किशोरावस्था को जीवन का सबसे कठिन काल|Adolescence is the most difficult period of life

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किशोरावस्था की कौन-कौन सी समस्याएँ होती हैं 

किशोरावस्था को जीवन का सबसे कठिन काल|Adolescence is the most difficult period of life



किशोरावस्था की प्रमुख समस्याएँ निम्न प्रकार हैं-

 

1. आत्म-सम्मानआत्म-स्वीकृति तथा सुरक्षा की समस्या

(Problem of Self- respect, Acceptance & Security)- 

ये तीनों ही बातें किशोर को अधिक चिन्तित रखतो हैं। आत्म-सम्मान की दृष्टि से वह घर में या समूह में जहाँ कहीं भी रहता हैसम्मान चाहता है। इसी दृष्टि से वह कक्षा मॉनीटरकैप्टन या छात्र संघ का पदाधिकारी बनने की इच्छा रखता है। वह चाहता है कि उसके द्वारा किये गये कार्यों की दूसरे सराहना करेंउसे माता-पिताअध्यापकों एवं संगी साथियों का स्नेह मिले। जो किशोर अत्यधिक गरीब होते हैं उन्हें असुरक्षा की भावना हर समय सताती रहती है। परिणामस्वरूप वे हीन भावना के शिकार हो जाते हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति उसके समायोजन को बेहतर बनाती है तथा उनकी पूर्ति न होने पर उसका व्यक्तित्व दोष पूर्ण बन जाता है।

 

2. स्वतन्त्रता की समस्या (Problem of Independence) - 

इस अवस्था में किशोर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता है तथा अपने भविष्य की कल्पनाओं को साकार करना चाहता है। इन कल्पनाओं को साकार करने के लिए वह पूर्ण स्वतन्त्रता चाहता है और किसी की

सलाह को अपने रास्ते में हस्तक्षेप समझता है, लेकिन किशोर इतना समर्थ नहीं होता कि उसे भविष्य सम्बन्धी निर्णय लेने में विल्कुल अकेला छोड़ दिया जाये, यह उचित नहीं। माता-पिता व अध्यापकों के मार्गदर्शन की तो आवश्यकता उसे पड़ेगी ही। इस तथ्य को समझे विना किशोर अपने लक्ष्य को पात में उलझकर रह जाता है। अतः उसे चाहिये कि वह अपनी सीमाओं और क्षमताओं को समझे तथा दूसरों के सहयोग से अपनी मंजिल प्राप्त करे। दूसरों से प्राप्त सहयोग को उसे अपनी प्रतिष्ठा या अहं का प्रश्न नहीं बनाना चाहिये।

 

3. सुख एवं आनन्द की चाह (Need for Adventure)- 

इस अवस्था को सुखद अवस्था भी कहा जाता है। किशोर अत्यधिक सुख एवं आनन्द की कामना करता है। उसे सिनेमा देखना, होटलों में जाना, कहानी-उपन्यास पढ़ना या लिखना, गाने सुनना, अभिनय करना अच्छा लगता है। विपरीत सेक्स से दोस्ती करना उससे सबसे प्रबल इच्छा रहती है। लड़कें, लड़कियों से तथा लड़कियाँ, लड़कों से बात करने की हर समय इच्छुक रहती हैं। उन्हें सेक्स सम्बन्धी जानकारी अच्छी लगती है तथा वे इसकी पूर्ति सेक्स सम्बन्धी साहित्य पढ़कर, पशुओं की मैथुन क्रिया देखकर, चल चित्रों में नग्न चित्र देखकर तथा मित्रों से इस सम्बन्ध में वात करके करते हैं तथा अपनी इस भावना का प्रदर्शन शौचालयों की दीवारों पर गन्दी बातें लिखकर व चित्र बनाकर करते हैं। सम-लिंगीय मैथुन, भिन्न-लिंगीय मैथुन, हस्त मैथुन, अश्लील बातें करना, प्रेम-पत्र लिखना आदि में इनकी प्रबल रुचि होती है।

 

4. आत्म निर्भर बनने की समस्या (Need for Self-support)- 

किशोर यह अहसास करने लगता है कि अब वह बड़ा हो गया है तथा उसे माता-पिता पर बोझ नहीं बनना चाहिये। दूसरे, अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भी उसे धन की जरूरत पड़ती है। इसीलिए वह आत्म-निर्भर होना चाहता है तथा किसी अच्छे व्यवसाय को अपनाना चाहता है। यह विचार पहले तो कल्पना लगती है, फिर बेकार की बात लगती है और अन्त में वह लक्ष्य प्राप्ति के लिये गम्भीर हो जाता है। देखने में आता है कि निर्धन परिवारों के किशोर अपने माता-पिता का व्यवसाय अपनाने में रुचि रखते हैं। कुछ किशोरों में यह भावना इतनी हावी रहती है कि उनके व्यवहार में यह स्पष्ट दिखाई देती है। बड़े शहरों में किशोर अपने लक्ष्य के लिए अधिक बेचैन रहते हैं।

 

5. बिछुड़ने का भय या स्नेह की लालसा (Threat of Being Isolated or Need of Belongingness)- 

ये दोनों ही भावनाएँ किशोर पर हर समय छाई रहती हैं। अपनी भावनात्मक संतुष्टि के लिये वे अपने दोस्तों पर अधिक निर्भर रहते हैं। वे दूसरों से स्नेह लेना चाहते हैं और दूसरों को भी स्नेह देना चाहते हैं। उनका कोई दोस्त उनसे अगर थोड़े समय के लिए भी रूठ जाये या बिछुड़ जाये तो उन्हें सहन नहीं होता उनका किसी भी काम में मन नहीं लगता। समूह में अपना स्थान बना लेने पर वे सुरक्षित महसूस करते हैं तथा इसके विपरीत यदि उन्हें समूह में उचित स्थान नहीं मिलता या तिरस्कार मिलता है तो वे दुःखी होते हैं जो कभी-कभी घातक भी होते हैं। किशोर अपने माता-पिता से एक बार तो दूर रह सकता है लेकिन अपने संगी-साथियों से दूर रहने की कल्पना से ही डरने लगता है।

 

6. नैतिक मूल्यों में बँधे रहने की समस्या (Adherence to Codes and Morals)-


किशोर नैतिक मूल्यों एवं सामाजिक मूल्यों को बंधन महसूस करता है। उसे एक ही समय पर बहुत से मूल्यों में बँधना होता है। माता-पिता का कठोर अनुशासन, स्कूल का वातावरण, दोस्तों की भावनाएँ आदि उसे एक साथ निभानी पड़ती है। ऐसी स्थिति में किसी समय विशेष में जो भावना अधिक प्रबल हो जाती है किशोर उसी तरफ मुड़ जाता है, लेकिन दूसरे मूल्यो क सन्दर्भ में वह विपरीत समझी जाती है। इसीलिये वह एक ही समय में सबको सन्तुष्ट करने के प्रयास में स्वयं में उलझ कर रह जाता है। अतः किशोर को इस तनाव से मुक्त रखने के लिये माता-पिता, शिक्षकों एवं समाज का यह कर्त्तव्य है कि वे किशोर को ठीक से समझकर उसके व्यक्तित्व का सम्मान करें।

 

7. कल्पना की बहुलता (Too much Fantasy) - 

किशोरावस्था में कल्पना की प्रधानता रहती है वह दिवास्वप्न की दुनिया में विचरण करता है। दिवास्वप्न बालक को प्रेरणा भी देते हैं और साथ ही उसकी इच्छाओं की आंशिक संतुष्टि में सहायक होते हैं। दिवास्वप्न के आधार पर किशोर कविता, कहानी, लेख आदि लिखने के लिये प्रेरित होता है। इसी प्रकार जिन कार्यों को करने में वह स्वयं को अक्षम पाता है उनको वह दिवास्वप्न के माध्यम से पूरा करके कुछ सन्तोष अनुभव करता है। किन्तु दिवास्वप्न की बहुलता किशोरों के लिये हानिकारक भी होती है। दिवास्वप्न दृष्टा किशोर व्यावहारिक जीवन में असफल रहते हैं। कल्पना शक्ति का विकसित होना तभी अच्छा रहता है जबकि उसके द्वारा साहित्यिक रचनाओं की ओर उनका मार्गान्तीकरण किया जाये।

 

8. वीर-पूजा (Hero-Worship)- 

किशोरों में वीर-पूजा की भावना विकसित हो जाती है। वे आदर्श पुरुष का अनुकरण प्रारम्भ कर देते हैं। अपने को अपने आदर्श पुरुष के अनुरूप बनाने का प्रयास करने लगते हैं। आदर्श, पुरुषों के लिये विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित हो सकते हैं। सिनेमा का अभिनेता या अभिनेत्री, ऐतिहासिक वीर-पुरुष या धार्मिक नेता, राजनैतिक नेता या विद्वान उनके आदर्श पुरुष हो सकते हैं। भारत में आजकल अधिकांश किशोर या किशोरी का आदर्श पुरुष सिने-जगत का अभिनेता या अभिनेत्री होती है। वे उसी के अनुरूप बनने के लिये वैसे ही वस्त्र पहनना, उसी की तरह बाल रखना तथा उसी की भाँति बोलना प्रारम्भकर हैं। कॉलेजों में किशोर या किशोरियों के आदर्श पुरुष कोई अध्यापक या अध्यापिका होती है जो उनको अधिक प्रभावित करते हैं। किशोर अपने आदर्श व्यक्ति का गुणगान करते नहीं थकते हैं। कभी-कभी इस वीर-पूजा की परिणति प्रेम के रूप में भी देखी जा सकती है।

 

9. विद्रोह की भावना (Feeling of Revolt) - 

किशोर में स्वाभिमान की भावना का विकास हो जाता है। अब वह माता-पिता या अध्यापक के नियन्त्रण को पसन्द नहीं करता। वी.एन. झा ने लिखा है कि किशोर में नवीन जीवन-दर्शन के प्रादुर्भाव से उसमें आत्मसम्मान की प्रबल प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। वह अपने को बन्धनों से मुक्त रखना पसन्द करता है। कॉलसनिक का कथन है कि किशोर, प्रौढ़ों को अपने मार्ग में बाधा समझता है क्योंकि वे, उसकी स्वत्रंतता पर नियन्त्रण रखना चाहते हैं। प्रौढ़ों के नियन्त्रण के विरोध में किशोर विद्रोह प्रारम्भ कर देते हैं। वे माता-पिता या अध्यापक को आज्ञा का विरोध करने लगते हैं।

 

10. विशेष रुचियाँ (Special Hobbies) - 

आयु में वृद्धि के साथ रुचियों में भी परिवर्तन होता है। स्ट्रॉग के अनुसार, 15 वर्ष की आयु तक किशोरों की रुचियाँ परिवर्तित होती रहती हैं किन्तु इसके बाद उनमें स्थिरता आने लगती है। किशोर और किशोरी में कुछ समान रुचियाँ होती हैं तथा कुछ असमान रुचियाँ सामान्यतः कहानी, नाटक, उपन्यास का पढ़ना, शरीर को सुन्दर बनाना, नवीन फैशन के वस्त्र पहनना, विषमलिंगी के साथ प्रेम करना, रेडियो सुनना, सिनेमा देखना आदि हैं। दोनों की रुचियों में भिन्नता इस प्रकार हैं-लड़के खेल-कूद, व्यायाम तथा भावी व्यवसाय के चयन में अधिक रुचि लेते हैं किन्तु लड़कियों की विशिष्ट रुचियाँ संगीत, कला, अभिनय, श्रृंगार करने के कार्यों में दिखाई देती हैं।

 

11. यौन-विकास (Sex Development) - 

किशोरावस्था का महत्त्वपूर्ण लक्षण यौनिक विकास है। इस काल में किशोर या किशोर के यौन अंगों में पर्याप्त वृद्धि होने से उनमें में बालकों को महान पुरुषों की जीवनी तथा उच्चकोटि के साहित्य का अध्ययन करने की प्रेरणा देनी चाहिए।

 

6. सामाजिकता का विकास (Development of Social Traits) - 

किशोर को सामाजिक व्यवस्थापन में सहयोग देने की दृष्टि से उसमें सामाजिक गुणों के विकास पर ध्यान देना चाहिए। किशोर में भी सामूहिकता की भावना होती है। विद्यालयों में सामूहिक शिक्षण पर अध्यापकों को बल देना चाहिए। इसके द्वारा उनमें स्नेह, सहयोग, सहकारिता आदि गुणों का विकास किया जा सकता है। प्रोजेक्ट विधि के द्वारा अध्यापक किशोरों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास कर सकता है। इसके माध्यम से उनमें नेतृत्व के गुण भी विकसित किये जा सकते हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में नेतृत्व प्रदान करने वाले तथा साथ ही अन्धानुकरण न करने वाले नागरिकों की आवश्यकता है। अतएव ऐसे देशों में सामाजिक व्यवहार की दृष्टि से कुशल एवं स्वतन्त्र चिन्तन एवं निर्णय ले सकने योग्य व्यक्तियों के निर्माण पर बल देना चाहिये।

 

7. उपयुक्त शिक्षण-प्रविधियों का प्रयोग (Use of Proper Teaching techniques)-

किशोरावस्था में बुद्धि का विकास चरम विन्दु पर होता है। उसकी समस्त मानसिक योग्यताएँ विकसित हो जाती हैं। अतएव अध्यापकों को ऐसी शिक्षण विधियों का प्रयोग करना चाहिये जिनमें छात्रों को स्वयं परीक्षण, निरीक्षण, विचार और तर्क करने की शक्ति का अभ्यास करने का अवसर मिल सके। इस अवस्था में भी करके सीखने पर जोर देना चाहिये। किशोर की कल्पना-शक्ति भी विकसित होती है। अतएव अध्यापक अपने शिक्षण में उसका भी उपयोग कर सकता है। किशोरों को आत्म-प्रदर्शन का अवसर देना चाहिये। इसके लिए विद्यालय में पाठ्य सहगामी क्रियाओं के संगठन पर ध्यान देना चाहिये।

 

8. स्व-शासन एवं आत्म-नियन्त्रण (Self Discipline & Self Control)-

किशोरावस्था में अनुशासन ऊपर से नहीं थोपना चाहिये। किशोर अपने ऊपर नियन्त्रण के विरोध में विद्रोह करते हैं और अनुशासनहीनता की समस्या पैदा करते हैं। किशोरों को स्वशासन के लिए प्रेरित करना चाहिए। विद्यालय में अनुशासन समिति गठित करके उसमें छात्रों के कुछ प्रतिनिधि भी रखने चाहिये। कॉलेज में जितने कार्यक्रम या उत्सवों का आयोजन हो, उनका प्रवन्ध छात्रों के हाथों में होना चाहिए। ऐसा करने से उनमें दायित्व की भावना विकसित होती है तथा वे आत्मनियन्त्रण करना सीखते हैं।

 

9. अध्यापकों का व्यवहार (Behaviour of Teachers) - 

अध्यापकों के व्यवहार का किशोरों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। किशोर के साथ ाशशु या बालक जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिये। अधिकांश माता-पिता तथा अध्यापक किशोरों को बालक ही समझते हैं। ऐसे व्यवहार से किशोरों को चिढ़ पैदा होती है। अध्यापक को किशोरों के साथ वयस्क जैसा व्यवहार करना चाहिए। उनको किशोरों के साथ प्रेम तथा सहानुभूति का भाव रखना चाहिए। ऐसा करने से किशोरों के सांवेगिक व्यवहार में स्थिरता रहती है और किशोरों को काम करने की प्रेरणा मिलती है। किशोरों में सामाजिक व्यवहार की दक्षता बढ़ती है।

 

10. यौन-शिक्षा (Sex Education) - 

किशोरावस्था में काम-प्रवृत्ति का ज्वर-सा आता है। किशोर की अनेक समस्याओं की जड़ काम-प्रवृत्ति ही होती है। इसी के कारण किशोर के संवेग, व्यवहार, रुचि आदि में अस्थिरता रहती है। विद्वानों का मत है कि किशोरों के लिए यौन-शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। यौन शिक्षा द्वारा किशोरों में काम के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण पैदा करने का प्रयास करना चाहिए। यौन-शिक्षा के दो विन्दुओं पर मतभेद हैं-

 

एक तो, यौन-शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए और दूसरे, यौन-शिक्षा देने के लिए उपयुक्त विधि कौन-सी है?

 

  • किशोरावस्था का प्रारम्भ भी लड़के और लड़कियों में भय तथा उद्वेग पैदा कर देता है। लड़कों को किशोरावस्था में स्वप्नदोष होता है जिसके कारण उसके वीर्य का स्त्रावस होता है। लड़कियों में मासिक धर्म होता है जिसके अन्तर्गत रक्तस्त्राव होता है। इनका ज्ञान न होने से ही ऐसी दशा में दोनों ही बहुत घबराते हैं। इसको वे एक प्रकार की बीमारी मानते हैं। लड़कियों को मासिक धर्म का ज्ञान न होने से ऐसी दशा में वे अत्यधिक लज्जा और शर्म अनुभव करती हैं। अतएव इस अवस्था में रजस्त्राव होने से पूर्व ही किशोरियों को तथा वीर्यपात होने से पूर्व किशोरों को यौन अंगों की रचना, उनके कार्य तथा रजोदर्शन और वीर्य सम्बन्धी ज्ञान दे देना चाहिए।

 

  • यौन-शिक्षा देकर लड़के-लड़कियों में विषमलिंगी के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण पैदा करना चाहिये। उनको सन्तानोत्पत्ति की प्रक्रिया का भी ज्ञान होना चाहिये। किन्तु ये सभी ज्ञान कराते समय यह ध्यान रखा जाय कि यौन शिक्षा उनके लिए उत्तेजना देने वाली न हो जाये। इसके साथ ही आवश्यक है कि नैतिक एवं चारित्रिक शिक्षा की व्यवस्था हो। कुछ विद्वानों का मत - है कि सह-शिक्षा पर जोर देने के लिए घर पर माता-पिता और विद्यालय में अध्यापक को यह कर्त्तव्य पूरा करना चाहिए।

 

  • अध्यापकों को ऐसे रचनात्मक कार्यों में किशोरों को लगाना चाहिए जिनमें लगने से किशोरों की काम-शक्ति का मार्ग परिवर्तन हो सके। साहित्य, कला, संगीत, समाज-सेवा आदि कर्म ऐसे हैं जिनमें किशोरों को संलग्न करने से उनकी काम-शक्ति का मार्गान्तीकरण हो जाता है।


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