बाल्यावस्था जीवन का अनोखा काल क्यों कहलाती है? बाल्यकाल की क्या प्रमुख विशेषताएँ होती हैं?
बाल्यकाल की क्या प्रमुख विशेषताएँ होती हैं? -
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में अनेक बातें शैशवावस्था के समान ही होती हैं। परन्तु विकास और परिपक्वता के कारण बालक का व्यवहार अनेक बातों में शिशु से भिन्न होता है। बालक में शिशु की अपेक्षा संवेगों की संख्या अधिक होती है। इस अवस्था को समझना अपेक्षाकृत कठिन होता है। इस अवस्था में अनेक परिवर्तन आते हैं। यही कारण है कि कुछ मनोवैज्ञानिक के द्वारा इसे जीवन का अनोखा काल कहा जाता है। यह अवस्था 6 वर्ष से लेकर 12 वर्ष तक होती है।
बाल्यावस्था : जीवन का अनोखा काल
- कुछ मनोवैज्ञानिकों के द्वारा बाल्यावस्था को जीवन का अनोखा काल माना जाता है। इसका कारण यह है कि इस अवस्था में बालक में अनेक परिवर्तन आते हैं। इसी कारण बालक की मनोदशाओं को समझना कठिन होता है। जब बालक 6 वर्ष का होता है, तो उसका स्वभाव अत्यन्त उग्र होता है। परन्तु जैसे ही वह लगभग 7 वर्ष का होता है, उसमें उदासीनता आ जाती है। एक आठ वर्ष का बालक अन्य बालकों से सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। एक दस वर्ष का बालक कोई नियमित कार्य नहीं करना चाहता है। परन्तु उसको रोमांचकारी कार्य करने में अधिक आनन्द आता है।यही कारण है कि बाल्यावस्था को जीवन का अनोखा काल माना जाता है।
बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताएँ
बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार हैं-
1. मानसिक विकास-
इस अवस्था में बालक की मानसिक योग्यताओं में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। उसकी अवधान केन्द्रित करने की शक्ति बढ़ जाती है। उसमें 'चिन्तन' और 'तर्क योग्यता' का विकास होने लगता है।
2. वास्तविक जगत में प्रवेश
इस अवस्था में बालक वास्तविक जगत में विचरण करने लगता है। वह संसार की वस्तुओं की जानकारी प्राप्त करना चाहता है।
3. सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता-
शैशवावस्था में बालक अकेले खेलना चाहता है। परन्तु बाल्यावस्था आने पर बालक में सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता हो जाती है। वह अपना अधिक से अधिक समय अन्य बालकों के साथ व्यतीत करना चाहता है। बालक अनिवार्य रूप से किसी समूह का सदस्य हो जाता है।
4. मानसिक स्थिरता-
बाल्यावस्था में बालक में मानसिक स्थिरता आ जाती है। बालक का मस्तिष्क परिपक्व हो जाता है। बालक वयस्क जैसा व्यवहार करने लगता है।
5. निरुद्देश्य भ्रमण करना-
बालक जब इस अवस्था में आ जाता है तो वह बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने लगता है। बालक प्रायः बिना छुट्टी लिए विद्यालय से भाग जाते हैं और आवारागर्दी करते-फिरते हैं।
6. सामाजिक गुणों का विकास-
बाल्यावस्था में बालकों में सामाजिक गुणों का विकास आरम्भ हो जाता है। उनमें सहयोग से कार्य करने की सहनशीलता आ जाती है। इस अवस्था में बालक आज्ञाकारी हो जाता है।
7. नैतिकता का विकास-
इस अवस्था में बालकों का नैतिक विकास होने लगता है। 6 वर्ष के बालक में अच्छे-बुरे का ज्ञान हो जाता है। उसमें सामाजिक भावना का भी विकास होने लगता है।
8. जिज्ञासा की प्रबलता-
इस अवस्था में बालक की जिज्ञासा की प्रवृत्ति और अधिक प्रबल हो जाती है। बालक अनेक वस्तुओं के सम्पर्क में आता है। वह उनके विषय में अनेक प्रकार के प्रश्न पूछता है। शैशवावस्था में बालक किसी वस्तु के विषय में पूछता है कि वह क्या है? बाल्यावस्था में उसी वस्तु के विषय में वह पूछता है "वह क्यों है?"
9. बाहरी जगत में रुचि
इस अवस्था में बालकों की रुचि बाहरी जगत में हो जाती है। शैशवावस्था में बालक एकान्तप्रिय होता है। अब वह परिवार के बाहर के व्यक्तियों में रुचि लेने लगता है।
10. सामूहिक खेलों में रुचि-
अब बालक अकेला नहीं खेलता। उसे अन्य बालकों के साथ खेलना अच्छा लगता है। वह सामूहिक खेलों में भी रुचि लेने लगता है।
11. काम-प्रवृत्ति में कमी-
शैशवावस्था में बालकों की काम-प्रवृत्ति में प्रबलता होती है। परन्तु बाल्यावस्था में आकर काम-प्रवृत्ति में न्यूनता आ जाती है। बालक अपनी काम- प्रवृत्ति का प्रदर्शन भी नहीं करता।
12. रचनात्मक कार्यों में आनन्द-
इस अवस्था में बालकों को रचनात्मक कार्यों में अधिक आनन्द आता है। बालिकाएँ भी घर के कोई न कोई कार्य करना चाहती हैं। परन्तु बालक और बालिकाओं के रचनात्मक कार्यों में भिन्नता होती है।
13. संग्रह करने की प्रवृत्ति
बाल्यावस्था में बालकों में संग्रह करने की प्रवृत्ति पायी जाती है। वे स्टाम्प, टिकट, बस की टिकटें, कोकाकोला के ढक्कन, सिगरेट के डिब्बे, पत्थर के टुकड़े तथा चॉक के टुकड़े आदि एकत्रित करने लगते हैं।
14. संवेगों का दमन-
बाल्यावस्था में बालकों में संवेगों का दमन करना आ जाता है। प्रायः वे अपने संवेगों का खुलकर प्रदर्शन नहीं करते। वे अपने बड़ों का आदर करते हैं और उनकी भावनाओं का आदर करना सीख जाते हैं।