विकास के अध्ययन की स्थायी विषयवस्तु | Enduring Themes in the study of Development

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विकास के अध्ययन की स्थायी विषयवस्तु

विकास के अध्ययन की स्थायी विषयवस्तु | Enduring Themes in the study of Development
  

विकास के नियम (Principles of Development) 

विकास अध्ययनों का मुख्य उद्देश्य सामान्य प्राणी के विकास प्रतिमानों का अध्ययन कार है तथा विकास की प्रकृति को समझना है। इसके कारणों की जाँच करना है। इस दिशा ऐसे अध्ययनों का अभाव है, जो प्रथम विकास अवस्था से अन्तिम विकास अवस्था तक है प्राणी में विवृद्धि तथा विकास चलते रहने से प्राणी की सक्रियता और जीवन चलता रहता है विकास के प्रमुख नियम इस प्रकार हैं-

 

1. विकास बहुमुखी एवं बहुआयामी होता है (Development as Multi- Dimensional and Plural) - 

  • इसमें प्राणी का सर्वांगीण विकास निहित होता है। विकार में न केवल शारीरिक पक्ष को सम्मिलित किया जाता है, बल्कि मानसिक, क्रियात्मक, नैतिक सामाजिक, संवेगात्मक, सृजनात्मक, संज्ञानात्मक, बौद्धिक पक्ष को भी सम्मिलित किया जाता है। जन्म से पूर्व विकास अवस्था में मुख्यतः तीन प्रकार की विकास प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है-शारीरिक विकास, गत्यात्मक विकास तथा सांवेगिक विकास। गर्भस्थ शिशु की शारीरिक लम्बाई-चौड़ाई बढ़ने के साथ-साथ उसका भार भी बढ़ता है। उसके शरीर के विभिन्न अंगों में गत्यात्मक क्रियाओं का विकास होना प्रारम्भ हो जाता है और साथ ही उसमें विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं का विकास भी प्रारम्भ हो जाता है। बाल्यावस्था के बाद किशोरावस्था तक मुख्य रूप से शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, नैतिक प्रक्रियांओं का विकास होता है। इस समय बालकों की रुचियों, अभिरुचियों, समाधोजन और व्यक्तित्व आदि से सम्बन्धित समस्याओं को दूर करने का प्रयास किया जाता है ताकि उसका बहुआयामो विकास हो सके। मध्यावस्था तक प्रौढ़ावस्था में मुख्य रूप से संज्ञानात्मक क्षमताओं में कमी तथा समायोजन (सामाजिक विकास) सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन किया जाता है, जिससे मानव को समायोजन सम्बन्धी समस्याओं का सामना न करना पड़े। इस प्रकार विकास बहुमुखी तथा बहुआयामी प्रक्रिया है। इसमें मानव के विभिन्न पक्षों का अध्ययन किया जाता है।

 

विकास के विभिन्न आयामों का परिचय इस प्रकार है-

 

1. मानसिक या बौद्धिक विकास-

  • मानसिक या बौद्धिक विकास में समस्त प्रकार की मानसिक शक्तियों जैसे-कल्पना शक्ति, निरीक्षण शक्ति, सोचने-विचारने की शक्ति, स्मरण शक्ति, एकाग्रता, सृजनात्मकता, संवेदना, प्रत्यक्षीकरण और सामान्यीकरण आदि से सम्बन्धित शक्तियों का विकास सम्मिलित होता है।

 

2. भाषात्मक विकास - 

  • भाषात्मक विकास में बालक के अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा का जानना और उसके प्रयोग से सम्बन्धित योग्यताओं का विकास शामिल होता है। अतः विभिन्न शारीरिक परिवर्तन जैसे-बच्चे की लम्बाई-चौड़ाई बढ़ना, भार वृद्धि, माँसपेशियों की सुदृढ़ता उसके शारीरिक विकास की द्योतक है। छोटे-छोटे ब्लॉक से सम्पूर्ण आकृति बना देना, आगामी संकट को भाँप जाना उसके संज्ञानात्मक विकास का द्योतक है। अतः मानव में जन्म से ही बहुमुखी और बहुआयामी विकास होता है और यह वृद्धावस्था तक चलता है।

 

3. शारीरिक विकास 

  • व्यक्ति के शारीरिक विकास में उसके शरीर के बाह्य एवं आन्तरिक अंगों का विकास सम्मिलित होता है।

 

4. नैतिक अथवा चारित्रिक विकास 

  • नैतिक अथवा चारित्रिक विकास के अन्तर्गत नैतिक भावनाओं, मूल्यों तथा चरित्र सम्बन्धी विशेषताओं का विकास सम्मिलित होता है।

 

5. संवेगात्मक विकास-

  • संवेगात्मक विकास में विभिन्न अंगों की उत्पत्ति, उनका विकास तथा इन संवेगों के आधार पर संवेगात्मक व्यवहार का विकास सम्मिलित होता है।

 

6. सामाजिक विकास-

  • शिशु प्रारम्भिक अवस्था में एक असामाजिक प्राणी होता है। उसमें उचित सामाजिक गुणों का विकास कर समाज के मूल्यों तथा मान्यताओं के अनुसार उसे व्यवहार करना सिखाया जाता है।

 

2. जीवन-विस्तार के द्वारा निरन्तर विकास होता है-

  • विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। विकास का क्रम गर्भधारण से प्रारम्भ हो जाता है और जीवन के अन्त तक निरन्तर चलता रहता है। इसीलिए विकास को एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया कहा जाता है। यद्यपि विभिन्न अवस्थाओं में इसकी दर एक समान नहीं रहती है। उदाहरण के लिए सर्वाधिक तीव्र विकास की गति जन्म से पूर्व पायी जाती है। एक वर्ष के बाद शारीरिक विकास की गति धीमी पड़ जाती है। पूर्व किशोरावस्था में विकास की गति फिर से अधिक हो जाती है।

 

  • भिन्न-भिन्न अंगों का विकास भिन्न-भिन्न गति से होता है। शरीर के कुछ अंग अन्य अंगों कीअपेक्षा जल्दी विकसित होते हैं। हाथ, पैर और नाक का विकास किशोरावस्था तक पूर्ण हो जाता है, परन्तु कन्धे तथा मुखाकृति के निचले अंग अपेक्षाकृत देर से विकसित होते हैं। जिस प्रकार शारीरिक विकास की भिन्न-भिन्न गतियाँ होती हैं, उसी प्रकार मानसिक विकास की भी भिन्न-भिन्न गतियाँ होती हैं। अध्ययनों से यह पता चलता है कि सृजनात्मक कल्पना का बाल्यावस्था में विकास तीव्र गति से होता है और किशोरावस्था तक इसका विकास अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाता है।

 

3. सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भ विकास को प्रभावित करता है-

  • जो बच्चे उच्च  सामाजिक-आर्थिक स्तर के होते हैं, उन्हें उच्च स्तर की भौतिक सुविधाएँ प्राप्त होती हैं, अतः उनका विकास भी निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर के बच्चों की तुलना में अधिक तेजी से होता है, क्योंकि ऐसे बच्चों को कुछ सुविधाएँ जल्दी प्राप्त हो जाती हैं, जिससे उनका विकास भी उन बच्चों से पहले होता है, जिन्हें ये सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। न्यूमैन फ्रोमैन एवं होलिजगर ने 20 जोड़े बच्चों का अध्ययन किया। अपने जोड़े के एक बच्चे को उन्होंने गाँव में तथा दूसरे को नगर में रखा। बड़े होने पर गाँव के बच्चों में अशिष्टता, चिन्ताएँ, भय, हीनता और कम बुद्धिमत्ता जैसी विशेषताएँ गई, जबकि शहर के बच्चों में शिक्षित व्यवहार, चिन्तामुक्त, भयहीन एवं निडरता और बुद्धिमत्ता सम्बन्धी विशेषताएँ पायी गईं। अतः स्पष्ट है कि सामाजिक सन्दर्भ बच्चे के विकास को प्रभावित करता है। शहर तथा ग्राम के सामाजिक पर्यावरण में अन्तर के कारण उनके विकास में भी अन्तर आ गया।

 

(अ) सामाजिक सन्दर्भ में विकास (Development in Social Reference) 

सामाजिक परिवेश में बहुत-सी संस्थाएँ, संगठन तथा सामाजिक अनुभव प्रदान करने वाले स्त्रोत होते हैं। इनका भी बालक के विकास पर प्रभाव पड़ता है। ये साधन तथा संस्थाएँ निम्नलिखित हैं- 

(i) धार्मिक संस्थाएँ-

  • धार्मिक संस्थान जैसे-चर्च, गुरुद्वारा, मन्दिर तथा उनमें चलने वाली विभिन्न सामाजिक गतिविधियाँ, बालक के दिल तथा दिमाग पर प्रारम्भ से ही बड़े ही शान्त रूप में गम्भीर तथा स्थायी प्रभाव छोड़ने की क्षमता रखते हैं और इस तरह उसके व्यवहार एवं व्यक्तित्व के निर्धारण में अपनी शक्तिशाली भूमिका निभाते हैं।

 

(ii) पास-पड़ोस-

  • पास-पड़ोस में जो भी व्यक्ति रहते हैं और जिनके साथ वालक खेलता है तथा अपना समय व्यतीत करता है वे सभी बालक के विकास पर अपना प्रभाव डालते है। यही कारण है कि अच्छे पड़ोस की ओर ध्यान दिया जाना बालक के उचित विकास के लिए आवश्यक माना जाता है।

 

(iii) अन्य सामाजिक संगठन एवं साधन-

  • कई तरह की सामाजिक संस्थाएँ, क्लब, मनोरंजन तथा सम्प्रेषण के साधन, साहित्यिक तथा ललित कलाओं से सम्बन्धित संस्थाएँ, क्लब, मनोरंजन तथा सम्प्रेषण के साधन, साहित्यिक तथा ललित कलाओं से सम्बन्धित संस्थाएँ, प्रचार के साधन, समाचार पत्र-पत्रिकाएँ, पुस्तकें तथा अन्य समस्त प्रकार का साहित्य आदि सभी किसी न किसी रूप में बालक के व्यक्तित्व को मोड़ने में काफी प्रभावशाली सिद्ध हो सकते हैं।

 

(ब) सांस्कृतिक सन्दर्भ में विकास (Development in Cultural Reference) 

  • बालक जिस समाज में रहता है उसका सांस्कृतिक स्वरूप क्या है, इस बात का बालक के व्यवहार, आचार-विचार एवं व्यक्तित्व तथा विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है। लोग कैसे रहते हैं, कैसे सोचते हैं, क्या खाते-पीते हैं, आपस में किस प्रकार का व्यवहार तथा आचरण करते हैं, किस तरह के वस्त्र पहनते हैं, उनका जीवन दर्शन क्या है, उनकी सामाजिक तथा धार्मिक मान्यताएँ किस प्रकार की हैं, दूसरी जाति, वर्ण, धर्म, प्रान्त तथा देशों के नागरिकों के प्रति उनका कैसा व्यवहार है? उनके किस प्रकार के संस्कार तथा आस्थाएँ हैं, दूसरे लिंग के प्रति उनकी सोच क्या है और उनके जीवन-यापन की शैली क्या है, इस तरह की समस्त बातें व्यक्ति के सांस्कृतिक परिवेश का प्रतिनिधित्व करती हैं, ये बातें बालक को प्रारम्भ से ही अपने रंग में रंगना शुरू कर देती हैं।

 

  • यूरोपीय देशों में इस प्रकार का सांस्कृतिक परिवेश पाया जाता है जहाँ वृद्ध तथा लाचार माता-पिता अपने परिवार से अलग होकर वृद्धाश्रमों में एकाकी जीवन बिताने के लिए मजबूर हो रहे हैं। वहाँ के परिवेश में पले युवा दम्पत्तियों को अपने वृद्ध माता-पिता तथा सास-श्वसुर को तिरस्कृत कर देने में कोई भी अपराध बोध नहीं होता है। दूसरी ओर भारतीय परिवेश में पले व्यक्तियों को बुजुर्गों का सम्मान करना तथा उनकी सेवा करना प्रारम्भ से ही सिखाया जाता है, इस तरह उनके विकास एवं दृष्टिकोण में अन्तर आ जाता है।

 

  • अतः यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति के विकास पर सामाजिक तथा सांस्कृतिक कारकों का प्रभाव पड़ता है। पास-पड़ोस, धार्मिक संस्थाएँ, अन्य सामाजिक संस्थाएँ, संगठन तथा साधन, विभिन्न सांस्कृतिक परिवेश यह सभी बालक के विकास पर अपना प्रभाव डालते हैं और बालक का आचरण उसे के अनुरूप निर्मित हो जाता है।

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