प्रयोगात्मक पद्धति (Experimental Method)
प्रयोगात्मक पद्धति (Experimental Method)
प्रयोग विज्ञान का अनिवार्य अंग होता है। इसी प्रकार से वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के प्रयोग किये जा रहे हैं, जो विभिन्न समस्याओं का समाधान करते हैं। इस विधि का प्रयोग नियन्त्रित परिस्थितियों से है, जिनका प्रयोगकर्ता घटनाक्रम में इच्छानुसार परिवर्तन कर सकता है।
अतः प्रयोगात्मक विधि की परिभाषा करते हुए ग्रीनवुड ने लिखा है-
"प्रयोग उपकल्पना का प्रमाण होता है, जिसके द्वारा दो तथ्यों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात करने के लिये ऐसी विपरीत स्थितियों का अध्ययन किया जाता है, जिनमें एक को छोड़कर सभी कारक नियन्त्रित रहते हैं और वह कारक या तो अनुमानित कारण होता है या प्रभाव।"
इस प्रकार से हम
देखते हैं कि प्रायोगिक विधि में ऐसी परिस्थितियाँ उत्त्पन्न की जाती हैं, ताकि विषय-वस्तु
पर अन्य प्रभावों का नियन्त्रण किया जा सके। प्रयोग में कारक को प्रभाव डालने के
लिये स्वतन्त्र छोड़ दिया जाता है। अतः इस विशेष कारक में प्रभाव की परीक्षा करना
ही प्रयोग विधि का उद्देश्य होता है।
प्रयोग बिधि के सोपान (Aspects of Experimental Method)
शिक्षा मनोविज्ञान में जो भी प्रयोग किये जाते हैं, उनमें निम्नलिखित सोपानों या घटकों से होकर गुजरना पड़ता है-
1. समस्या का चुनाव (Selection of Problem) -
- प्रयोगात्मक विधि के द्वारा सभी समस्याओं का अध्ययन नहीं किया जा सकता है, बल्कि वही समस्याएँ अध्ययन का विषय बन सकती हैं, जिनके लिये उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण किया जा सकता है; उदाहरण के लिये- "चाय का अध्ययन और स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?" यह समस्या भारतीय परिवेश में आज भी चर्चा का विषय बनी हुई है।
2. उपकल्पना का निर्माण (Production of Pre-imagination) -
- प्रयोग करने से पूर्व उपकल्पनाओं का निर्माण समस्या के आधार पर किया जाता है। उपर्युक्त उदाहरण में अध्ययन एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर चाय के प्रभाव को उपकल्पना में पारैणित करना होगा;
- जैसे- "चाय के पौने से अध्ययन एवं शारीरिक स्वास्थ्य का ह्रास होता है।" बनायी जा सकती है। इस उपकल्पना की जाँच प्रयोग के द्वारा की जायेगी।
3. स्वतन्त्र तथा आश्रित चरों को अलग करना (Devide to Depend and Independ Variable)-
- पोस्टमैन एवं ईगन के अनुसार- "चर वह लक्षण एवं गुण है, जो विभिन्न प्रकार के मूल्य ग्रहण कर लेता है।"
- मनोवैज्ञानिक प्रयोगों में दो प्रकार के चर पाते हैं और प्रयोग में दोनों का महत्व होता है। प्रयोक्त समस्या में चाय 'स्वतन्त्र चर' है, क्योंकि उसके प्रभाव का ही अध्ययन करना है और अध्ययन एवं शारीरिक स्वास्थ्य 'आश्रित चर' है, क्योंकि प्रयोग में स्थायी रहेंगे।
4. नियन्त्रण (Control) -
- प्रयोग में परिवेश या परिस्थिति को नियन्त्रण में किया जाता है, ताकि निष्कर्ष सही प्राप्त हो सके। टाउनसैण्ड (Townsend) के शब्दों में- "वातावरण को विनियमन करके एक घटना को विशुद्ध स्थिति में उत्पन्न करने का यत्न करना 'नियन्त्रण' या प्रयोग को नियन्त्रण करना कहलाता है।"
- वर्तमान समय में छात्र वर्ग यह भी सिद्ध कर सकते हैं कि चाय पान से किसी भी प्रकार की क्षति नहीं होती है। अतः छात्रों या प्रयोज्यों की आँखों को बाँध दिया गया। प्रयोज्यों के लिये असली चाय के भरे पात्र और सिर्फ बोर्नवीटा मिला गर्म दूध के पात्रों की बारी-बारी से प्रयोग किया गया। दोनों चाय के पात्रों की सुगन्ध को इलायची के द्वारा परिवर्तित कर दिया गया था। चाय पीने के पश्चात उबली हुई चाय की पत्ती केतली एवं कपों के तरल में छोड़ दो जाती थी, ताकि वे दोनों में स्वाद सम्बन्धी कोई भी अन्तर न कर सकें। दोनों समूहों को बारी-बारी से निश्चित समय तक वास्तविक और अवास्तविक चाय पिलायी जाती थी और उनकी मानसिक एवं शारीरिक क्षमता को नोट किया जाता था।
5. विश्लेषण (Analysis) -
- इस प्रयोग में पाँचवाँ सोपान निष्कर्षों का विश्लेषण होता है। प्रयोगबद्ध दल को 'स्वतन्त्र चर' और नियन्त्रित दल को परतन्त्र चर के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस प्रयोग में विशुद्ध चाय के प्रभाव से अस्वाभाविक चाय के प्रभाव की तुलना की गयी है। प्रयोग दल का विश्लेषण सांख्यिकीय विधियों के प्रयोग से किया जाता है।
6. प्रयोगफल से उपकल्पना की जाँच (Inspection of Pre-imagination by Experiment)-
- प्रयोगफल से यह ज्ञात हो जाता है कि उपकल्पना सही है या नहीं। चाय- पान के प्रयोग में दोनों समूहों के परिणामों में बहुत कम अन्तर देखने को मिला। चाय-पान से रक्त संचार में तीव्रता बढ़ गयी और चेहरे पर पसीने की बूंदे स्पष्ट होने लगीं। यह प्रभाव चाय-पान के अभ्यस्त न होन वाले समूह पर अधिक दृष्टिगोचर हुआ। निश्चित अवधि के पश्चात् यह पाया गया कि चाय-पान का प्रभाव नहीं के बराबर होता है। अतः उपकल्पना सही सिद्ध न हो सकी।
प्रयोग विधि की सीमाएँ (Limits of Experimental Method) -
शिक्षा के क्षेत्र में आज प्रयोग विधि का प्रयोग अनुभवी और विद्वान व्यक्ति ही कर पाते हैं, सभी नहीं, क्योंकि इसके प्रयोग में निम्नलिखित कठिनाइयाँ हैं-
1. प्रयोग स्थल की कठिनाई (Difficulty of Setting) -
- शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग स्थल प्रयोगकर्ता के अनुसार स्वाभाविक होना चाहिए, जो वर्तमान समय में उपलब्ध होना बहुत ही कठिन होता है; जैसे-यदि बाल अपराधी बालकों का प्रभाव देखना है तो बच्चों को बाल अपराधी बनाना होगा। यह कार्य असम्भव है, क्योंकि कोई भी बालक या माता-पिता यह नहीं होने देंगे। अतः स्वाभाविक घटनाएँ प्राप्त नहीं हो पाती हैं।
2. घटनाओं की जटिलता (Complexity of Social Phenomena)-
- सामाजिक घटनाएँ अत्यन्त जटिल होती हैं। प्रत्येक घटना अनेक कारणों से प्रभावित होती है, किसी एक से नहीं। यह सम्भव नहीं हो पाता है कि सभी तत्वों के परिवर्तन के प्रभावों को ज्ञात कर लिया जाये। एक कारक अन्य को प्रभावित करते हैं अतः उन पर नियन्त्रण करना भी अत्यन्त कठिन होता है।
3. सजातीयता का अभाव (Lake of Homeogenity)-
- भौतिक पदार्थों की रचना एवं प्रकृति एक समान होती है, लेकिन दो व्यक्तियों, परिवारों या दो ग्रामों की या समूहों में प्रत्येक दृष्टि से समानता नहीं मिलती। जैसा कि स्टुअर्ट मिल का कहना है- "कुछ गुणों के समान सामाजिक घटनाओं का मिलना तो सम्भव हो सकता है, पर प्रत्येक बात में समान घटनाओ का मिलना अत्यन्त कठिन है।"
4. मानव की चेतन प्रकृति (Consious Nature of Man)-
- मानव चेतनता और बुद्धि का प्रयोग प्रत्येक कार्य में करता है। इसीलिए इसमें क्षण-क्षण में परिवर्तन होते रहते हैं। प्रयोग विधि के द्वारा हम इन परिवर्तनों के कारणों एवं प्रकृति को समझने में असफल रहते हैं। यदि हम यह जानना चाहें कि थप्पड़ मारने से बच्चा रोता है, तो कोई बच्चा रोयेगा और कोई नहीं रोयेगा और चुपचाप सहन कर लेगा।
5. घटनाओं पर नियन्त्रण का अभाव (Lake of Control over Phenomena)-
- जब सामाजिक घटनाओं में जटिलता, असमानता और चेतनता होती है, तो उन पर नियन्त्रण करना कठिन कार्य हो जाता है। हम किसी व्यक्ति को अपने प्रयोग के लिये आवश्यक परिस्थितियों में रहने को बाध्य नहीं कर सकते हैं। अतः स्वाभाविक स्थान पर ही अध्ययन किया जा सकता है। जैसा कि जॉनमेज ने लिखा है- "मनुष्य तथा सामाजिक समूह गैस भरे हुएं पात्रों के समान कभी स्थिर सन्तुलन की दशा प्राप्त नहीं करते। यदि उन्हें एकदम स्वतन्त्र छोड़ दिया जाय, तो वे वृद्धि करने तथा अनिश्चित दिशाओं में परिवर्तित होते रहेंगे।"
6. प्रत्यक्ष अवलोकन की कठिनाई (Difficulty of Direct Observation)-
- प्रयोगात्मक विधि में ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा प्रभाव को जानकर पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करते हैं, लेकिन सामाजिक घटनाएँ मानसिक दशाओं से सम्बन्धित होती हैं, अतः उनको संवेदनात्मक आधार पर ही समझा जा सकता है, जो बहुत ही कठिन है। इसलिए बाह्य परिवर्तनों के प्रभावों को देखकर ही निष्कर्ष निकालना होता है।
7. सहयोग की समस्या (Problem of Co-operation) -
- प्रयोग के लिये सहयोग की सबसे बड़ी आवश्यकता होती है। प्रयाग में मानव सहयोग निम्नलिखित तीन प्रकार से अपेक्षित होता है- (1) स्वयं वह समूह, जिसका अध्ययन किया जा रहा है। (2) अध्ययन किये जाने वाले समूह से सम्बन्धित वर्ग अथवा वह वर्ग जिस पर प्रयोग के निष्कर्षों का प्रभाव पड़ सकता है। (3) प्रयोग में सहभागी व्यक्ति या संस्था।
उपर्युक्त अनेक
दोषों के बावजूद भी प्रयोगात्मक विधि ही अनुसन्धान की उत्तम विधि है। स्किनर ने
लिखा है-
- "कुछ अनुसन्धानो के लिये प्रयोगात्मक विधि को बहुधा सर्वोत्तम विधि समझा जाता है।"