दलित घरों में विकसित हो रहे बच्चों पर एक लेख
बाल्यकाल में दलित घरों में पल-बढ़ रहे बच्चे
(Growing up in Dalit Household in Childhood)
दलित घरों में आज बहुत से बच्चे जीवन यापन कर रहे हैं। इन बच्चों तथा सामान्य बरों के बच्चों के बचपन में काफी अन्तर है, लेकिन कुछ समानताएँ भी हैं, जो दोनों ही प्रकार के बच्चों के जीवन में हैं-
समानताएँ (Commonalities)
1. शारीरिक विकास-
बच्चे चाहे सामान्य उच्च परिवारों में जन्मे हों अथवा निम्न परिवारों में उन सभी का शारीरिक विकास एक ही पैटर्न पर होता है। सभी बच्चे बाल्यावस्था में धीमी गति से लम्बाई एवं भार वृद्धि का सामना करते हैं, उनकी मांसपेशियों का विकास होता है। दूध के अस्थायी दाँत टूटते हैं और स्थायी दाँत निकलते हैं। बाल्यकाल में सभी बच्चों की अस्थियों में दृढ़ता आती है और अस्थियों की संख्या 270 से बढ़कर 350 हो जाती हैं। 12 वर्ष तक लगभग सभी स्थायी दाँत निकलते हैं। बच्चों में लड़कों के कन्धे चौड़े, कूल्हे पतले और पैरे सीधे तथा लम्बे हो जाते हैं। बालिकाओं के कन्धे पतले, कूल्हे चौड़े और पैर कुछ अन्दर की ओर झुके हो जाते हैं। 11 या 12 वर्ष की आयु में बालकों तथा बालिकाओं के यौनांगों का विकास तेजी से होता है।
2. सामाजिक विकास-
बाल्यकाल में सभी बच्चे नए वातावरण से अनुकूलन करना, सामाजिक कार्यों में भाग लेना और नए मित्र बनाना सीखते हैं जिसके फलस्वरूप उनमें स्वतन्त्रता, सहायता और उत्तरदायित्व के गुणों का विकास होता है। बाल्यकाल में बच्चे (किसी भी वर्ग के हों) टोली बनाना पसन्द करते हैं।
3. चारित्रिक विकास-
जब बालक दूसरे बालकों के सम्पर्क में आता है तो उसके आचरण में परिवर्तन आने लगता है। उनमें उचित तथा अनुचित समझने की क्षमता बढ़ने लगती है। बाल्यावस्था में बालकों में नैतिकता की सामान्य धारणाओं या नैतिक सिद्धान्तों के कुछ ज्ञान का विकास हो जाता है।
4. मानसिक विकास-
बाल्यकाल में बच्चे चाहे उच्च घरों में पल-बढ़ रहे हों या दलित घरों में उनमें संवेदना, स्मरण, बुद्धि, तर्क, भाषा ज्ञान, निरीक्षण, कल्पनाशीलता, निर्णय, रुचि और सीखना जैसे मानसिक विकास के पक्ष पाए जाते हैं। यह अवश्य है कि इनमें व्यक्तिगत भिन्नता तथा पर्यावरण प्रभाव से कुछ तत्व अधिक या कम हो सकते हैं।
5. संवेगात्मक विकास-
सभी बालकों में बाल्यावस्था में संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं। इस अवस्था में सभी बालकों के संवेग निश्चित तथा कम शक्तिशाली हो जाते हैं। सभी बालकों में प्रेम, स्नेह, ईर्ष्या, द्वेष तथा घृणा और क्रोध पाया जाता है।
असमानताएँ (Diversities)
सामान्य परिवारों के बच्चों तथा दलित घरों में पल-बढ़ रहे बच्चों के व्यक्तित्व में काफी अन्तर होता है। यह अन्तर शिक्षा, परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, माता-पिता का दृष्टिकोण, समाज का दृष्टिकोण, वंशानुक्रम एवं वातावरण आदि के कारण आता है। अतः सामान्य परिवारों तथा दलित परिवारों में पल रहे बच्चों की प्रमुख असमानताएँ इस प्रकार हैं-
1. माता-पिता का दृष्टिकोण-
माता-पिता का दृष्टिकोण भी दलितों के विकास को प्रभावित करता है। यदि माता-पिता अशिक्षित होते हैं तो उनका दृष्टिकोण भी वैसा ही नकारात्मक बन जाता है। वे यह समझने लगते हैं कि चाहे वे कितनी भी शिक्षा अपने बच्चों को दिला दें। समाज में उनकी बदतर स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता है तथा वे उन्हें काम में लगाकर अपना आर्थिक बोझ कम करना चाहते हैं।
2. वातावरण-
दलित परिवारों में पले-बढ़ रहे बच्चों तथा सामान्य बच्चों में सबसे बड़ा अन्तर उनके वातावरण का होता है। दलित परिवारों में प्रारम्भ से ही बच्चों को पुश्तैनी कार्य में लगा दिया जाता है। शिक्षा के प्रति उनमें अधिक जागरूकता नहीं होती है। सामाजिक भेदभाव को वे अपनी नियति मान लेते हैं। यदि वे विद्यालय जाते भी हैं तो विद्यालयों में पढ़ाई शीघ्र छोड़ देते हैं। दलित बच्चों को उनके माता-पिता वे सुविधाएँ भी प्रदान नहीं कर पाते हैं, जो उनके विकास के लिए आवश्यक हैं। सामान्य बच्चों में अधिकतर बच्चों को श्रेष्ठतम सुविधाएँ प्राप्त होती हैं, जिससे उनका मानसिक तथा बौद्धिक विकास भी तेजी से होता है।
3. समाज का दृष्टिकोण
सामान्य परिवारों में पल-बढ़ रहे बच्चे दलित परिवारों के बच्चों को अपने साथ एक विद्यालय में देखकर उनसे दूरी बनाकर रखते हैं। समाज उन्हें हीन दृष्टि से ही देखता है। इस प्रकार प्राचीन काल से उनके प्रति चला आ रहा भेदभाव उन्हें झेलना पड़ता है।
4. शिक्षा-
दलित परिवारों के बच्चों के माता-पिता अशिक्षित होते हैं अतः वे अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति अधिक जागरूक नहीं होते हैं। प्रतियोगिता के इस युग में अंग्रेजी माध्यम के बड़े-बड़े विद्यालय खुल गए हैं। ऐसी स्थिति में यदि ये बच्चे सरकारी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर भी लेते हैं तो भी उन बच्चों की तुलना में बराबरी पर खड़े नहीं हो पाते हैं। इन्हें बाल्यावस्था से ही रोजगार पर लगा दिया जाता है तथा काम को छोड़कर प्रतिदिन विद्यालय जाना इनके लिए काफी कठिन होता है। अतः ये बच्चे सामान्य बच्चों से शैक्षिक स्तर में काफी पीछे होते हैं।
5. परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति-
दलित परिवारों का सामाजिक-आर्थिक स्थिति काफी निम्न होती है। दलित वर्ग के लोग एक तो शिक्षा के प्रति वैसे ही उदासीन होते हैं, दूसरे जब उनके बच्चे विद्यालय में जाते हैं और शिक्षक तथा सहयोगी छात्र उनसे भेदभाव करते हैं तथा उनको छूना भी पसन्द नहीं करते हैं और उन्हें हर समय यह ध्यान दिलाते रहते हैं कि वे दलित हैं। इस प्रकार उन्हें अन्य बालकों की भाँति समान अवसर प्राप्त नहीं हो पाते हैं। आय तथा धन की असमानता के कारण शिक्षा प्राप्त करना वे समय की बरबादी समझते हैं। निर्धनता और निम्न जीवन-स्तर की चक्की में पिसने के लिए वे विवश होते हैं।
6. वंशानुक्रम -
सामान्य तथा दलित बच्चों में कुछ वंशानुगत अन्तर भी होता है, माता-पिता के जीन्स के माध्यम से जो गुण उन्हें प्राप्त होते हैं। उस कारण उनमें चिन्तन की क्षमता, बुद्धि, योग्यता में भी अन्तर होता है। यद्यपि यह अन्तर सभी बच्चों में पाया जाता है।