बाल्यावस्था में
विकास : विशिष्ट परिस्थितियाँ (Development
in Childhood: Specific Situations)
मलिन बस्तियों में विकसित बालिकाएँ सामान्य बालिकाओं से किस प्रकार भिन्न हैं? स्पष्ट कीजिए । सामान्य बालिकाओं और शहरी मलिन बस्तियों की बालिकाओं में समानता एवं असमानता बताइए । मलिन बस्तियों में विकसित हो रही बालिकाओं के जीवन पर एक लेख लिखिए ।
मलिन बस्तियों में विकसित होती बालिकाएँ (Growing Girl in Urban Slum Area)
सामान्य घरों में
विकसित हो रही बालिकाएँ तथा शहरी मलिन बस्तियों में (झोपड़ पट्टियों) में विकसित
हो रही बालिकाओं के बचपन में कुछ समानताएँ तथा कुछ भिन्नताएँ पायी जाती हैं, जो कि निम्न
प्रकार हैं-
समानताएँ (Commonalities)
1. शारीरिक विकास
सभी वर्गों में बालिकाओं का शारीरिक विकास एक ही पैटर्न से होता है। उनकी लम्बाई, भार में वृद्धि
होती है। शारीरिक विकास की गति शैशवावस्था की अपेक्षा कम हो जाती है। 6 या 7 वर्ष
की आयु के बाद शारीरिक विकास में स्थिरता आ जाती है। मांसपेशियाँ सुदृढ़ हो जाती
हैं। 9 से 10 वर्ष तक बालकों का भार वालिकाओं से अधिक होता है। उसके बाद बालिकाओं
का भार अधिक होना प्रारम्भ हो जाता है। 6 से 12 वर्ष तक लम्बई कम बढ़ती है। लगभग 6
वर्ष की आयु में बालिका के दूध के दाँत गिरने लगते हैं और स्थायी दाँत निकलने
प्रारम्भ हो जाते हैं। इस प्रकार सभी बालिकाओं का शारीरिक विकास एक समान रूप से
होता है।
2. मानसिक विकास-
सभी वर्गों की बालिकाओं में मानसिक विकास के विभिन्न पक्ष जैसे-रुचि, जिज्ञासा, निर्णय, चिन्तन, स्मरण एवं समस्या
समाधान के गुणों का पर्याप्त विकास प्रारम्भ हो जाता है। लगभग 6 वर्ष तक बालिकाओं
में अधिकांश मानसिक योग्यताओं का विकास हो जाता है। मानसिक विकास एक जटिल
प्रक्रिया है और बुद्धि-लब्धि के अंशों में वृद्धि, विकास का तरीका, परिवेश तथा
परिस्थिति इसके मुख्य आधार हैं। सभी बालिकाओं का मानसिक विकास समान गति से होता
है।
3. संवेगात्मक विकास-
सभी वर्गों की बालिकाओं का संवेगात्मक विकास होता है। सभी में कुछ महत्वपूर्ण संवेग जैसे क्रोध, ईर्ष्या, प्रेम, सहयोग, भय आदि बाल्यावस्था से ही पाए जाते हैं। इस अवस्था में संवेग अधिक निश्चित तथा कम शक्तिशाली हो जाते हैं। बालिकाओं में लगभग 6 वर्ष के बाद अपने संवेगों का दमन करने की क्षमता भी उत्पन्न हो जाती है। इसी कारण वे अपने माता-पिता, शिक्षक और बड़ों के सामने अपने उन संवेगों को प्रकट नहीं होने देतीं, जिनको वे पसन्द नहीं करते हैं। बालिकाओं के संवेगों पर विद्यालय के वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। सभी बालिकाएँ शिक्षकों के व्यवहार से भी संवेगात्मक रूप से प्रभावित होती हैं। शिक्षकों का अप्रिय व्यवहार, शारीरिक दण्ड और कठोर अनुशासन में विश्वास करने वाला शिक्षक बालिका में मानसिक ग्रन्थियों का निर्माण कर देता है और उनको संवेगात्मक रूप से आहत कर देता है।
4. सामाजिक विकास-
सभी वर्गों की बालिकाओं का सामाजिक विकास बाल्यावस्था - में ही होने लगता
है। सामाजिक विकास का प्रारम्भ शैशवावस्था से ही प्रारम्भ हो जाता है। बाल्यावस्था
में सामाजिक विकास अधिक सुदृढ़ होने लगता है। परिवेश चाहे जो हो सभी बालिकाएँ अपने
परिवारजनों, संगी-साथियों के साथ समय बिताकर, सम्प्रेषण करके
अपने सामाजिक विकास को सुदढ़ करती हैं। सामाजिक व्यवस्था, बालिका के
सामाजिक विकास को एक निश्चित रूप और दिशा प्रदान करती है। समाज के कार्य, नगर, जनतन्त्र और
अधिनायक तन्त्र में बालिकाओं का विकास विभिन्न प्रकार का होता है, परन्तु सभी
बालिकाओं का सामाजिक विकास होता है।
असमानताएँ (Diversities)
1. स्वास्थ्य-
स्वास्थ्य क दृष्टि से भी शहरी मलिन बस्तियों की बालिकाएँ सामान्य
बालिकाओं से बहुत पीछे हैं। वे विभिन्न रोगों से प्रसित होती हैं तथा सामान्य तौर
पर उनके पासे चिकित्सा सुविधा नहीं पहुँच पाती हैं। उनका स्वास्थ्य स्तर काफी
निम्न होता है। उन्हें बचपन से ही रोजगार करना पड़ता है। विभिन्न घरों में वे
घरेलू नौकरानी की भाँति कार्य करती हैं। काम के घण्टे अधिक होते हैं तथा उनका बचपन
छिन जाता है और बहुत शीघ्र ही वे विभिन्न रोगों से ग्रसित हो जाती हैं।
2. सामाजिक-
आर्थिक स्तर-मलिन बस्तियों में विकसित होती बच्चियाँ सामाजिक-आर्थिक स्तर
में सामान्य बच्चियों से भिन्न होती हैं। समाज में उनका निम्न स्तर होने के कारण
ऐसी बच्चियों से कम अपेक्षाएँ की जाती हैं और वे निर्धन वर्ग की होती हैं। उन्हें
पढ़ाई के साथ अपना घरेलू कार्य भी करना पड़ता है, जिससे उन पर काम
का बोझ अधिक होता है। वे सामान्य बच्चों की भाँति अपना अधिकांश समय शिक्षा में
नहीं लगा पाती हैं। सामान्य सुविधाएँ प्राप्त न होने के कारण उनका सामान्य ज्ञान
भी पिछड़ा होता है। कई बार अधिक आयु में प्रवेश लेने के कारण भी वे कक्षा में अधिक
बड़ी दिखाई देती हैं। मलिन बस्तियों में रहने वाले लोग अधिकतर मजदूरी करते हैं और
जब वे मजदूरी पर जाते हैं तो उनकी छोटी बच्चियाँ अपने से छोटे भाई-बहनों की देखभाल
करती हैं तथा घरेलू कार्य करती हैं, इस कारण भी ये
बच्चियाँ स्कूल में उपस्थित नहीं रह पाती हैं और स्कूल में नामांकित होने के बाद
भी अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख पाती हैं।
3. शिक्षा-
मलिन
शहरी बस्तियों में रह रही बालिकाओं को शिक्षा प्रदान करना एक समस्या बन गयी है।
जहाँ मलिन शहरी बस्तियों में जुआँ खेलना, शराब पीना तथा
अस्वास्थ्यकर वातावरण है वहीं बाहर के अच्छे वातावरण में रहने वाली बालिकाएँ स्कूल
जा रही है, उन्हें शिक्षा के विभिन्न अवसर प्राप्त हैं। नवीन
टेक्नोलॉजी जैसे- सेलफोन, डिजीटल कैमरा, लेपटॉप आदि का वे
प्रयोग कर रही हैं। वहीं दूसरी ओर मलिन बस्तियों में रहने वाली तथा पल्लवित होने वाली
बालिकाएँ सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के लिए तथा सामान्य रूप से जीवन जीने के लिए
भी संघर्ष कर रही हैं।
विभिन्न समुदायों में लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने के लिए मतभेद बने हुए हैं। ये समुदाय शिक्षा और साक्षरता के स्तर को कम करने के लिए एक बाधा बने हुए हैं। विकासशील देशों में आर्थिक सशक्तिकरण के बाद भी शिक्षा के लिए आई.सी.टी. के लाभों को इन शहरी मलिने वैस्तियों तक पहुँचाना अत्यन्त कठिन कार्य है। लेकिन फिर भी दो गैर सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) प्रथम और अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन ने शिक्षा को इसमें शामिल किया है। उन्होंने शहरों में प्रचलित कम्प्यूटर गेम को शहरी बच्चों की भाँति मलिन शहरी बस्तियों में भी पहल की है। इससे प्राप्त होने वाले लाभ भी देखे गए। शहरी मलिन बस्तियों के बच्चे इसे खेलना चाहते थे। इससे उनके सीखने की रुचि विकसित हुई और वे कम्प्यूटर की ओर आकर्षित हुए।
4. शोषण-
शोषण भी शहरी मलिन बस्तियों की बालिकाओं को सहने पड़ते हैं। यह शोषण केवल बाहर के व्यक्ति ही नहीं करते हैं, बल्कि पारिवारिक तथा घनिष्ठ सम्बन्धी भी करते हैं। शोषण के अन्तर्गत उनका दैहिक शोषण सर्वाधिक होता है। शहरी मलिन बस्तियों में घरेलू हिंसा भी सर्वाधिक होती है। पति, पिता, भाई तथा अन्य रिश्तेदार जहाँ ये बालिकाएँ अपना संरक्षक ढूँढती हैं वहीं वे इनका शोषण करते हैं। पुरुष किसी भी रूप में हो (पति, पिता या भाई अथवा अन्य) महिलाओं और बालिकाओं पर होने वाले शोषण के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी होता है।