कहानी कथन विधि क्या है? |निदानात्मक विधि |Clinical Method B.Ed

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कहानी कथन विधि क्या है? |निदानात्मक विधि |Clinical Method B.Ed


कहानी कथन विधि क्या है? 

  • कहानी कथन विधि शिक्षण की एक प्रविधि है। घटना एवं तथ्यों को कहानी कथन के रूप में शिक्षक द्वारा रोचक ढंग से त्रस्तुत की गई विषयवस्तु बच्चों की समझ में जल्दी आती है। प्रायः यह सभी जानते हैं कि बच्चों को कहानियाँ सुनना बहुत अच्छा लगता है। छोटे व बड़े सभी बच्चे अपनी आयु व मानसिक स्तर के आधार पर अपनी कहानियाँ सुनते तथा उनके निष्कर्ष के रूप में ज्ञान व अवबोध प्राप्त करते हैं और अनुप्रयोग करना भी सीखते हैं।

 

  • इस प्रविधि का प्रयोग छोटे-छोटे बच्चों और छोटी कक्षाओं के लिये किया जाता है। वैसे तो सामाजिक विज्ञान के सभी विषयों में इसका प्रयोग किया जा सकता है किन्तु विज्ञान के वर्णात्मक विषय जैसे मानव की उत्पत्ति आदि को पढ़ाने के लिये इस विधि का भी उपयोग किया जा सकता है। यह विधि आकर्षकमनोवैज्ञानिक और रुचिकर होती है। इस विधि के सम्बन्ध में बाटर्स का कहना है कि- 'कहानी तेरह वर्ष की आयु तक के बच्चों तक की अवस्था के लिये इतिहास शिक्षण का मुख्य साधन होना चाहिये। भूगोल शिक्षण में भी इस विधि को मानव जीवन का चित्रण करते समय उपयोग किया जा सकता है। छोटी कक्षाओं में तो यह विधि सभी विषयों के शिक्षण में सफल रहती है। यह विधि बालकों में तथ्यात्मक जानकारी के साथ चारित्रिक और नैतिक विकास करने में भी उपयोगी है

कहानी कथन विधि का उपयोग करते समय निम्नांकित सावधानियाँ रखना आवश्यक होता है-

 

(1) कहानी को ठीक क्रमानुसार प्रस्तुत किया जाना चाहिये। 

(2) कहानी की भाषा-शैलीविषय वस्तु सरल और समझने योग्य होनी चाहिए। 

(3) कहानी कहने का ढंग रोचकभावपूर्णआकर्षक और स्वाभाविक होना चाहिये। 

(4) कहानी में प्रारम्भ से लेकर अंत तक क्या होगा। जानने की जिज्ञासा बालकों में बनी रहनी चाहिये। 

(5) कहानी की पाठ्यवत्तु का सामाजिक जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिये। 

(6) इस विधि का प्रयोग पूर्व प्राथमिक विद्यालयों से प्राथमिक विद्यालयों तक सीमित रखना चाहिये। 

(7) कहानी की विषय वस्तु को बालकों के सामाजिक जीवन और वास्तविक परिस्थितियों से सम्बन्धित रखना चाहिये।

 

बच्चों के सन्दर्भ में आँकड़े एकत्रण की निदानात्मक विधि को समझाइए । 

 

निदानात्मक विधि (Clinical Method) 

  • साधारणतया विशिष्ट अधिगमव्यक्तित्व या आचरण सम्बन्धी जटिल ग्रन्थियों के अध्ययन के लिए यह विधि प्रयोग की जाती है और इसमें विचाराधीन समस्या के अनुकूल विविध निदानात्मक कार्य पद्धतियों तथा प्रविधियों का प्रयोग किया जाता है। उनका लक्ष्य इस बात को पहचानना या ज्ञात करना होता है कि उनके पात्र की विशिष्ट आवश्यकताएँ क्या हैंयह ग्रन्थि किस कारण अथवा किन कारणों से उत्पन्न हुई हैं और पात्र को इसमें क्या सहायता दी जानी चाहिए।

 
स्किनर ने निदानात्मक प्रणाली के विषय में कहा है,

 "निदानात्मक विधि साधारणतया विशेष प्रकार के सीखनेव्यक्तित्व अथवा आचरण सम्बन्धी जटिलताओं का अध्ययन करने और उनके अनुकूल विविध प्रकार की निदानात्मक विधियों का प्रयोग करने के काम में लायी जाती है। निदानात्मक विधि का प्रयोग उन बच्चों को सहायता देने के लिए किया जाता हैजिन बच्चों को पढ़ने में कठिनाई होती है अथवा हकलाने वाले या वाणी दोष से प्रभावित होते हैं अथवा ठीक से बोल नहीं पाते हैं अथवा जो बालक अपराधी होते हैं या संवेगात्मक रूप से अस्थिर होते हैं। सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि विशिष्ट प्रकार के बालकों की समस्याओं के निदान के लिए इस विधि का प्रयोग किया जाता है।

 

कार्यप्रणाली (Procedure) 

इस विधि की कार्यप्रणाली को सामान्यतया दो भागों- निदान और उपचार में विभक्त किया जा सकता है- 

(अ) निदान के लिए उपाय (Methods of Diagnosis) - समस्यात्मक व्यवहार के उचित निदान के लिए निम्नलिखित उपाय काम में लाये जा सकते हैं-

 

(1) सर्वप्रथम समस्यात्मक बालक की ठीक प्रकार से डॉक्टरी परीक्षा कराई जानी चाहिए।

(2) समस्यात्मक व्यवहार के मूल कारणों का पता लगाने में समस्यात्मक बालक के जीवन इतिहास से सहायता लेने का प्रयास करना चाहिए। 

(3)श्रीग्यताओं और रुझनों की जाँच करनी चाहिए। बुद्धि तथा उपलब्धि परीक्षाओंरुचिअभिरुचि और व्यक्तिगत परीक्षण आदि निदानात्मक उपायों की सहायता लेनी चाहिए। 

(4) निदानात्मक साक्षात्कार द्वारा समस्यात्मक व्यवहार के निदान में पर्याप्त सहायता मिलती है। अतः इस तकनीक का भी प्रयोग किया जाना चाहिए।

 

(ब) उपचार के लिए उपाय (Methods of Treatinent) - 

निदानात्मक उपायों की मदद से समस्या के कारणों का पता लगाने के बाद उपचार की व्यवस्था करना भी आवश्यक है। इस व्यवस्था द्वारा समस्यात्मक बालक के व्यवहार में अनुकूल परिवर्तन लाना होता है। 

इस कार्य के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं-

 

(1) वातावरण में आवश्यक सुधार लाना चाहिए। बालक के असन्तुलित व्यवहार और असमायोजन के लिए वातावरण बहुत उत्तरदायी होता है। अतः उसमें पर्याप्त सुधार लाने के लिए निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए. 

  • (i) ऐसे बालकों को असन्तोषजनक वातावरण से निकाल कर सन्तोषजनक और प्रेरणात्मक वातावरण में रखा जाना चाहिए। 
  • (ii) बच्चे को मनोरंजनखेलकूद एवं अपनी योग्यता तथा रुचिअभिरुचि के अनुकूल कार्य करने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने चाहिए। 
  • (iii) ऐसे बच्चों के प्रति माता-पिताशिक्षक तथा समाज के अन्य सदस्यों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाया जाना चाहिए।

 

(2) समस्यात्मक बालक के दृष्टिकोण में बदलाव लाना चाहिए। समस्याग्रस्त बालक के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए एक प्रकार से उसके सम्पूर्ण जीवन दर्शन में परिवर्तन लाने की आवश्यकता होती हैजिससे वह उचित व्यवहार करने में सक्षम हो सके।

 

निदानात्मक विधि के लाभ इस विधि की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 

(1) उपचारात्मक उपाय देने से पूर्व समस्याएँ ज्ञात करने के लिए इस विधि का प्रयोग करना अपरिहार्य है। 

(2) बालकों की शैक्षिक समस्याओं का समाधान करने में निदानात्मक विधि अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

 

निदानात्मक विधि की सीमाएँ- इस विधि की निम्नलिखित सीमाएँ हैं- 

(1) इस विधि का प्रयोग कुशल मनोचिकित्सक ही कर सकते हैं। 

(2) यह विधि कम समयश्रम तथा धन की दृष्टि से अत्यधिक व्ययसाध्य है।

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