मन पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा पाँच वायु। श्रोत्र, त्वक, चक्षु जिहन्वा, घ्राण ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ है। ये पॉच आकाशादि के सात्विक अंशों से अलग-अलग उत्पन्न होती है। निश्चत करने वाली अन्तः करण की वृत्ति को बुद्धि कहा जाता है। अन्तःकरण वृत्ति के दो रूप होते हैं-1-निश्चयात्मिका 2-संशयात्मिका। 
  • संकल्प और विकल्प करने वाली अन्तःकरण की वृत्ति को मन अन्तर्भाव हो जाता है। चिन्त की वृत्ति अनुसन्धान कर्ता है। अभिमान का कार्य करने वाली अन्तकरण की वृत्ति को अहंकार करते है। 
  • पांच ज्ञानेन्द्रिय तथा बुद्धि का संयुक्त रूप विज्ञानमय कोश कहलाता है। इसी संयुक्त होकर व्यवहार करने की अवस्था वाला कर्ता, उपभोक्ता, जीव कहलाता है। 
  • मन और ज्ञानेन्द्रिय का संयुक्त रूप मनोमय कोश कहलाता है। वाणी, हाथ, पैर, पायु और उपसथ ये सभी कर्मेन्दियॉ है। ये सभी आकाशादि के रजोगणांशों से अलग-अलग उत्पन्न होती है। प्राण, अपान व्यान उदान तथा समान ये पॉच वायु हैं। 
  • नाक के अग्रभाग में रहने वाली वाणु प्राण है। निम्नगमन वाली गुदादि स्थल की वायु अपान है तथा सभी ओर जाने वाली सम्पूर्ण शरीर की वायु व्यान है। अपन की ओर जाने वाली वायलु उदान है और परिपाक करने वाली वायु समान वायु होती है।
  • वेदान्तसार में वर्णित इन्हीं तथ्यों के सम्पूर्ण सम्पृक्त होने से सूक्ष्म शरीर होता है। इस प्रकार विज्ञानमय कोश, प्राणमय कोश तथा मनोमय कोष को मिलाने से सूक्ष्म शरीर बन जाते हैं। ज्ञानेन्द्रियों 5 कार्मेन्द्रियाँ 5 वायुएं 5 तथा बुद्धि ओर मनस्।

 

6 पन्चीकरण 

सृष्टि के विकासार्थ पाँच महानुतों का सम्मिश्रण ही पन्चीकरण कहलाता है। इस प्रक्रिया में पॉच भूतों के प्रत्येक के दो बराबर भाग करके अनके आधे-आधे भागों में अन्य-अन्य भूतो के आठवे भाग को मिला देने से पन्चीकृत महाभूत बनते है। अर्थात् पृथ्वी में केवल आधा भाग पृथ्वी का और अवशेष आधे में आकाश वायु तेज तथा जल का 1/8 भाग साधारणतः लिया जाता है। वेदान्तसार का कथन है- 

द्विधा विधाय चैकैकं तचुर्धा प्रथमं पुनः। 

स्वस्वेतरद्वितीयां शैर्योजनाञ्च पन्च ते।।

 

  • पन्चीकरण की इस प्रक्रिया की इस प्रकार व्यक्त किया गया है- आकाशादि पॉच महाभूतों में से प्रत्येक को समान दो भागों को पुनः चार बराबर भागों में बॉटकर 52 प्रत्येक को उन दस भागों में से प्राधमिक पॉच भागों को पुनः चार बराबर भागों में प्रत्येक को विभक्त करके उनके 1/8 भागों को द्वितीयार्ध भाग को छोड़कर दूसरे भागों को मिलाने की प्रक्रिया पंचीकरण होती है। 
  • शंकराचार्य का कथन है कि-पंचममहाभूतानामेकैकम् द्विधाविभज्य चतुर्धा कृत्वा स्वर्धभागं विहाय इतरेषु पन्चधा पन्चीकृतेषु पन्चीकरण भवति।।

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