शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ |Methods of Educational Psychology

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शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ (Methods of Educational Psychology)

शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ |Methods of Educational Psychology


 

शिक्षा मनोविज्ञान की कालानुक्रमिक विधि को समझाइए ।

 

कालानुक्रमिक विधि (Longitudinal Method) 

  • यह एक समय अवधि शोध विधि है, जिसे लेण्टरॉक ने इस प्रकार परिभाषित किया है- "कालानुक्रम शोध विधि में एक ही व्यक्ति का एक समयावधि तक प्रायः कई वर्षों या उससे भी अधिक समय तक अध्ययन किया जाता है।" 
  • इस विधि का उपयोग छात्रों में होने वाले परिवर्तनों के तुलनात्मक अध्ययन के लिए किया जाता है। इस विधि का उपयोग पेशीय विकास, भाषा विकास, संज्ञानात्मक विकास, व्यक्ति विकास, चिन्तंन क्षमता का विकास आदि के लिए किया जाता है। 
  • इस अध्ययन में 8 वर्ष के बालकों का चयन करके उनका अध्ययन भिन्न-भिन्न वालकों में 30 वर्ष की उम्र तक किया गया। परिणाम में पाया गया कि उपर्युक्त दोनों व्यक्तित्व शैली वयस्कावस्था में भी स्थायी रूप से बनी रहती है। अर्थात् ऐसे बच्चे वयस्क होने पर भी वैसा ही व्यवहार करते हैं। जैसे वे बचपन में करते थे। कुछ ही बालक ऐसे होते हैं, जिनके व्यवहार में परिवर्तन आता है। जैसे जो बच्चे आक्रामक थे, शैतान थे, वह वयस्क होने पर अपने कार्यस्थल पर अपने सहकर्मियों से लड़ते-झगड़ते थे। वे बालक जो गैर मिलनसार रहे हैं, वे प्रायः देर से शादी करते पाए गए और वे अपनी जीवनवृत्ति को काफी देर से सँवार पाए।

 

हरलॉक के अनुसार

 "इस विधि के अन्तर्गत निश्चित रूप से अध्ययन एक ही प्रयोज्यों पर लम्बे समय तक चलता है और इनमें यह देखा जाता है कि व्यक्तिगत प्रतिमान किस प्रकार स्थिर हैं तथा इनमें कब और कैसे परिवर्तन होते हैं और इन परिवर्तनों के लिए क्या उत्तरदायी है।"

 

  • इस प्रणाली में एक ही आयु स्तर के बालक समूह को चुना जाता है, फिर समूह के बालकों की आयु के बढ़ने के साथ-साथ उनकी मानसिक और शारीरिक योग्यत्ताओं के विकास क्रम का निरीक्षण और मापन किया जाता है और अन्त में इस प्रकार प्राप्त आँकड़ों (समंकों) के आधार पर विकास क्रम को ज्ञात कर लिया जाता है। इस प्रणाली की सहायता से शारीरिक कद, वजन, बुद्धि-लब्धि, भाषा का विकास, सामाजिक और संवेगात्मक विकास आदि से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि हम बालकों में भाषा के विकास का अध्ययन करना चाहते हैं, तो एक वर्ष की आयु के केवल 100 बच्चों को चुनकर प्रत्येक 6 महीने पश्चात् उनके भाषा-विकास का निरीक्षण और मापन करेंगे, जैसे-जैसे इन बच्चों की आयु बढ़ती जाएगी, प्रत्येक महीने पश्चात् अध्ययनकर्ता इन बच्चों का भाषा से सम्बन्धित क्रमिक विकासों का निरीक्षण और मापन करता जाएगा। यद्यपि इस प्रणाली में समय अधिक लगता है फिर भी इस प्रणाली की सहायता से बुद्धि और व्यक्तित्व आदि से सम्बन्धित विकासात्मक क्रमों पर अनेक अध्ययन किए गए हैं। एक अध्ययन में यह देखा गया है कि माता-पिता की अभिवृत्तियों और व्यवहार का प्रभाव बालक के शील गुणों और बुद्धि आदि के विकास पर किस प्रकार पड़ता है? इस समस्या का अध्ययन इस विधि द्वारा ही किया गया।

 

कालानुक्रमिक विधि के उपयोग (Use of Longitudinal Method) 

(1) विकास प्रक्रियाओं के सम्बन्धों का अध्ययन करना अपेक्षाकृत सरल होता है। 

(2) इस विधि में बच्चों के एक समूह का अध्ययन चलता रहता है अतः इस विधि में न्यादर्श त्रुटियों की सम्भावना नहीं रहती है और न ही न्यादर्श की समस्या रहती है। 

(3) इस प्रणाली की सहायता से व्यक्तिगत स्तर पर प्रत्येक बालक का अध्ययन होता रहता है और साथ ही साथ समूह स्तर पर भी बालक का अध्ययन होता रहता है। 

(4) किसी निश्चित अवधि में बालक के विकास के गुण तथा मात्रा आदि का ज्ञान भी इस प्रणाली द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। 

(5) इस विधि में विकास प्रक्रियाओं का अनुमानात्मक ज्ञान प्राप्त न होकर शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है। 

(6) सामाजिक-सांस्कृतिक या वातावरण सम्बन्धी परिवर्तनों का बालक के व्यवहार तथा विकास पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन इस प्रणाली द्वारा किया जा सकता है।

 

कालानुक्रमिक विधि के गुण-

(1) इस विधि द्वारा व्यवहारों एवं मानसिक प्रक्रियाओं में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन क्रमबद्ध रूप से किया जाना सम्भव होता है। 

(2) इस विधि में न्यादर्श (सेम्पल) को तुच्छ तथा समान रखने से सम्बन्धित समस्या अपने आप ही खत्म हो जाती है, क्योंकि व्यक्तियों का केवल एक ही समूह होता है, जिसका भिन्न-भिन्न समय अन्तरालों पर अध्ययन किया जाता है। 

(3) इस विधि में कारण परिणाम सम्बन्ध यथार्थ रूप में व्याख्या करने में काफी सहायता मिलती है क्योंकि अध्ययन भिन्न-भिन्न छात्रों की भिन्न-भिन्न विकासात्मक अवस्थाओं का किया जाता है।

 

कालानुक्रमिक विधि के दोष-

(1) इस प्रणाली द्वारा अध्ययन करने में अगली विकास अवस्था का अध्ययनकर्ता को वर्षों तक इन्तजार करना पड़ता है। 

(2) इस विधि में समय अधिक लगता है और धन भी काफी खर्च करना पड़ता है, क्योंकि अध्ययन लम्बे समय तक जारी रहता है। 

(3) इसमें बालकों के एक समूह पर बार-बार अध्ययन किया जाता है अतः वह अपने अनुभव का विशेष लाभ उठाकर अनावश्यक रूप से अपने निष्पादन को उन्नत बना लेते हैं। इससे परिणाम में अन्तर आ जाता है। 

(4) जब अध्ययन लम्बे समय तक चलता है तो उसकी महत्ता घटती जाती है। कई कारणों जैसे-माता-पिता की अनुभूति, स्थानान्तरण, बीमारी आदि के कारण बालक दुबारा और तिबारा के अध्ययन में शामिल नहीं हो पाता। 

(5) मूल प्रतिदर्श जिसका अध्ययन किया जा रहा है, उसको बनाये रखना या स्थिर रखना कठिन होता है। बहुधा अधिक समय लगने के कारण अध्ययन कुछ समय तक एक प्रयोगकर्ता करता है और फिर दूसरा, तीसरा आदि।

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