शैशवावस्था में शिक्षा का क्या स्वरूप होना चाहिए? शिक्षक को इस दिशा में क्या करना चाहिए?
शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप
स्वरूप निम्न प्रकार निर्धारित किया जाना चाहिये-
1. आत्म-प्रदर्शन का अवसर प्रत्येक शिशु में आत्म-प्रदर्शन की भावना होती है। अतः बालक के विकास के लिए आवश्यक है कि उसे आत्म-प्रदर्शन के अवसर प्रदान किये जाएँ। इसी प्रकार वह अपनी भावनाओं को प्रदर्शित करता है।
2. खेल द्वारा शिक्षा-शिशु की शिक्षा का मुख्य आधार खेल होना चाहिए। शिशु को खेल द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए।
3. आदर्श उपस्थित करना-बालक अनुकरण से सीखता है, अतः उसके समक्ष जैसा व्यवहार किया जाय, वह आदर्श रूप में होना चाहिए। बालक उसी आदर्श व्यवहार का अनुकरण करेगा।
4. आत्म-निर्भरता का विकास-शिशु को ऐसी शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए जिससे वह आत्म-निर्भर बन सके। शिशु में दूसरों पर निर्भर रहने की प्रवृत्ति होती है। उसकी इस आदत को छुड़ाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।
5. कहानियों द्वारा शिक्षा-शिशु कहानी सुनना अधिक पसन्द करता है। अतः इसकी शिक्षा का आधार कहानियाँ होना चाहिए। शिशु की शिक्षा में चित्रों और कहानियों का विशिष्ट स्थान होता है।
6. निहित गुणों का विकास-शिशु में अनेक निहित गुण होते हैं। अतः उसकी शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे उसके गुणों का विकास हो सके।
7. अच्छी बातों का निर्माण-बालक को इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे उसमें अच्छी आदतों का निर्माण हो सके। बालक को आरम्भ से ही स्नान और सफाई का महत्त्व, बड़ों का आदर करना आदि बातों को सिखाया जाना चाहिए।
8. नैतिकता की शिक्षा-बालक को उचित अनुचित का ज्ञान कराया जाना चाहिए। उसे बताया जाना चाहिए कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार उसे नैतिकता की शिक्षा दी जा सकती है।
9. जिज्ञासा की सन्तुष्टि-शिशु की जिज्ञासा की सन्तुष्टि भी अवश्य की जानी चाहिए। इससे उसके ज्ञान में वृद्धि होती है। शिशु जब भी कोई प्रश्न पूछे उसके प्रश्न का उत्तर अवश्य दिया जाना चाहिए।
10. वास्तविकता का ज्ञान-शिशु कल्पना जगत में रहता है। वह कल्पना जगत को ही वास्तविक संसार मानता है। अतः बालक को ऐसे विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे उसे वास्तविकता के निकट लाया जा सके। शिशु को 'परियों की कहानियों' से दूर रखा जाना चाहिए।
11. सामाजिक भावना का विकास-शैशवावस्था के अन्त तक बालकों में सामाजिक भावना का विकास होने लगता है। वे अन्य बालकों के साथ मिलना-जुलना पसन्द करने लगते हैं। इस प्रकार उनमें सामाजिक भावना का विकास किया जाना चाहिए।
12. शारीरिक विकास के लिए उचित वातावरण-वालक को ऐसा वातावरण मिलना चाहिए जिसमें उसका शारीरिक विकास स्वाभाविक रूप से हो सके। उसे ऐसा वातावरण घर पर तथा विद्यालय में प्रदान किया जाना चाहिए।
13. क्रिया द्वारा सीखना-बालक में कुछ मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं। वे मूल प्रवृत्तियाँ उसे कार्य करने को प्रेरित करती हैं। बालक की शिक्षा का प्रवन्ध इन्हीं मूल प्रवृत्तियों के अनुसार किया जाना चाहिए। इस समय सीखने का स्वरूप "क्रिया द्वारा सीखना" होना चाहिए।
14. मानसिक विकास के अवसर बालक को ऐसा अवसर प्रदान किये जाने चाहिए जिनसे उसका मानसिक विकास उचित ढंग से हो सके। शिशु में मानसिक क्रियाओं की तीव्रता होती है। अतः उसे सोचने-विचारने के अधिक से अधिक अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।
15. मूल प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन-शिशु की मूल प्रवृत्तियों का दमन नहीं किया जाना चाहिए। उसे अपनी मूल प्रवृत्तियों के अनुसार व्यवहार किये जाने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। मूल प्रवृत्तियों के दमन करने से शिशु का विकास रूक जाता है।