- शैशवावस्था की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं? स्पष्ट रूप से वर्णन कीजिये।
- आप कैसे कह सकते हैं कि शैशवावस्था में शारीरिक विकास तीव्रता से होता है?
शैशवावस्था की मुख्य विशेषताएँ
1. दूसरों पर निर्भर रहना-
इस अवस्था में शिशु अपनी प्रत्येक आवश्यकता के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, उसकी माँ और उसके पश्चात् उसका पिता उसकी आवश्यकता को पूर्ति करते हैं। शिशु अपनी आवश्यकताओं के लिए अपनी माता पर निर्भर रहता है।
2. अकेले खेलने की प्रवृत्ति-
इस अवस्था में शिशु अकेले ही खेलना चाहता है। इस अवस्था में शिशु आरम्भ में अकेला खेलता है, परन्तु धीरे-धीरे वह अन्य बालकों के साथ खेलने लगता है।
3. कल्पना की सजीवता-
शिशु इस अवस्था में सत्य और असत्य में विभेद नहीं कर सकता। उसमें कल्पना की सजीवता रहती है।
4. सामाजिक विकास-
- जब शिशु 4 या 5 वर्ष का होता है। वह अन्य बालकों की रक्षा करना चाहता है. दूसरे बालको को दुःखी देखकर वह स्वयं दुखी होता है।
5. दोहराने की प्रवृत्ति-
शिशु में दोहराने की प्रवृत्ति होती है। वह शब्दों और गतियों को दोहराता है। ऐसा करना उसे सुख प्रदान करता है।
6. शारीरिक विकास में तीव्रता
इस अवस्था में शिशु के शारीरिक विकास की गति में विशेष तीव्रता होती है। उसकी ऊँचाई शीघ्रता से बढ़ती है परन्तु जन्म के 3 वर्ष के पश्चात् विकास की गति मन्द हो जाती है।
7. सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता-
इस अवस्था में शिशु शीघ्रता से सीखता है। शिशु इस अवस्था में अनेक आवश्यक बातें सीख लेता है।
8. संवेगों का प्रदर्शन-
शिशु का व्यवहार संवेग-प्रधान होता है। शिशु के जन्म के समय उसका एकमात्र संवेग 'उत्तेजित होना' होता है। पहुँचते शिशु के सभी संवेगों का विकास हो जाता है। । परन्तु 2 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते
9. अनुकरण द्वारा सीखना-
इस अवस्था में शिशु अनुकरण के द्वारा सीखता है। वह अपने माता-पिता, भाई-बहिन आदि के व्यवहार का अनुकरण करता है। शिशु की अनुकरण की प्रवृत्ति उसके विकास में सहायता करती है।
10. आत्म-प्रेम की भावना-
इस अवस्था में शिशु अपने 'स्वयं' से प्रेम करता है। वह परिवार के अन्य सदस्यों से स्नेह प्राप्त करना चाहता है। वह इस 'स्नेह' का विभाजन स्वीकार नहीं कर सकता।
11. काम-प्रवृत्ति की प्रबलता-
शैशवावस्था में काम-प्रवृत्ति की प्रबलता होती है। परन्तु इस अवस्था की विशेषता यह होती है कि शिशु इसे प्रदर्शित नहीं करता।
12. नैतिकता का अभाव-
इस अवस्था में शिशु अच्छे और बुरे अथवा उचित और अनुचित में अन्तर नहीं कर सकता। जिस कार्य को करना उसे अच्छा लगता है। वही कार्य करने लगता है। इस प्रकार उसमें नैतिकता का अभाव होता है।
13. जिज्ञासा की प्रवृत्ति-
इस अबस्था में शिशु अपने आसपास की वस्तुओं के प्रति जिज्ञासा प्रकट करता है। वह उन सभी वस्तुओं के विषय में जानकारी प्राप्त करना चाहता है। वह अपने माता-पिता से नाना प्रकार के प्रश्न पूछता है।
14. मानसिक विकास में तीव्रता
इस अवस्था में मानसिक विकास में भी तीव्रता होती है। शिशु की 3 वर्ष की आयु तक उसकी सभी मानसिक शक्तियाँ कार्य करने लगती है।
15. व्यवहार का आधार मूल प्रवृत्तियाँ
इस अवस्था में शिशु के व्यवहार का आधार उसकी मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं। वह अपनी भूख, नींद तथा क्रोध को तुरन्त व्यक्त कर देता है, शैशवावस्था के आरम्भ में भूख लगने पर शिशु किसी भी वस्तु को मुख में रख लेता है।
शैशवावस्था का क्या महत्व है?
इस समय शिशु पूर्ण रूप से माता-पिता पर निर्भर रहता है। उसका व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है। उसकी आवश्यकताएँ परिवार के सदस्यों के द्वारा पूरी की जाती है। शैशवावस्था का विशेष महत्त्व होता है।
शैशवावस्था के महत्त्व के विषय में कुछ विद्वानों के विचार निम्नलिखित प्रकार हैं-
1 स्ट्रेंग के अनुसार-
"जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने भविष्य के जीवन की आधारशिला रखता है। यद्यपि परिवर्तन किसी भी अवस्था में हो सकता है. परन्तु प्रारम्भिक प्रवृत्तियो और प्रतिमान स्थायी बने रहते हैं।"
2. एडलर के अनुसार -
"बालक के जन्म के कुछ दिनों पश्चात् ही यह निश्चित किया जाता है कि वह जीवन में कौन-सा स्थान ग्रहण करेगा।"
3. फ्रायड के अनुसार-
"व्यक्ति को जो कुछ बनना होता है, प्रारम्भ के चार-पाँच वर्षों में ही बन जाता है।"
4. न्यूमैन के अनुसार-
"पाँच वर्ष तक की अवस्था मस्तिष्क के लिए विशेष ग्रहणशील होती है।"
5. गुटेनफ के अनुसार-
"व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है।"