राष्ट्रीय एकता के लिये शिक्षा का महत्त्व
राष्ट्रीय एवं भावात्मक एकता
- राष्ट्रीय भावात्मक एकता के अन्तर्गत वे बातें निहित हैं, जिनके माध्यम से सम्पूर्ण राष्ट्र एकरूप हो जाय, समस्त राष्ट्र जनहित में पूरी तरह संगठित हो तथा राष्ट्रीय स्तर पर भावनात्मक रूप में जुड़ा हुआ हो।
राष्ट्रीय एकता सम्मेलन-
"राष्ट्रीय एवं भावनात्मक एकता एक मनोवैज्ञानिक तथा शैक्षिक प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत जनता के हृदय में एकता, संगठन और संशक्ति की भावना, एक समान नागरिकता की अनुभूति तथा राष्ट्र के प्रति वफादारी की भावना का विकास होता है।"
- राष्ट्रीय भावनात्मक एकता के स्वरूप को सुन्दरतम् बनाने में शिक्षा अभिन्न कार्य करती है। आज हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो समस्त प्राणी मात्र को एकरूप में संगठित करे। वह अपने और पराये के भेद को समाप्त कर दे। ऊँच-नीच की खाई को सदैव के लिए पाट दे। भारत की बदलती हुई परिस्थितियों में शिक्षा ही एक ऐसा अभीष्ट साधन है, जिसके द्वारा राष्ट्र की एकता को सबल तथा संगठित किया जा सकता है।
राष्ट्रीय एकता के लिए शिक्षा
मनुष्य अपने पारस्परिक जाति भेद, प्रान्त भेद, व्यक्ति हित को छोड़कर और समूहीकरण की भावना से ओत-प्रोत होकर राष्ट्र की सत्ता को स्वीकार करते हैं तथा उसके उत्थान के लिए योगदान करते हैं। राष्ट्र की आवश्यकताओं, आदर्शों तथा मान्यताओं के अनुसार ही शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। नागरिकों में राष्ट्र के प्रति अपार भक्ति, शासक की आज्ञा का पालन, अनुशासन, आत्म-त्याग, कर्त्तव्य पालन आदि की भावना का विकास करना शिक्षा का आदर्श होता है। राष्ट्र अपने आदर्शों के प्रचार के लिए विद्यालयों को अपना मुख्य साधन बना लेता है। इस प्रकार की शिक्षा राष्ट्र के निर्माण में अत्यन्त ही सहायक होती है। क्योंकि राष्ट्र-हित का ध्यान रखकर ही उसकी व्यवस्था की जाती है। शिक्षा द्वारा सामाजिक कुरीतियों, अन्धविश्वासों तथा रूढ़िगत विचारों का अन्त हो जाता है। नागरिकों में उत्तरदायित्व की भावना प्रबल होती है तथा उसे निभाने की सामर्थ्य भी। स्वार्थपरता का लोप हो जाता है।
राष्ट्रीय एकता हेतु शिक्षा का निम्नलिखित रूपों में प्रयोग किया जाता है-
(1) पाठ्यक्रम में किसान के विषयों को प्रमुखता देनी चाहिए, ताकि विचारों की संकीर्णता, अन्धविश्वास एवं जाति भेद जैसे मामलों का अन्त हो सके। समानता तथा स्वतन्त्रता के आदर्शों को ध्यान में रखकर शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।
(2) बालकों को शिक्षा इस प्रकार दी जाती है जिसमें उन्हें विचारने का पर्याप्त अवसर मिले। आज के बालक कल के कर्णधार होंगे, अतः उन्हें चिन्तनशील होना चाहिए।
(3) मानव की पारस्परिक निर्भरता को शिक्षा द्वारा स्पष्ट करना चाहिए। बालकों को इस बात का ज्ञान कराना चाहिए कि किस प्रकार एक देश की आर्थिक तथा राजनीतिक उन्नति राष्ट्र के अन्य प्रदेशों पर भी निर्भर करती है। इस जानकारी से बालकों में दूसरे प्रदेशों के प्रति अनुराग एवं आदर के भाव उत्पन्न होते हैं।
(4) भूगोल, इतिहास तथा नागरिक शास्त्र के शिक्षण द्वारा बालकों के समक्ष राष्ट्रीय नागरिकता का आदर्श उपस्थित करना चाहिए। राष्ट्र के प्रति प्रेम का भाव उत्पन्न हो जाना चाहिए।
(5) राष्ट्रीय एकता सद्भाव को विकसित करने के साधनों के मध्य शिक्षण भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इस कार्य की बहुत कुछ सफलता शिक्षक के व्यक्तित्व, आदर्श, विश्वास, कार्य-निष्ठा आदि पर निर्भर करती है। शिक्षक विशिष्ट दृष्टिकोण के आधार पर विषयों को, छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। वह अपने चातुर्य से उन आदर्शों को प्रस्तुत करता है जिससे वर्गभेद विहीन समाज की स्थापना हो सके। बालक इससे प्रभावित होकर ऐसे तत्त्वों को स्वीकार करते हैं तथा राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत हो जाते हैं। शिक्षक इस कार्य को व्यावहारिक रूप देने के लिए सामूहिक कार्यों का आयोजन, राष्ट्रीय परिषद् की स्थापना, राष्ट्रीय बातों (प्रकरणों) पर वाद-विवाद, उत्सव, नाटक, मेले आदि का आयोजन कर वांछित भावनाएँ उत्पन्न करने में सफल हो सकता है।