एक व्यक्ति के
रूप में बालक का विकास एवं
अवस्थाएँ (Child as
a developing individual)
विकास की कितनी अवस्थाएँ होती हैं? हरलॉक के अनुसार विकास की अवस्थाओं का वर्णन
कीजिए।
विकास की अवस्थाएँ (Stages of Development)
विकास की प्रक्रिया को विभिन्न अवस्थाओं में बाँटा
जा सकता है। विकास की हर अवस्था दूसरी अवस्था से भिन्न होती है। बालक अलग-अलग
विकास अवस्थाओं में अलग- अलग प्रकार के विकासात्मक कृत्य सीखता है और उसी के
अनुरूप व्यवहार करता है। इन विकास अवस्थाओं को आयु-स्तरों में बाँटा गया है। जब एक
विकास अवस्था खत्म हो रही होती है तथा दूसरी विकास अवस्था शुरू हो रही होती है तो
पहली विकास अवस्था के खत्म होने से पहले व दूसरी विकास अवस्था शुरू होने के कुछ
देर बाद तक बालक या व्यक्ति मे दोनों विकास अवस्थाओं के लक्षण पाए जाते हैं
अर्थात् इस स्थिति में दोनों विकास अवस्थाओं की विशेषताओं में मिला-जुला पन होता
है। हरलॉक द्वारा वर्णित विकास अवस्थाएँ इस प्रकार से हैं-
विकास की अवस्थाओं का वर्णन निम्न प्रकार से है-
1. गर्भकालीन अवस्था (Prenatal Period: Conception of Birth)
यह गर्भधारण से जन्म तक की अवस्था है। अन्य अवस्थाओं की अपेक्षा इस अवस्था में विकास की गति तीव्र होती है। इस अवस्था में अधिकांश विकास शिशु के शरीर में होते हैं। इस अवस्था की विकास प्रक्रियाओं के अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इस अवस्था की तीन उप-अवस्थाएँ हैं-
(i) बीजावस्था (Germinal Period)-
- यह गर्भधारण से दो सप्ताह तक की अवस्था है। इस अवस्था में शिशु का आकार अण्डानुमा होता है। लगभग दस दिन तक उसे माँ से कोई आहार प्राप्त नहीं होता है, परन्तु बाद में यह गर्भाशय की दीवार से जुड़ जाता है और माँ से आहार प्राप्त करने लगता है।
(ii) भ्रूणावस्था (Embryonic Period)-
- यह दो सप्ताह से आठ सप्ताह तक की अवस्था है। इस अवस्था का जीव भ्रूण कहलाता है। इस अवस्था में शरीर के मुख्य-मुख्य अंगों का निर्माण होता है। दूसरे महीने के अन्त तक इसका भार दो ग्राम और लम्बाई एक इंच से दो इंच तक हो जाती है।
(iii) गर्भस्थ शिशु की अवस्था (Period of the Fetus) -
- यह आठ सप्ताह से जन्म से पूर्व तक की अवस्था है। भ्रूणावस्था में जिन अंगों का निर्माण होता है, उन्हीं अंगों का विकास इस अवस्था मे होता है। इस अवस्था में गर्भस्थ शिशु के सभी प्रमुख अंग, जैसे- हृदय, फेफड़े आदि कार्य करने लगते हैं और यदि सात महीने का गर्भस्थ शिशु भी जन्म ले लेता है तो वह जीवित रह सकता है।
2. शैशवावस्था (Infancy)
यह जन्म से चौदह दिन की अवस्था है। इस अवस्था में
शिशु को नवजात शिशु कहते हैं। इस अवस्था में बालक को पूर्णतः नए वातावरण में
समायोजित करना पड़ता है। यह नया वातावरण माँ के गर्भ की अपेक्षा पूर्णतः भिन्न
होता है। इसलिए इस अवस्था को समायोजन की अवस्था कहते हैं (Miller, 1950)। इस अवस्था में वालक को अनेक प्रकार की क्रियाएं जैसे-चूसना, निगलना, श्वसन, उत्सर्जन इत्यादि करनी पड़ती हैं। इस अवस्था का मुख्य कार्य बालक
द्वारा विभिन्न नवीन परिस्थितियों के साथ समायोजन स्थापित करना है।
3. बचपनावस्था (Babyhood)
यह अवस्था दो राप्ताह के बाद से दो वर्ष तक की
अवस्था है। इस अवस्था के प्रारम्भ में बालक पूर्णतः असहाय होता है और अपनी
आवश्यकताओं के लिए दूसरों पर निर्भर होता है, परन्तु इस
अवस्था में विकास की गति तीव्र होती है। विकास के साथ-साथ उसका अपनी माँसपेशियों
पर नियन्त्रण बढ़ता जाता है और वह धीरे-धीरे आत्मनिर्भर होता जाता है। फलस्वरूप वह
स्वयं खाना-खाने, खेलने, चलने, हँसने और बोलने जैसे व्यवहार सीख
जाता है। प्रमुख संवेग इसी अवस्था में उदित हो जाता है और उनमें संवेगों की झलक
स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती है।
4. बाल्यावस्था (Childhood)
यह तीसरे वर्ष के प्रारम्भ से तेरह-चौदह वर्ष तक की
अवस्था है। इस अवस्था को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से दो अवस्थाओं- (i) पूर्व बाल्यावस्था, (ii) उत्तर बाल्यावस्था
में बाँटा गया है। तीन वर्ष से छः वर्ष तक की अवस्था पूर्व वाल्यावस्था है तथा छः
वर्ष से तेरह-चौदह वर्ष तक की अवस्था उत्तर बाल्यावस्था है।
(i) पूर्व बाल्यावस्था (Early Childhood)
- पूर्व बाल्यावस्था (Early Childhood) में एक सामान्य रूप से स्वस्थ बालक की लम्बाई लगभग 47 इंच तथा उसका वजन लगभग 47-48 पौण्ड होता है। पूर्व वाल्यावस्था में बालक अपने मनोवैज्ञानिक वातावरण पर नियन्त्रण करना सीखता है तथा सामाजिक समायोजनों को सीखना प्रारम्भ कर देता है। इस अवस्था में अनुकरण, जिज्ञासा तथा समूह प्रवृत्ति आदि कुछ प्रमुख विशेषताएँ हैं, जो बालक में पायी जाती हैं। जिज्ञासा के कारण बालक अक्सर अनेक प्रकार के प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा को शान्त करने का प्रयास करते हैं। पूर्व बाल्यावस्था के मध्य तक बालक सामाजिक परिवेश के सम्पर्क में आता है क्योंकि वह स्कूल जाना शुरू कर देता है। उसका सामाजिक क्षेत्र बढ़ जाता है क्योंकि नए दोस्त, नए अनुभव और नए-नए तरह से अधिगम करना शुरू कर देता है।
(ii) उत्तर बाल्यावस्था (Late Childhood
- उत्तर बाल्यावस्था (Late Childhood) लड़कियों में छः से तेरह वर्ष तथा लड़कों में छः से चौदह वर्ष तक होती हैं। इस अवधि में शारीरिक परिवर्तन की गति बढ़ जाती है। स्थायी दाँत निकल आते हैं। यौन परिपक्वता तथा किशोरावस्था का उदय इसी अवस्था में होता है। इस अवधि की मुख्य विशेषता सामाजीकरण है। स्कूल में बच्चे अक्सर टोली बना लेते हैं। इस अवस्था में बालक साहसिक या महत्वपूर्ण कार्य करके तरह-तरह के अन्वेषण और खोज करके नए अनुभव प्राप्त करता है। इस अवस्था में वह अभावों और कठोरताओं को सहन कर लेता है। वह किशोरों की भाँति क्रान्तिकारी भावनाओं का प्रदर्शन कम करता है। बालक का अधिकांश समय स्कूल तथा मित्र-मण्डली में व्यतीत होता है। इस प्रकार उसे जीवन की वास्तविकताओं को समझने का अवसर मिलता है।
5. वयः सन्धि या पूर्व किशोरावस्था (Puberty)
- इसका कुछ भाग उत्तर बाल्यावस्था और कुछ भाग किशोरावस्था में पड़ता है। लगभग दो वर्ष उत्तर बाल्यावस्था और दो वर्ष किशोरावस्था में पडते हैं। इसीलिए इस अवस्था में यह अवस्था अवस्था में मुख्य तक अवस्था है तथा लड़कों में 12 से 17 वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में मुख्यतः यौत्र अंगों का विकास होता है। शारीरिक और मानसिक विकास की गति इस अवस्था में ब की अपेक्षा तीव्र होती है। इस अवस्था के बालक अक्सर अपना सामाजिक और संवेगात्पश नियन्त्रण खो देते हैं। उनके जीवन में अस्थिरता, कौतूहल तथा नकारात्मक प्रवृत्तियाँ बढ़ जात हैं। इस अवस्था में बालक में भावात्मक और ज्ञानात्मक बदलाव भी तेजी से शुरू हो जाते हैं। इस अवस्था में बच्चे स्वयं के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं।
6. किशोरावस्था (Adolescence)
- बाल जीवन की यह अन्तिम अवस्था है। यह 14-15 वर्ष से लगभग 21 वर्ष तक की अवस्था है। लगभग 17 वर्ष तक की अवस्था पूर्व किशोरावस्था कहलाती है तथा इसके बाद की अवस्था उत्तर किशोरावस्था कहलाती है। कुछ लोग इस अवस्था को स्वर्ण आयु पी कहते हैं।
- किशोरावस्था की सबसे महत्वपूर्ण चुनौती किशोर को स्वयं की पहचान बनाना होती है। इस अवस्था में विपरीत सैक्स के लोगों के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है तथा सामाजिकता और कामुकता इस अवस्था की दो मुख्य विशेषताएँ हैं, जिनसे सम्बन्धित अनेक परिवर्तन बालक-बालिकाओं में इस अवस्था में होते हैं। इस अवस्था में कल्पनाओं का बाहुल्य, स्वच्छन्दता का बाहुल्य, समस्याओं का बाहुल्य, संवेगात्मक अस्थिरता तथा बढ़े हुए आन्तरिक परिवर्तन जैसे लक्षण पाए जाते हैं।
7. प्रौढ़ावस्था (Adulthood)
- यह इक्कीस से चालीस वर्ष तक की अवस्था है। यह कर्तव्यों, बहुमुखी उत्तरदायित्व और उपलब्धियों की अवस्था है। व्यक्ति अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का तभी निर्वाह कर सकता है जब जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में उसका स्वस्थ समायोजन हो। स्वस्थ समायोजन की ही अवस्था में वह उपलब्धियों को प्राप्त कर सकता है। इस अवस्था में व्यक्ति का शारीरिक विकास पूर्ण होकर स्थिर हो जाता है तथा प्रौढ़ावस्था के मध्य से थोड़ा-थोड़ा ह्रास होना शुरू हो जाता है, परन्तु व्यक्ति सामाजिक, मानसिक व आर्थिक विकास करता रहता है। वह नए रचनात्मक कार्य करता है, पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन सफलतापूर्वक करने का प्रयास करता है। सामाजिक प्रत्याशाओं के कारण समायोजन की समस्या इस अवस्था में बढ़ जाती है क्योंकि व्यक्ति को इस अवस्था में अनेक जीवन सम्बन्धी कृत्य भी करने होते हैं।
- प्रौढ़ावस्था में वही व्यक्ति अपनी भूमिकाओं को करने में अधिक सफलता प्राप्त करते हैं जिनको प्रौढ़ावस्था से पूर्व की अवस्थाओं में अति संरक्षण प्राप्त नहीं होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि प्रौढ़ावस्था की भूमिकाओं को करने तथा समायोजन में वह व्यक्ति अधिक सफल नहीं होते हैं, जिन्हें बाल्यावस्था या किशोरावस्था में अति-संरक्षण प्राप्त होता है।
8. मध्यावस्था (Middle Age)
- मध्यावस्था का प्रसार व्यक्ति के जीवन में 40 वर्ष से 60 वर्ष तक माना जाता है। इस अवस्था के दौरान व्यक्ति में हास सम्बन्धी लक्षणों की स्पष्टता दिखाई देने लगती है तथा हासात्मक परिवर्तनों की गति में तीव्रता भी आ जाती है। व्यक्ति अपने कार्यस्थल या व्यवसाय में बहुत कुछ सन्तुष्ट हो चुका होता है, जिसके परिणामस्वरूप उसके पैसा कमाने सम्बन्धी उत्सुकता में भी कमी आ जाती है। व्यक्ति की रुचियों में बदलाव आने लगता है उसके भीतर पारिवारिक व धार्मिक प्रवृत्तियों में वृद्धि हो जाती है। इस अवस्था में व्यक्ति में कुछ शारीरिक व मानसिक परिवर्तन भी होते हैं, उसकी क्षमताओं में भी तीव्रता से गिरावट आती है और व्यक्ति को बूढ़े होने का भय लगने लगता है। व्यक्ति युवा पीढ़ी के साथ समायोजन में भी कठिनाई का अनुभव करने लगता है। जीवन की बाधाएँ उसकी स्वतन्त्रता में कमी ला देती हैं जिसके परिणामस्वरूप उसमें जीवन सम्बन्धी उत्साह में कमी आ जाती है। लेकिन जिन व्यक्तियों का समायोजन इस अवस्था में भी उच्च होता है तो वे बहुत अधिक मानसिक सन्तुष्टि का अनुभव करते हैं।
9. वृद्धावस्था (Old Age)
- वृद्धावस्था का प्रारम्भ 60 वर्ष की आयु से होता है तथा यह अवस्था जीवन के अन्त तक होती है। इस अवस्था में व्यक्ति की शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार की क्षमताओं का हास तीव्र गति से होता है। व्यक्ति की स्मरण शक्ति के ह्रास में तीव्रता आ जाती है, उसके रचनात्मक चिन्तन और सीखने की योग्यताओं में भी कमी आ जाती है, शारीरिक शक्ति खत्म होने लगती है, जिसके परिणामस्वरूप उसकी कार्य सम्पादन क्षमता मन्द हो जाती है।
- इस अवस्था में व्यक्ति अपने कार्य (व्यावसायिक) क्षेत्र से सेवानिवृत्त हो जाता है। उसकी दूसरों पर निर्भरता या आश्रितता बढ़ जाती है तथा जीवन के आकर्षण कम होते जाते हैं और उदासीनता तथा चिन्ता बढ़ती जाती है। कार्य विहीनता तथा निष्क्रियता के बाद भी व्यक्ति में यह विरोधाभासी चिन्तन रहता है कि वह अभी भी बहुत कुछ वृद्धि और विकास कर सकता है। व्यक्ति की रुचियों और मनोवृत्तियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं तथा उसके व्यवहार में बालकों जैसे आचरण का भी प्रदर्शन दिखाई देने लगता है।