विकासात्मक कार्यों से क्या अभिप्राय है? बाल्यावस्था के विकासात्मक कार्यों की जानकारी
विकासात्मक कार्यों से आशय (Meaning of the Developmental Tasks)
विकासात्मक कार्य शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिका की शिकागो यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रॉबर्ट हेविगर्हस्ट ने किया था। उन्होंने विकासात्मक कार्य को परिभाषित करते हुए कहा-
"विकासात्मक कार्य से अभिप्राय उस कार्य से है, जिसे व्यक्ति अपने जीवन की किसी एक अवस्था में करते हुए देखा जा सकता है। इन कार्यों का सफल सम्पादन जहाँ उसे आनन्द प्रदान करके आगे के विकासात्मक कार्यों के सफल सम्पादन की ओर ले जाता है, वहाँ इनके सम्पादन में मिली असफलता उन्हें विषादमय बनाकर आगामी कार्यों के सम्पादन में कठिनाई खड़ी कर देती है।"
- विकासात्मक कार्य का यदि विश्लेषण किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि ये आवश्यक रूप से व्यक्ति के विकास तथा उसकी विकासात्मक अवस्था से जुड़े रहते हैं। यह निश्चित रूप से किसी व्यक्ति की आयु और उसकी विकास अवस्थाओं से संयुक्त होते हैं।
- जो व्यक्ति अपनी आयु के अनुरूप विकासात्मक कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पादित करने में सफल रहता है, वह सुखी रहता है, वह सुखी रहता है तथा उसमें आगामी विकासात्मक कायों को करने के लिए पर्याप्त उत्साह बना रहता है परन्तु दूसरी ओर यदि उसे इन विकासात्मक कार्यों को पूरा करने में असफलता मिलती है तो उसका वर्तमान जीवन तो विषाद में इस हो। जाता है। भविष्य में भी विकासात्मक कार्यों को ठीक तरह से करने में संशयात्मक स्थिति बनी रहती है।
- इस तरह जीवन को तनावरहित बनाए रखने तथा आनन्द प्राप्त करने के लिए विकासात्मक कार्यों की जानकारी होना आवश्यक है।
बाल्यावस्था के
विकासात्मक कार्य (Developmental Tasks of Childhood)
बाल्यावस्था को मुख्य रूप
से दो भागों में बाँटा जा सकता है, उसी के अनुसार
उनके विकासात्मक कार्यों की चर्चा की जायेगी-
(i) पूर्व बाल्यावस्था के विकासात्मक कार्य
(1) सुनने, बोलने, पढ़ने, लिखने तथा भाषायी कौशल से सम्बन्धित आधारभूत समझ रखना।
(2) वस्तुओं में समानता, असमानता की खोज करने की योग्यता में वृद्धि तथा उसी के अनुरूप तुलना करने की योग्यता का विकास ।
(3) मैं की भावना के स्थान पर हम की भावना को महत्त्व देना तथा सामूहिक खेलो और कार्यों को महत्व देना।
(4) गामक विकास जैसे दौड़ना, चलना, कूदना फाँदना, चढ़ना-उतरना, तीन पहियों की साइकिल चलाना, पकड़कर छलांग लगाना, फेंकना, रस्सी कूदना आदि में प्रवीणता प्राप्त करना।
(5) लिंग भेद तथा यौन आचरण सम्बन्धी साधारण बातों की जानकारी रखना।
(6) भले-बुरे, उचित-अनुचित व्यवहार में अन्त्र समझना तथा आत्म चेतना का उदय।
(7) मल-मूत्र पर नियन्त्रण करना सीखना।
(8) संवेगात्मक सम्बन्धों का निर्माण करना सीखना।
(9) प्राकृतिक एवं सामाजिक परिवेश सम्बन्धी उचित सम्प्रत्ययों का निर्माण करना।
(10) भोजन में ठोस आहार ग्रहण करना सीखना।
(11) माता-पिता के साये से बाहर निकलकर साथी बालकों की संगत को पसन्द करना।
(12) शरीर क्रियात्मक स्थायित्व प्राप्त करना।
(ii) उत्तर बाल्यावस्था के विकासात्मक कार्य
(1) तर्क, चिन्तन और संमस्या समाधान सम्बन्धी क्षमताओं का विकास होना।
(2) आत्म-चेतना, नैतिकता तथा मूल्यों का विकास होना।
(3) उचित यौन व्यवहार एवं भूमिका निर्वाह की शिक्षा प्राप्त करना।
(4) सम्प्रेषण एवं भाषा कौशलों में प्रवीणता प्राप्त करने एवं गणना, आलेख तथा रचना कार्य में सहायक आवश्यक दक्षता का विकास करना।
(5) बालक को विकासात्मक कार्यों में निपुणता ग्रहण करने के लिए शाररिक क्षमता युक्त होने के कारण विभिन्न कार्यों को सीख सकता है।
(6) स्वयं के प्रति उचित दृष्टिकोण तथा मान्यता का निर्माण करना।
(7) समूह के प्रति भक्तिभाव तथा लगाव उत्पन्न होना।
(8) विभिन्न प्रकार के इनडोर तथा आउटडोर खेलों को खेलने के लिए आवश्यक शारीरिक तथा गामक कौशलों को अर्जित करना।
(9) व्यक्तियों, वस्तुओं, विचारों तथा प्रक्रियाओं के विषय में स्थूल एवं सूक्ष्म आधारों को विकसित करना।
(10) शारीरिक तथा गामक कौशलों को अर्जित करना।
(11) अपने हम उम्र
साथियों के साथ समायोजित होना।
किशोरावस्था के विकासात्मक कार्य (Developmental Tasks of Adolescence)
(1) भविष्य में एक दायित्त्वपूर्ण परिपक्व एवं सफल सदस्य के रूप में सामाजिक भूमिका निर्वाह के लिए प्रयासशील रहना।
(2) सूक्ष्म अथवा स्थूल कार्य व्यापार के लिए सभी प्रकार के आवश्यक सम्प्रत्ययों का विकास होना।
(3) समस्त प्रकार के खेलकूदों में अच्छी तरह भाग ले सकने के लिए आवश्यक शारीरिक, क्रियात्मक और बौद्धिक क्षमताओं का समुचित विकास होना।
(4) मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक परिपक्वता की ऊँचाइयों को छूने के लिए प्रयासरत् रहना।
(5) कठिन तथा पेचीदा मानसिक कार्यों और प्रक्रियाओं के सम्पादन के लिए आवश्यक मानसिक तथा संज्ञानात्मक क्षमताओं का समुचित विकास होना।
(6) अपनी एक पृथक पहचान बनाने की ओर बढ़ना।
(7) अधिक आत्मनिर्भरता की ओर उचित पग बढ़ाना।
(8) यौन व्यवहार में परिपक्वता अर्जित करना।
(9) समाज, देश तथा धर्म और मानवता हेतु बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने के लिए तत्पर रहने की भावना उत्पन्न होना।
(10) वस्तुओं, व्यक्तियों, स्थान तथा मूल्यों के प्रति आवश्यक स्थायी भाव विकसित होना।
(11) अपने भविष्य को ध्यान में रखते हुए आगामी शैक्षणिक एवं व्यावसायिक कोर्सों में प्रवेश के लिए अपनी योग्यता एवं क्षमता में वृद्धि करने के प्रति जागरूक रहना।
(12) अपने रंग-रूप एवं शारीरिक बनावट से सन्तुष्ट होकर स्वयं को अपने सहज रूप में स्वीकार करना सीखना।
(13) अपने समस्त किशोर एवं किशोरियों से नवीन सम्बन्ध या सहयोग स्थापित करने में पहल करना सीखना।
(14) अपनी विशिष्ट रुचियों एवं अभिरुचियों की सन्तुष्टि के लिए आवश्यक कुशलताओं तथा दक्षताओं का अर्जन करना।
(15) अपने लिगानुसार अपेक्षित भूमिका निभाना सीखना।