रूप की भाषा वैज्ञानिक संरचना और अवधारणा | Hindi Bhasha aur Roop

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रूप की भाषा वैज्ञानिक संरचना और अवधारणा 

रूप की भाषा वैज्ञानिक संरचना और अवधारणा | Hindi Bhasha aur Roop



1. रूप की भाषा वैज्ञानिक संरचना और अवधारणा से परिचित होकर सामान्य शब्द से उसके अन्तर को समझ सकेगें। 

2. रूप की संरचना में निहित अर्थतत्व और सम्बंध तत्व को पहचान कर उनके अन्तर्सम्बंध को जान सकेगें। 

3. रूप परिवर्तन के कारण और दिशाओं को समझ सकेगें। 

4. रूपिम और संरूप की भाषा वैज्ञानिक अवधारणा को समझकर और वाक्य संरचना में इनके महत्व को जान सकेगें। 

5. रूपिम और संरूप की निर्धारण की पद्धति का अध्ययन कर सकेगें। 

6. रूपस्वनिम विज्ञान से सामान्य परिचय पाकर संधि से उसके वैशिष्ट्य को समझ सकेगें।

 

रूप : संरचना और अवधारणा 

  • भाषा की इकाई वाक्य है। वाक्य शब्दों से मिलकर बनते हैं और शब्द अक्षरों से। दूसरे शब्दों में वाक्य को शब्दों में खण्डित किया जा सकता है और शब्दों को अक्षरों में। आप जानते हैं कि एक या एक से अधिक अक्षरों से मिलकर बनी सार्थक ध्वनि ही 'शब्द' कहलाती है। रूप संरचना का सम्बंध शब्द से है। सामान्य बोलचाल में 'शब्द' और 'रूप' में अन्तर नहीं किया जाता किन्तु भाषा वैज्ञानिक दृष्टि में दोनों में पर्याप्त अन्तर है। शब्दों के दो रूप हैं एक सामान्य या मूल रूप जो प्रायः शब्दकोश में मिलता है और दूसरा वाक्य में प्रयुक्त रूप। वाक्य में शब्द का प्रयुक्त रूप अन्य शब्दों के साथ सम्बंधतत्व से युक्त होता है। इस प्रकार वाक्य में प्रयोग के योग्य अर्थात अन्य शब्दों के साथ सम्बंधतत्व से युक्त शब्द ही 'रूप' (Morpheme) या 'पद' कहलाता है। आगे हम 'शब्द' और 'रूप' की संरचना पर विस्तार से चर्चा करेगें।

 

शब्द (Word) और रूप (Morpheme) 

  • शब्द और रूप के सम्बंध में भारतीय मनीषियों ने पर्याप्त चिंतन किया है। प्राचीन व्याकरण ग्रंथों में शब्द या उसके मूल रूप को 'प्रतिपादिक' या 'प्रकृति' कहा गया है। जैसे - मोहन, नदी, कमल, पुस्तक आदि प्रतिपादिक शब्द हैं। जब हम इन शब्दों में सम्बंध स्थापन के लिए जोड़े जाने वाले तथ्यों के साथ वाक्य में प्रयोग करते हैं तो ये शब्द 'रूप' या 'पद' कहलाते हैं। संस्कृत में सम्बंध स्थापन के लिए जोड़े जाने वाले तथ्यों को 'प्रत्यय' कहा गया है। जैसे मोहन ने खाना खाया। यहाँ मोहन के साथ 'ने' प्रत्यय जुड़ने पर वह 'रूप' बन गया है। 
  • महाभाष्यकार पतंजलि ने लिखा है - 'नापि केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या नापि केवल प्रत्ययः' अर्थात वाक्य में न तो केवल 'प्रकृति' का प्रयोग हो सकता है और न ही केवल प्रत्यय का। दोनों (प्रतिपादिक और प्रत्यय) मिलकर ही प्रयुक्त हो सकते हैं। दोनों के मिलने से जो बनता है वही 'रूप' या 'पद' है। पाणिनि के 'सुप्तिङन्तं पदं' (सुप और तिङ् जिनके अंत में हों, वहीं रूप या पद हैं।) वाक्य में 'रूप' की परिभाषा स्पष्ट है। जैसे- 'पढ़' प्रतिपादिक शब्द है। अब वाक्य में यदि इसे प्रयोग करना चाहें तो इसी रूप में इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसमें कोई सम्बंधसूचक प्रत्यय जोड़ना पड़ेगा। जैसे 'पढ़ेगा', 'पढ़ता है' आदि। शुद्ध क्रिया शब्द 'पढ़' वाक्य में प्रयुक्त होने के लिए सम्बंधतत्व से युक्त होकर 'पढ़ेगा', 'पढ़ता है' हो गया। यही 'शब्द' से 'रूप' बनने की प्रक्रिया है। 

इस प्रकार 'शब्द' और 'रूप' के सम्बंध में कुछ मुख्य बातें स्पष्ट होती हैं - 

  • मूल या सामान्य शब्द को 'प्रतिपादिक' कहते हैं। 
  • वाक्य रचना में सम्बंधसूचक तत्व 'प्रत्यय' कहलाते हैं। 
  • वाक्य में केवल प्रतिपादिक शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता। उसमें सम्बंधसूचक प्रत्ययों का प्रयोग आवश्यक है। 
  • वाक्य में सम्बंधसूचक प्रत्ययों से युक्त प्रतिपादिक शब्द ही 'रूप' कहलाता है। इस प्रकार 'शब्द' और 'रूप' में पर्याप्त अंतर स्पष्ट है।  
  • कभी प्रतिपादिक शब्द और वाक्य में प्रयुक्त शब्द अर्थात 'रूप' में कोई रूपगत अन्तर नहीं दिखाई पड़ता है। इसका कारण है कि शब्दों में सम्बंध दिखाने के लिए किसी प्रत्यय आदि के जोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती। शब्द के ही स्थान से ही अन्य शब्दों के साथ उसका सम्बंध स्पष्ट हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसी स्थिति में बिना प्रत्यय जोड़े किसी वाक्य में अपने विशिष्ट स्थान पर रखे जाने के कारण ही 'शब्द', 'रूप' या 'पद' बन जाता है। स्पष्ट है कि यहाँ सम्बंधसूचक प्रत्यय का महत्व न होकर 'स्थान विशेष' का महत्व हो जाता है। स्थान-प्रधान या अयोगात्मक भाषाओं में भी यही स्थिति है। वहाँ 'शब्द' और 'रूप' में कोई रूपगत अन्तर दिखाई नहीं पड़ता। हिन्दी में भी ऐसे उदाहरण देखें जा सकते हैं।

 

सम्बंधतत्व और अर्थतत्व 

  • वाक्य में दो तत्व होते हैं सम्बंधतत्व और अर्थतत्व। अर्थतत्व प्रत्येक शब्द में अन्तर्निहित होता है। जैसे एक वाक्य में कुछ शब्दों को लें- राम, रावण, बाण, मारना इन शब्दों में अर्थतत्व निहित है किन्तु तो भी वाक्य में इन शब्दों को यदि इसी प्रकार रख दिया जाय तो वाक्य का कोई स्पष्ट अर्थ नहीं व्यक्त होगा। सम्बंधतत्व का कार्य है विभिन्न अर्थतत्वों का आपस में सम्बंध दिखलाना। ऊपर दिये गए शब्दों को इस रूप में देखें राम ने रावण को बाण से मारा। इस वाक्य में वही चार अर्थतत्व हैं - राम, रावण, बाण, और मारना। साथ ही इसमें चार सम्बंध तत्व भी हैं - ने, को, से और मारना से बना मारा। 'ने' सम्बंध तत्व वाक्य में राम का सम्बंध दिखाता है। इसी प्रकार 'को' रावण से और 'से' बाण का सम्बंध दिखाता है। इस प्रकार वाक्य में प्रयुक्त शब्द सम्बंधतत्व से युक्त होने पर ही 'रूप' या 'पद' कहलाते हैं। अतः सम्बंधतत्व का मुख्य कार्य वाक्य में प्रयुक्त अर्थतत्वों में परस्पर सम्बद्धता प्रदान कर वाक्य को पूर्णरूप से अर्थवान बनाना है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सम्बंधतत्व भाषा की वह प्रक्रिया है जो अर्थतत्व (प्रतिपादिक/मूल शब्द) में पहले से निहित अर्थ को वाक्य के संदर्भ में पूर्ण रूप से प्रकाशित कर देती है। 
  • शब्द में अर्थ पहले से ही विद्यमान रहता है। आप जानते हैं कि शब्द सार्थक ध्वनियों का समूह है। भाषा में सार्थक शब्दों का ही अध्ययन होता है, निरर्थक शब्दों का नहीं। शब्द में अर्थ सदैव विद्यमान रहता है। इसीलिए शब्द को 'ब्रह्म' भी कहा गया हैं। शब्द में अर्थ की सत्ता होने के कारण ही उसे 'अर्थतत्व' कहा गया है। बिना अर्थ के शब्द की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सम्बंधतत्व अर्थतत्व को व्याकरणिक अर्थ प्रदान करता है और अर्थतत्व को वाक्य के संदर्भ में प्रयोग के योग्य बनाता है। ऊपर दिये गए उदाहरणों से अर्थतत्व और सम्बंधतत्व के अन्तर्सम्बंध को भलि-भाँति समझा जा सकता है।

 

रूप-परिवर्तन (Morphological Change) 

  • मोटे तौर पर रूप-परिवर्तन और ध्वनि-परिवर्तन में अन्तर स्पष्ट अन्तर नहीं दिखाई देता किन्तु वस्तुतः दोनों में पर्याप्त अन्तर है। ध्वनि-परिवर्तन भाषा की विशिष्ट ध्वनि में होता है और वह ऐसे सभी शब्दों को प्रभावित कर सकता है जिसमें वह विशिष्ट ध्वनि हो। रूप-परिवर्तन का क्षेत्र ध्वनि-परिवर्तन की तुलना में सीमित है। वह किसी एक शब्द या पद को ही प्रभावित करता है। ध्वनि परिवर्तन होने पर पुरानी ध्वनि लुप्त हो जाती है और नई ध्वनि प्रचलित हो जाती है। इस तरह ध्वनि-परिवर्तन के पुराने रूप बहुत कम मिलते हैं क्योंकि नई ध्वनि आने पर उनका चलन समाप्त हो जाता है। रूप-परिवर्तन में ऐसा कम होता है। रूप-परिवर्तन होने के बाद भी नए रूपों के साथ पुराने रूप भी चलते रहते हैं। यही कारण है कि भाषा में एक अर्थ देने वाले अनेक रूप मिल जाते हैं।

 

रूप-परिवर्तन की दिशाएं 

रूप-परिवर्तन निम्नलिखित दिशाओं में होता है - 

1. अपवादित रूपों के स्थान पर 

  • नियमित रूप किसी भी भाषा में नियमित रूपों के साथ ही अपवादित रूपों की संख्या होती है। जैसे संस्कृत में क्रिया व संज्ञा के रूपों में अपवाद बहुत अधिक थे। अपवादित रूपों के आधिक्य से उनके प्रयोग में भ्रम की गुंजाइश रहती है। साथ ही भाषा भी अधिक समय तक इन्हें वहन नहीं करती। फलतः भाषा के विकास में अपवाद रूप में प्राप्त रूपों का स्थान नियमित रूप ले लेते हैं। हिन्दी में परसर्गो का विकास इसी प्रक्रिया का परिणाम है।

 

2. नये रूपों की उत्पत्ति - 

  • भाषा के विकास में पुराने रूपों के चलन के साथ नये रूपों की उत्पत्ति भी होती रहती है। जैसे हिन्दी में चला, लिखा, पढ़ा, के सादृश्य पर 'करा' (किया) रूप भी प्रचलित हो गया। इसी तरह छठा-सातवाँ के सादृश्य पर 'छठवाँ' या 'छवाँ' रूप भी चलता है। नये रूपों की उत्पत्ति में सादृश्य और मानसिक प्रयत्न लाघव की भावना काम करती है। रूप- परिवर्तन की ये दिशाएं न तो बहुत स्पष्ट हैं और न ही एक दिशा में कार्य करती हैं। वे प्राचीन लुप्त रूपों को भी पुनः ग्रहण कर सकती हैं तो नये रूपों का निर्माण भी करती हैं।

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