अभिवृद्धि एवं विकास का अर्थ सिद्धान्त |Meaning of Growth and Development

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अभिवृद्धि एवं विकास का अर्थ सिद्धान्त |Meaning of Growth and Development


  • अभिवृद्धि तथा विकास में क्या अन्तर है? विकास के विभिन्न सिद्धान्तों की समीक्षा कीजिये। 
  • अभिवृद्धि और विकास को स्पष्ट कीजिए। बाल-विकास के सामान्य सिद्धान्तों को दर्शाइये।  
  • विकास से क्या अभिप्राय है? विकास को प्रभावित करने वाले धारक (तत्व) कौन-कौन से हैं? विस्तार से विवेचना कीजिये।

 

अभिवृद्धि एवं विकास का अर्थ (Meaning of Growth and Development) 

  • अभिवृद्धि और विकास, दोनों शब्द प्रायः एक ही अर्थ में प्रयोग किये जाते हैं, किन्तु मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इनमें कुछ अन्तर होता है। सोरेन्सन (Sorenson) के विचार में, "अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग सामान्यतः शरीर और उसके अंगों के भार तथा आकार में वृद्धि के लिए किया जाता है। इस वृद्धि को नापा और तोला जा सकता है। विकास का सम्बन्ध अभिवृद्धि से अवश्य होता है पर यह शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तनों को विशेष रूप से व्यक्त करता है।" उदाहरणार्थ, बालक की हड्डियाँ आकार में बढ़ती हैं, यह बालक को अभिवृद्धि है। किन्तु हड्डियाँ कड़ी हो जाने के कारण उनके स्वरूप में जो परिवर्तन आ जाता है, यह विकास को दर्शाता है। इस प्रकार विकास में अभिवृद्धि का भाव निहित रहता है।

 

प्रायः यह भी देखने को मिलता है कि बालक की शारीरिक वृद्धि के अनुपात में उसकी कार्य-कुशलता में प्रगति नहीं होती है। ऐसी स्थिति में यह कहा जाता है कि बालक की वृद्धि तो हो गयी है किन्तु उसक्ना विकास नहीं हुआ है। इस प्रकार विकास, शारीरिक अवयवों की कार्य-कुशलता की ओर संकेत करता है। जैसा कि सोरेन्सन के विचारों में व्यक्त है, अभिवृद्धि को मापा जा सकता है, किन्तु विकास, व्यक्ति की क्रियाओं में निरन्तर होने वाले परिवर्तनों में परिलक्षित होता है। अतः मनोवैज्ञानिक अर्थों में विकास केवल शारीरिक आकार और अंगों में परिवर्तन होना ही नहीं है, यह नई-नई विशेषताओं और क्षमताओं का विकसित होना है जो गर्भावस्था से आरम्भ होकर परिपक्वावस्था (Maturity) तक चलता रहता है। 

हरलॉक के विचारों में- 

"विकास, अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है इसके बजाय, इसमें परिपक्वावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति मे नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती है।"

 

  • हरलॉक के विचारों के अनुसार विकास की प्रक्रिया बालक के गर्भावस्था से लेकर जीवन-पर्यन्त एक क्रम से चलती रहती है तथा प्रत्येक अवस्था का प्रभाव दूसरी अवस्था पर पड़ता है।

 

गेसेल के अनुसार- 

"विकास, प्रत्यय से अधिक है। इसे देखा, जाँचा और किसी सीमा तक तीन प्रमुख दिशाओं-शरीर अंक विश्लेषण, शरीर ज्ञान तथा व्यवहारात्मक में मापा जा सकता है... इस सब में, व्यावहारिक संकेत ही सबसे अधिक विकासात्मक स्तर और विकासात्मक शक्तियों को व्यक्त करने का माध्यम है।"

 

उपरोक्त विवेचना के आधार पर अभिवृद्धि और विकास में निम्नलिखित विभेद किये जा सकते हैं- 

अभिवृद्धि (Growth)  

  • अभिवृद्धि का स्वरूप बाह्य होता है।
  • अभिवृद्धि कुछ समय के बाद रुक जाती है।
  • अभिवृद्धि का प्रयोग संकुचित अर्थ में होता है।
  • अभिवृद्धि में कोई निश्चित क्रम नहीं होता है।
  • अभिवृद्धि की कोई निश्चित दिशा नहीं होती है।
  • अभिवृद्धि का कोई लक्ष्य नहीं होता है। 
  • अभिवृद्धि को सीधे मापा जा सकता है। 
  • उदाहरणार्थ, ऊँचाई और भार को सीधे मापा जा सकता है।

 

विकास (Development)

  • विकास आंतरिक होता है। 
  • विकास जीवन-पर्यन्त चलता रहता है।
  • विकास शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में होता है।
  • विकास में एक निश्चित क्रम होता है।
  • विकास की एक निश्चित दिशा होती है।
  • विकास का कोई न कोई लक्ष्य होता है।
  • विकास का सीधा मापन सम्भव नहीं है। बुद्धि को सीधे नहीं मापा जा सकता है।

 

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अभिवृद्धि और विकास में उपरोक्त अन्तर होते हुए भी सामान्यतः दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है। इसलिए यहाँ भी इन दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में प्रयोग किया जायेगा।

 
अभिवृद्धि व विकास के सिद्धान्त (
Principles of Growth & Development) 

1. समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern) - 

  • एक जाति के जीवों में विकास का एक क्रम पाया जाता है और विकास की गति का प्रतिमान भी समान रहता है। मानव जाति के विकास पर भी यह सिद्धान्त लागू होता है। गेसेल ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन करते हुए कहा कि, "यद्यपि दो व्यक्ति समान नहीं होते हैं, किन्तु सभी सामान्य बालकों में विकास का क्रम समान होता है।" विश्व के सभी भागों में बालकों का गर्भावस्था या जन्म के बाद विकास का क्रम सिर से पैर की ओर होता है। इसी सिद्धान्त की पुष्टि हरलॉक महोदय ने भी की है।

 

2. सामान्य से विशिष्ट क्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of General to Specific Response)- 

  • बालक का विकास सामान्य क्रियाओं से विशिष्टता की ओर होता है। बालक के विकास के सभी क्षेत्रों में सर्वप्रथम सामान्य प्रतिक्रिया होती है, उसके बाद वह विशिष्ट रूप धारण करती है। उदाहरण के लिए, प्रारम्भ में बालक किसी वस्तु को पकड़ने के लिए सामान्य अंगों को प्रयोग में लाता है, किन्तु बाद में वह उस वस्तु को पकड़ने के लिए विशिष्ट अंग का प्रयोग करता है। शैशवावस्था में बालक किसी वस्तु को देखकर उसको पकड़ने के लिए हाथ, पैर, मुख, सिर आदि को चलाता है, किन्तु आयु में वृद्धि होने पर वस्तु को पकड़ने के लिए हाथ की प्रतिक्रिया करता है। इसी प्रकार का रूप उसके अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है।

 

3. सतत् विकास का सिद्धान्त (Principle of Continuous Growth) - 

  • मानव के विकास का क्रम गर्भावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक सतत् रूप में चलता रहता है। विकास की गति कभी तीव्र या कभी मन्द हो सकती है। बालक में गुणों का विकास यकायक नहीं होता है। इनका विकास सतत् रूप में मन्द गति से होता रहता है। इस सिद्धान्त की पुष्टि के लिये बालकों के दाँतों का उदाहरण दिया जा सकता है। लगभग 6 माह की आयु पर शिशु के दूध के दांत निकलने पर अनुभव होता है कि ये दाँत यकायक प्रकट हुए हैं। वास्तविकता यह कि दाँतों का विकास 5 माह की भ्रूणावस्था से प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु वे जन्म के बाद 6 माह की आयु में मसूढ़ो से बाहर निकलना प्रारम्भ होते हैं।

 

4. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Interelationship) - 

  • इस सिद्धान्त से तात्पर्य है कि बालक के विभिन्न गुण परस्पर सम्बन्धित होते हैं। एक गुण का विकास जिस प्रकार हो रहा है, अन्य गुण भी उसी अनुपात में विकसित होंगे, उदाहरण के लिए, तीव्र बुद्धि वाले बालक के मानसिक विकास के साथ ही उसका शारीरिक और सामाजिक विकास भी तीव्र गति से होता है। इसके विपरीत मन्द बुद्धि बालकों का शारीरिक एवं सामाजिक विकास भी मन्द होता है।

 

5. शरीर के विभिन्न अंगों के विकास की गति में भिन्नता का सिद्धान्त (Principle of different rate of Growth of Different Parts of the Body) - 

  • शरीर के सभी अंगों का विकास एक गति से नहीं होता है। इनके विकास की गति में भिन्नता पाई जाती है। यही बात मानसिक विकास पर भी चरितार्थ होती है। शरीर के कुछ अंग तेज गति से विकसित होते हैं और कुछ मन्थर गति से; उदाहरण के लिए, 6 वर्ष की आयु तक मस्तिष्क विकसित होकर लगभग पूर्ण आकार प्राप्त कर लेता है, जबकि व्यक्ति के हाथ-पैर, नाक- मुँह का विकास किशोरावस्था तक पूरा हो जाता है। यह सिद्धान्त शारीरिक पक्ष के साथ-साथ मानसिक पक्ष पर भी लागू होता है। बालक में सामान्य बुद्धि का विकास 14 या 15 वर्ष की आयु में पूर्ण हो जाता है, किन्तु तर्क शक्ति मन्द गति के साथ विकसित होती रहती है।

 

6. विकास की दशा का सिद्धान्त (Principle of Development Direction)- 

  • इसी को केन्द्र परिधि की ओर विकास का सिद्धान्त कहते हैं। इसमें विकास सिर से पैर की ओर एक दिशा के रूप में होता है। बालक का सिर पहले विकसित होता है और पैर सबसे बाद में। यही बात उसके अंगों पर नियन्त्रण पर भी लागू होती है। बालक जन्म के कुछ समय बाद सर्वप्रथम अपने सिर को ऊपर उठाने का प्रयास करता है। 9 माह की आयु में वह सहारा लेकर बैठने लगता है। धीरे-धीरे घिसक कर चलते-चलते वह पैरों के बल पर एक वर्ष की आयु में खड़ा हो जाता है।

 

7. व्यक्तिगत विभिन्नताओं का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences)- 

  • बालकों के विकास के क्रम में व्यक्तिगत विभिन्नताएँ भी अपना प्रभाव दिखाती हैं, इनके प्रभाव के कारण विकास की गति में अन्तर आ जाता है। किसी के विकास की गति तीव्र और किसी की मन्द होती है। अतएव आवश्यक नहीं कि सभी बालक एक निश्चित अवधि पर ही किसी विशिष्ट अवस्था की परिपक्वता प्राप्त कर लें।

 

8. भिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Variation) - 

  • विकास का क्रम एक समान हो सकता है, किन्तु विकास की गति एक समान नहीं होती है। विकास की गति शैशवावस्था एवं किशोरावस्था में तीव्र रहती है, किन्तु बाल्यावस्था में मन्द पड़ जाती है। इसी प्रकार बालक एवं बालिकाओं की विकास-गति में भी भिन्नता पाई जाती है।

 

मानव-विकास को प्रभावित करने वाले तत्व (Factors Influencing Growth & Development) 

मानव-विकास क्रम को प्रभावित करने वाले अनेक तत्व होते हैं। इन तत्वों द्वारा विकास को गति प्राप्त होती है तथा ये तत्व विकास को नियन्त्रित भी रखते हैं। यहाँ उन तत्वों का संक्षिप्त मे विचार करना उपयुक्त होगा।

 

1. वंशानुक्रम (Heredity)- 

  • बालक का विकास वंशानुक्रम से उपलब्ध गुण एवं क्षमताओं पर निर्भर रहता है। गर्भधारण करने के साथ ही बालक में पैतृक कोपों का आंरम्भ हो जाता है तथा यहीं से बालक की बुद्धि एवं विकास की सीमाएँ सुनिश्चित हो जाती हैं। ये पैतृक गुण पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होते रहते हैं। बालक के कद, आकृति, बुद्धि, चरित्र आदि को भी वंशानुक्रम सम्बन्धी विशेषताएँ प्रभावित करती हैं। अनुसंधानों के आधार पर देखा गया है कि चरित्रहीन माता-पिता के बालक चरित्रहीन ही होते हैं।

 

2. वातावरण (Environment)- 

  • वातावरण भी बालक के विकास को प्रभावित करने वाला तत्व है। वातावरण के प्रभावस्वरूप व्यक्ति में अनेक विशेषताओं का विकास होता है। शैशवावस्था से ही वातावरण बालक को प्रभावित करने लगता है। बालक के जीवन दर्शन एवं शैली का स्वरूप, स्कूल, समाज, पड़ौस तथा परिवार के प्रभाव के परिणामस्वरूप ही स्पष्ट होता है। शनैः शनैः बालक उस अवस्था को प्राप्त कर लेता है जिसमें वह अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार वातावरण पर प्रभाव डालने में सक्षम होता है।

 

3. बुद्धि (Intelligence)-

  • मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों के आधार पर निश्चित किया है कि कुशाग्रबुद्धि वाले बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास मन्द बुद्धि वालों की अपेक्षा अधिक तेज गति से होता है। कुशाग्रबुद्धि बालक शीघ्र बोलने एवं चलने लगते हैं। प्रतिभाशाली बालक 11 माह में, सामान्य बुद्धि बालक 16 माह की आयु में और मन्द बुद्धि बालक 24 माह की आयु में ब्रोलना सीखता है।

 

4. लिंग (Sex) -

  • बालको के शारीरिक एवं मानसिक विकास में लिग-भेद का प्रभाव भी पड़ता है। जन्म के समय बालकों का आकार बड़ा होता है, किन्तु बाद में बालिकाओं में शारीरिक विकास की गति तीव्र होती है। इसी प्रकार बालिकाओं में मानसिक एवं यौन परिपक्वता बालकों से पहले आ जाती है।

 

5. अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine glands) - 

  • बालक के शरीर में अनेक अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ होती हैं जिनमें से विशेष प्रकार के रस का स्त्राव होता है। यही रस बालक के विकास को प्रभावित करता है। यदि ये ग्रन्थियाँ रस का स्त्राव ठीक प्रकार से न करे तो बालक का विकास अवरूद्ध हो जाता है, उदाहरण के लिए, गल-ग्रन्थि (Thyroid Gland) से स्त्रावित रस थाइरॉक्सिन बालक के कद को प्रभावित करता है। इसके स्त्रावित न होने पर बालक बौना रह जाता है।

 

6. जन्म-क्रम (Birth Order) - 

  • बालक के विकास पर परिवार में जन्म-क्रम का प्रभाव भी पड़ता है। अध्ययनों से पता चलता है कि परिवार में जन्म लेने वाले प्रथम बालक की अपेक्षा दूसरे, तीसरे बालक का विकास तेज गति से होता है। इसका कारण यह है कि बाद के बालक अपने से पूर्व जन्में बालको से अनुकरण द्वारा अनेक बातें शीघ्र सीख लेते हैं।

 

7. भयंकर रोग एवं चोट (Serious Diseases and Injuries)-

  • भयंकर रोग एवं चोट बालक के विकास में बाधा पैदा करती है। लम्बी बीमारियों के कारण बालक का शारीरिक विकास अवरूद्ध हो जाता है। इसी प्रकार बालक के सिर पर भारी चोट लगने से भी विकास में बाधा पहुंचती है।

 

8. पोषाहार (Nutrition)- 

  • सन् 1955 में वाटरलू ने अफ्रीका और भारत के बालको के विकास पर कुपोषण के प्रभाव का अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला कि कुपोषण से बालको का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरूद्ध हो जाता है।

 

9. शुद्ध वायु एवं प्रकाश (Pure Air and Light) - 

  • शुद्ध वायु एवं प्रकाश न मिलने पर बालक अनेक रोगों का शिकार बन जाता है और इसके परिणामस्वरूप उसके विकास में अवधान पैदा हो जाता है।

 

10. प्रजाति (Race)- 

  • प्रजातीय प्रभाव के कारण बालकों के विकास में विभिन्नता पाई जाती है। अध्ययन से पता चलता है कि उत्तरी यूरोप की अपेक्षा भूमध्यसागरीय वच्चचे का विकास तेज गति से होता है।

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