किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
किशोरावस्था में क्या शारीरिक परिवर्तन होते हैं?
- मानव विकास की सबसे विचित्र एवं जटिल अवस्था किशोरावस्था है। इसका काल 12 वर्ष से 18 वर्ष तक रहता है। इसमें होने वाले परिवर्तन बालक व्यक्तित्व के गठन में महत्वपूर्ण योग प्रदान करते हैं। अतः शिक्षा के क्षेत्र में इस अवस्था का विशेष महत्व है। ई.ए., किल पैट्रिक ने लिखा है- "इस बात पर कोई मतभेद नहीं हो सकता है कि किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है।" स्टेनले हाल के अनुसार- "किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान तथा विरोध की अवस्था है।"
किशोरावस्था का अर्थ (Meaning of Adolescence)
- किशोरावस्था शब्द अंग्रेजी के एडोलसेन्स का हिन्दी रूपान्तर है। एडोलसेन्स शब्द लैटिन भाषा के एडोलसियर (Adolscere) से बना है, जिसका अर्थ है परिपक्वता की ओर बढ़ाना (To grow to maturity)। अतः शाब्दिक अर्थ के रूप में हम कह सकते हैं कि किशोरावस्था वह काल है, जो परिपक्वता की ओर संक्रमण करता है।
1. ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन-
- किशोरावस्था प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में वह काल है, जो बाल्यावस्था के अन्त में आरम्भ होता है और प्रौढ़ावस्था के आरम्भ में समाप्त होता है।
- हैडो कमेटी रिपोर्ट इंग्लैण्ड ग्यारह या बारह वर्ष की आयु में बालकों की नसों में ज्वार उठना, आरम्भ होता है, उसे किशोरावस्था के नाम से जाना जाता है। यदि इस ज्वार का चढ़ाव के समय ही उपयोग कर लिया जाय एवं इसकी शक्ति और धारा के साथ-साथ नई यात्रा आरम्भ कर दी जाय, तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।
किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ (Chief Characteristics of Adolescence)
- किशोरावस्था का काल विश्व के सभी देशों में एक-सा नहीं माना जाता है। श्री हैरीमैन ने लिखा है- "योरोपीय देशों में किशोरावस्था का समय लड़कियों में लगभग 13 वर्ष से लेकर 21 वर्ष और लड़कों में 15 वर्ष से लेकर 21 तक माना जाता है। भारत देश में लड़कियो की 11-17 वर्ष और लड़कों की 13-19 तक किशोरावस्था की सीमा मानी जाती है।"
अतः हम यहाँ पर किशोरावस्था की विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए विशेषताओं का वर्णन करेंगे-
1. विकासात्मक विशेषताएँ (Developmental Characteristics) -
- किशोरावस्था में बाल का सर्वांगीण विकास होता है, वह शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक आदि क्षेत्रों में विकास के चमर्मोत्कर्ष पर होता है। इसी समय पुरुषत्व एवं नारीत्व सम्बनधी विशेषताएँ भी प्रकट होने लगती हैं। इसीलिए वे स्वयं को अपने-अपने समूहों में नियन्त्रित होते चले जाते है, जैसा कॉलस्निक ने लिखा है- "किशोरों एवं किशोरियों को अपने शरीर एवं स्वास्थ्य की विशेष चिन्ता रहती है। किशोरों के लिए बलशाली, स्वस्थ और उत्साही बनना एवं किशोरियो के लिए अपनी आकृति को स्त्रीत्व आकर्षण प्रदान करना महत्वपूर्ण होता है।"
- इसी प्रकार से किशोरों एवं किशोरियों में मानसिक क्षमताओं का पूर्ण विकास हो जाता है। बुद्धि की स्थिरता, कल्पना शक्ति का बाहुल्य, तर्क शक्ति की प्रचुरता, विचार में परिपक्वता और विरोधी मानसिक दशाएँ आदि मानसिक विशेषताओं का विकास हो जाता है। शारीरिक एवं मानसिक विकास के कारण उनके संवेगात्मक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है। इस आयु के किशोर एवं किशोरियों भावात्मक एवं रागात्मक जीवन व्यतीत करते हैं। वे अपने निश्चय के समक्ष सामाजिक मान्यताओ की भी परवाह नहीं करते हैं। क्योंकि उनका मन और तन उद्वेगात्मक शक्ति से परिपूर्ण रहता है।
2. आत्म-सम्मान की भावना (Feeling of Self Respect)-
- किशोरावस्था में आत्मसम्मान के भाव की स्वतः ही वृद्धि हो जाती है। वे समाज में वही स्थान प्राप्त करना चाहते हैं जो बड़ों को प्राप्त है। इसीलिए आत्मनिर्भर बनना, नायकत्व करना, प्रत्येक कार्य करने को तैयार रहना और महान् पुरुषों की नकल करना आदि आयामों को किशोर प्रगट करते रहते - है। वे स्वयं को पूर्ण समझते हैं। सभी कार्यों को करने की क्षमता रखते हैं। उनमें माता-पिता या अन्य किसी व्यक्ति के संरक्षण में रहना सम्भव नहीं होता है। अतः हम कह सकते हैं कि इस आयु में किशोर एवं किशोरियों का जीवन अपूर्वता के साथ विकसित होता है, जिसमें उनकी स्वयं की विशेषताएँ होती हैं, जैसा कि ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन ने माना है- "किशोर का महत्वपूर्ण बनना, अपने समूह में स्थिति (स्टेटस) प्राप्त करना और श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में अपने को स्वीकार किया जाना चाहता है।"
3. अस्थिरता (Unstability)-
- अस्थिरता शब्द का विकास के रूप में अर्थ होता है- 'निर्णय की चंचलता।' किशोरावस्था में लिये गये निर्णय अस्थिरता से भरे होते हैं। वह शारीरिक शक्ति के वशीभूत होकर निर्णय ले लेता है जो उसके लिए लाभदायक कम और हानिकारक अधिक होते हैं। वे अपने कार्यों में, रुचियों में, आदतों में, संवेगों में और सीखने आदि में लापरवाह की तरह से संलग्न होते हैं। वे जल्दबाजी में अपनी विशिष्टता को भी खो बैठते हैं। उनको यथार्थ बनावटी लगता है। अतः वे विभिन्न क्षेत्रों में अपनी अस्थिरता को प्रकट करते रहते हैं। इसी बात की पुष्टि ई. बे. स्ट्रांग के अध्ययनों से भी होती है।
4. किशोरापराध की प्रवृत्ति का विकास (Development of Juvenile Delinquent Tendency)
- जब एक निश्चित आयु के बीच के लड़के और लड़कियाँ समाज के नियमों का उल्लंघन एवं कानूनों का विरोध करने लगते हैं, जो उन्हें किशोरापराध की संज्ञा दी जाती है। इस उम्र की सबसे बड़ी विशेषता होती है- अनुशासनहीनता और नियमों को तोड़कर व्यवहार करना। इस अवस्था में जीवन-दर्शन का निर्माण, मूल्यों का बनना, आशाओं का पूरा न होना, असफलता प्रेम की तीव्र लालसा और अदम्य साहस आदि विशेषताओं के वशीभूत होकर किशोर स्वयं को अपराधी मनोवृत्ति का बना लेता है और उसी के द्वारा अपने अहं की तुष्टि करता है। बेलेन्टाइन का मत है- "किशोरावस्था, अपराध-प्रवृत्ति के विकास का नाजुक समय है। पक्के अपराधियों की एक विशाल संख्या किशोरावस्था में ही अपने व्यावसायिक जीवन का गम्भीरतापूर्वक आरम्भ करती हैं।"
5. काम भावना की परिपक्वता (Maturity of sex instincts)-
- इस अवस्था में कामेन्द्रियों का पूर्ण विकास हो जाता है और काम भावना अपनी पराकाष्ठा पर होती है। शैशवकाल और बाल्यावस्था की सुषुप्त काम भावना इस समय अपने पूर्ण यौवन पर होती है। मनोवैज्ञानिकों के अध्ययनों से पता चलता है कि किशोरों में बेचैनी, नाखून चबाना, पैसिंग मुँह में देना, लड़कियों में बार-बार आँचल लपेटना, स्वप्नातीत विचरण आदि विशेषताएँ स्पष्ट देखने को मिलती हैं।
काम भावना की परिपक्वता का विकास तीन क्रमों में होता है-
(अ) आत्य प्रेम (Auto Eroticism) -
- किशोरावस्था में लड़के एवं लड़कियाँ स्वय को आकर्षक बनाने में लगे रहते हैं, ताकि वे दूसरों को प्रभावित कर सकें। यह भाव आत्म प्रेम, आत्म-सम्मान से प्रेरित रहता है। वह प्रत्येक समय में अपने में मस्त रहत्ता है और बाहरी करता है जो उसको अच्छा लगता है। इसी भावना को डॉ. फ्रायड ने 'नारसिसिज्म' कहकर पुकारा था।
(ब) समलिंगीय काम भावना (Homo-sexual Feelling)-
- आत्म-प्रेम की भावना के पश्चात् इस अवस्था में सामूहिक भाव पैदा होते हैं। लड़के, लड़कों के समूह में रहना पसन्द करते है और लड़कियाँ, लड़कियों के समूह में, ये दोनों ही अपना-अपना राजदार बनाने के लिए मित्रता के नये आयामों की खोज करते हैं। ये लोग साथ-साथ कक्षा में बैठते हैं, पिकनिक पर जाते हैं, पार्क में बैठकर बातचीत करते हैं और साथ-साथ घूमते-फिरते हैं। इस प्रकार इस आयु में काम भावना का विकास समलिंगीय समूहों में भी विकसित होता है।
(स) विषम लिंगीय काम भावना (Hetro-sexual Feeling) -
- किशोरावस्था के अन्तिम चरण में किशोर और किशोरियाँ एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। इनके अन्दर विश्व के प्रति यथार्थ दृष्टिकोण विकसित होने लगता है। ये लोग अपने जीवन साथी की कल्पना मे मानसिक रूप से संतृप्त रहते हैं। इसीलिए इनमें विषम लिंगीय प्रेम प्रस्फुटित होता है। लड़का लड़की के प्रति अधिक आकर्षित होता है।
6. समाज सेवा (Social Service) -
- किशोरावस्था में समाजसेवा की भावना बहुत होती है। लड़के ऐसा कार्य करना चाहते हैं कि वे अपने पिता के समान सम्मान प्राप्त कर सके और लड़कियाँ अपनी माँ के समान आदर प्राप्त करना चाहती हैं। वे स्वयं को सामाजिक उत्सवो, कार्यों और सेवाओं से ओतप्रोत कर लेते हैं और उसको ही प्रमुखता देने लगते हैं। इसी का परिणाम है कि जब भी कोई आयोजन होता है किशोर एवं किशोरियों को याद किया जाता है। रास महोदय ने स्पष्ट किया है- "किशोर समाज सेवा के आदर्शों का निर्माण और पोषण करता है। उसका निष्कपट हृदय मानव जाति के प्रेम से ओत-प्रोत रहता है और आदर्श समाज के निर्माण में सहायता देने के लिए लालायित रहता है।"
7. कल्पना का बाहुल्य (Exuberance of Imagination) -
- इस अवस्था की प्रमुख विशेषता है कल्पना का दैनिक जीवन में प्रयोग होना। मन की चंचलता, ध्यान परिवर्तन और मूल्यों की अस्थिरता के कारण वह यथार्थता से हट जाता है और कल्पना जगत में डूबा रहता है। इसी अवस्था को मनोवैज्ञानिकों ने दिवा स्वप्न नाम दिया है। जब कोई वर्तमान से अनभिज्ञ होकर कल्पनात्मक महलों की दुनिया के स्वप्न देखने प्रारम्भ कर देता है तो इस अवस्था को उसकी दिवा-स्वप्न की अवस्था कहा जाता है। इस विशेषता के कारण व्यक्ति में सौन्दर्यात्मक एवं भावात्मक मूल्यों का विकास होता है जो उनको कवि, कलाकार, नाटककार, उपन्यासकार, चित्रकार और संगीतकार आदि के व्यक्तित्व में ढालने में सहायक होता है।
8. अपराध वृत्ति (Criminal Tendency) -
- किशोरावस्था में अस्थिरता के कारण मानसिक झुकाव नाजुक स्थिति से होकर गुजरता है। इस अवस्था में लड़के एवं लड़कियो को भौतिक जगत का बनावटी आकर्षण दिखाकर चतुर अपराधी अपराध वृत्ति की ओर आकर्षित कर लेते हैं। बाद में धीरे-धीरे इनका जीवन अपराध करने के अलावा और कुछ नहीं रह पाता है और समाज एवं राष्ट्र में अपमान सहते रहते है। ये कभी भी अच्छे नागरिक नहीं बन पाते हैं। मनोवैज्ञानिको के मनोविश्लेषण से स्पष्ट हो गया है कि ये सामाजिक बनने के लिए छटपटाते रहते हैं, लेकिन प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी करने में असफल रहते हैं।
9. धार्मिक भावों का उदद्य (Development of Religious Feelings)-
- शैशवावस्था की स्वार्थ भावना, किशोरावस्था में सामाजिक भावना यानि दूसरों की सहायता करने में सुख महसूस करने में परिवर्तित हो जाती है। इसी समय किशोर एवं किशोरियाँ धार्मिक भावना एवं अलौकिकता में विश्वास करने को उत्सुक रहते हैं। वे अपने को मानव समाज के लिए अर्पण करने के लिए तैयार होते हैं। उनको एक नयी ज्योति दिखलाई देती है जो भविष्य का मार्गदर्शन देती है। धीर-धीरे वे उसको आत्मसात करते हैं और स्वयं को ईश्वरीय शक्ति के प्रति आस्थावान बनाना प्रारम्भ कर देते हैं। इसी के फलस्वरूप आत्मचेतन, संयम, नियन्त्रण, कर्त्तव्य पालन और समाज सेवा के भाव आदि महान् व्यावहारिक क्रियाएँ प्रारम्भ होती हैं। अतः इसी अवस्था में धार्मिक भावनाएँ प्रकट होकर अपना प्रभाव स्थायी बनाती हैं।
10. स्वाभाविकता का विकास (Development of Originality)-
- जब कोई व्यक्ति अपने कार्यों एवं व्यवहारों में नवीनता प्रकट करना प्रारम्भ कर देता है, जो दूसरे के कार्यों और व्यवहारों से भिन्न होती है और अपूर्वता की परिचायक होती है, इसे व्यक्ति की स्वाभाविकता कहते हैं। टी.पी. नन महोदय का यह विचार है कि व्यक्ति की पहचान उसकी अपूर्व स्वाभाविकता के फलस्वरूप ही है, अन्य किसी से नहीं। इस अवस्था के लड़के एवं लड़कियाँ इसीलिए दूसरों को आकर्षित करते हैं। इस शक्ति का विकास जिसमें जितना तीव्र होता है वही अधिक सामाजिक बन जाता है। अतः 'स्टेनले हॉल' के शब्दों में- "किशोरावस्था एक नया जन्म है, इसी अवस्था में उच्चतर और श्रेष्ठतर मानवीय गुण प्रकट होते हैं।"