सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास (Social and Emotional Development)
शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास
के.एम. ब्रिजेज ने 'मोन्ट्रियल
फाउण्डलिंग एवं बेबी अस्पताल' के 62 शिशुओं के
संवेगात्मक व्यवहार के हुए अध्ययन से तीन निष्कर्ष निकाले-
(1) संवेगों का विकास धीरे-धीरे अस्पष्टता की ओर होता है।
(2) विशिष्ट संवेग मन्द गति से आदत के साथ जुड़ता है।
(3) शारीरिक आयु के साथ-साथ संवेगात्मक विकास में तीव्रता हुई।
अतः मनोवैज्ञानिकों के
अध्ययन के आधार पर हम शिशु के संवेगात्मक विकास का निर्धारण निम्नलिखित प्रकार से
प्रस्तुत करते हैं-
क्रम संख्या आयु-समूह संवेग-प्रकार
1. जन्म के समय उत्तेजना
2. 1 माह पीड़ा-आनन्द
3. 3 माह क्रोध
4. 4 माह परेशानी
5 5 माह. भय
6. 10 माह
7. 15 माह ईर्ष्या
8. 24 माह खुशी-प्रसन्नता
शैशवावस्था में प्रमुख
रूप से प्रेम, भय, क्रोध आदि तीन
संवेगों का ही विकास हो पाता है। बच्चे, थोड़ी-थोड़ी देर में अपने संवेगों को बदलते रहते हैं। बालक
कभी रोता है, कभी हँसता है और
कभी दोनों का प्रकटीकरण साथ-साथ ही करने लगता है। जस्टिन 1932 के अध्ययन से
साथियों के प्रभाव से संवेगों का विकास होना पाया गया। मनोविश्लेषणवादी काम
प्रवृत्ति को भी महत्व देते हैं, क्योंकि बच्चा माँ के स्तनपान का आनन्द लेता है और अपने
यौनांगों पर हाथ फिराता है। शैशवावस्था के अन्तिम चरण में वातावरण संवेगात्मक
विकास को प्रभावित करने लगता है।
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास
किशोरावस्था में प्रवेश करने परं लड़के एवं लड़कियों से अनुशासन जीवन व्यतीत करने की आशा की जाती है, लेकिन होता इसके ठीक विपरीत है। इसीलिए उन्हें हम न बच्चों की कोटि में रखते हैं और न हम उन्हें प्रौढ़ों की कोटि में। इस अवस्था में सबसे अधिक संवेगात्मक अस्थिरता पायी जाती है। जिसके लिए निम्नलिखित दशाएँ जिम्मेदार होती हैं-
(1) स्थायित्वता (Permanancy) -
- इस अवस्था में संवेग अपनी परिपक्वावस्था में होता है। वह न्याय और अन्याय में अन्तर स्पष्ट करता है। वह शीघ्रता से निर्णय भी लेता है, लेकिन वे सही होते हैं। इसी परिणामस्वरूप उसमें दया और सहानुभूति के भाव जाग्रत होते हैं।
(ii) व्यक्तित्व का निर्माण (Structure of Personality) -
- किशोर एवं किशोरी का व्यक्तित्व गठन संवेगों का प्रकाशन से ही बनता है। स्वस्थ शरीर गठन के व्यक्तित्व में अधिक क्षमता होती है और वे संवेगों पर भी उचित नियन्त्रण करने में सफल होते हैं। कमजोर शरीर के व्यक्तित्व में क्रोध एवं चिड़चिड़ापन अधिक पाया जाता है। अतः संवेगात्मक विकास के द्वारा व्यक्तित्व के गठन को स्पष्टता प्रदान की जाती है।
(iii) सामाजिक सम्मान (Social Respect)-
- प्रायः यह देखा जाता है कि किशोर और किशोरी परिवार में, समाज में या अपने सहयोगियों में उपयुक्त सम्मान या स्थान पाने के लिए संवेगों का प्रदर्शन करते हैं। यदि यह प्रदर्शन सही समय पर होता है, तो उसका फल उसे सामाजिक सम्मान प्रदान करवाता है। इसके साथ ही सामाजिक नियमों के आधार पर संवेगों का प्रदर्शन करना भी किशोरों को सामाजिक सम्मान दिलवाते हैं।
(iv) चेतनता और जागरूकता (Consciousness and Wake Fullness)-
- इस अवस्था में किशोर एवं किशोरियाँ अपनी आकृति, स्वास्थ्य, सम्मान, धन प्राप्ति, शैक्षिक सफलता एवं सामाजिक सम्मान के प्रति चैतन्य रहते हैं। इसके लिए वे समय-समय पर क्रोध, प्यार, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा एवं संवेगों का खुलकर प्रयोग करते हैं।
(v) काम प्रवृत्ति की तीव्रता (Pungency of Sex Tendency) -
- इस अवस्था में परिवार बुद्धि के सामान्य नियमों की जानकारी सैद्धान्तिक रूप से किशोर एवं किशोरियों को हो जाती है। वे इसे व्यावहारिक रूप में जानना चाहते हैं। अतः उनमें काम प्रवृत्ति की जागरूकता प्रारम्भ होती है। वे एक-दूसरे के प्रति आकर्षण महसूस करने लगते हैं। जैसा कि बी.एन. झा ने लिखा है- "किशोरावस्था में किशोर एवं किशोरी, दोनों में काम प्रवृत्ति बहुत तीव्र हो जाती है और संवेगात्मक व्यवहार पर असाधारण प्रभाव डालती है।"
(vi) व्यावहारिक अस्थिरता (Usual Unpermanence) -
- इस अवस्था में संवेगों का प्रभाव इतना तीव्र होता है कि किशोर एवं किशोरी एक ही प्रकार का व्यवहार नहीं कर पाते हैं। प्रायः यह देखने में आता है कि समान परिस्थितियों में असमान व्यवहार इनके द्वारा किया. जाता है। यह असमानता, संवेगात्मक तीव्रता के कारण होती है, जो उनके व्यक्तित्व पर हावी होकर व्यवहार करवाती है।